Thursday, April 25, 2019

रात में चोपता से चंद्रशिला (Chopta to Chandrashila in the Night)

रात में चोपता से चंद्रशिला
(Chopta to Chandrashila in the Night)







चोपता-तुंगनाथ-चंद्रशिला श्रृंखला के इस पोस्ट में आइए हम आपको चोपता से लेकर चंद्रशिला तक की यात्रा (नवम्बर 2017) करवाते हैं। रात के दो बज रहे थे और सभी साथी चोपता के एक बुगियाल में अपने अपने घोसले (टेंट) में नींद की आगोश में लिपटे हुए हसीन सपने में खोए हुए सो रहे थे। तभी अचानक से मोबाइल का अलार्म बजता है और किसी एक की नींद में खलल उत्पन्न होता है और वह नींद के थैले (स्लीपिंग बैग) के अंदर से ही उसी घोसले में अपने साथ सो रहे तीन और साथियों को हिला-डुला कर और कुछ आवाज लगाकर जगाता है। कुछ आंखें खुलती है तो कुछ बंद ही रहती है लेकिन जगाने वाला भी जिद में था कि जगा कर ही छोड़ना और आखिरकार सबको जगाकर ही वो रुकता है।

Wednesday, April 24, 2019

चोपता-तुंगनाथ-चंद्रशिला (Chopta-Tungnath-Chandrashila)

चोपता-तुंगनाथ-चंद्रशिला (Chopta-Tungnath-Chandrashila)




इस जगह पर जाने का सौभाग्य हमें दो बार प्राप्त हुआ और दोनों ही बार मौसम ने बिल्कुल अलग अलग रंग दिखाए। एक ही दिन में मौसम के हजार रंग देखने को मिले। कभी बादल भैया ने रास्ता रोका तो कभी बरखा दीदी ने दीवार खड़ा किया तो कभी सूरज बाबा ने अपनी चमक से हमें चमकाया। कभी उन वादियों में खो गए तो कभी रास्ता भी भटके। कभी हिमालय के बड़े से कप में बादलों की आईसक्रीम का स्वाद लिया, तो कभी सुनहरे बादलों में सूरज का गुलाब जामुन भी बनते देखा। कभी सूरज को बादलों में प्रवेश करते देखा तो कभी उसी सूरज बाबा को बादलों से के आगोश से निकलने के लिए तड़पते भी देखा। कभी महादेव के चरणों में लोटे तो कभी चंद्रशिला से उगते सूरज का देखा।

Tuesday, April 23, 2019

रेगिस्तान की एक सुबह (A morning of Sand Dunes)

रेगिस्तान की एक सुबह (A morning of Sand Dunes)




16 दिसम्बर की सुबह जैसलमेर की रेगिस्तानी वादियों में आपके सभी साथी अपने अपने तबेले में ऊंट बेच कर सो रहे हों। चारों तरफ सन्नाटा हो, अगर कुछ सुनाई पड़ रहा हो तो अगल-बगल के टेंटों से एक-दो मानवीय ट्रेक्टरों की आवाज। आप भी जागते हैं और रजाई से बाहर आते ही ऐसा लगता है जैसे ठंड काटने को दौड़ रहा है और आप फिर से रजाई में दुबके जाते हैं और याद आता है कि अरे हमने तो पांच बजे सबको जगाने का वादा किया है फिर थोड़ा हां थोड़ा ना करते हुए आप 4 से 5 डिग्री के तापमान में भी रजाई को फेंक कर बाहर निकलते हैं।

Sunday, April 21, 2019

हिमालय (Himalaya)

हिमालय (Himalaya)






बचपन से तुम्हारे बारे में सुना करता था, कभी किताबों में पढ़ता था, तो कभी अखबारों में देखता था, तो कभी बड़े-बुजुर्गों से तुम्हारे बारे में सुना करता था, पर तुमको कभी देख नहीं पाया था। बस मन ही मन महसूस करता था कि तुम कैसे दिखते होगे, कितने खूबसूरत होगे, तुमको देखकर कैसा लगता होगा। तुम्हारा नाम जब भी कोई लेता था मन में एक जिज्ञासा उठती थी आखिर ऐसा क्या है जो तुम इतना लुभाते हो सबको। तुमसे मिलने की ईच्छा लिए कई बार घर से भी भागा पर तुम तक पहुंच नहीं पाया। कभी कलकत्ता तो कभी बनारस, कभी गया तो कभी देवघर, कभी पटना तो कभी सुल्तानगंज, कभी रांची तो कभी बोकारो, कभी राजगीर तो कभी गिरियक, कभी यहां तो कभी वहां, कभी ईधर तो कभी उधर--कहां कहां नहीं गया तुमसे मिलने के लिए, लेकिन तुम इतने दूर बैठे थे कि मैं तुम तक कभी पहुंच ही नहीं पाता था। तुमसे मिलने की आस में आधी से ज्यादा जिंदगी गुजर गई पर पर तुम नहीं मिले।

Saturday, January 19, 2019

शम्भू जी की रेल यात्रा (Train Journey of Shambhu Jee)

शम्भू जी की रेल यात्रा (Train Journey of Shambhu Jee)




मेरे पड़ोस में एक शम्भू दयाल नामक एक व्यक्ति रहते हैं। एक बार अचानक ही उन्हें कहीं जाना पड़ गया। बड़ी मुश्किल से उन्होंने एक तत्काल टिकट का इंतजाम किया, वो भी वेटिंग हो गई, लेकिन किस्मत ने उनका साथ दिया और टिकट कंफर्म भी हो गई। वो यात्रा के लिए घर से निकले और स्टेशन पहुंच गए। स्टेशन पर जाने पर पता चला कि उन्होंने जिस गाड़ी का टिकट लिया उससे पहले की दो ट्रेन और बाद की तीन ट्रेन कैंसिल है। ट्रेन कैंसिल होने का कारण भी ये था कि जो ट्रेनें यहां से जानी थी वो आई ही नहीं थी क्योंकि जहां से वो आने वाली थी वो किसी राजनीतिक पार्टी के देश या राज्य बंद के कारण रास्ते में ही खड़ी थी। मतलब कुल मिलाकर यह हुआ कि उन सभी ट्रेनों की जितनी सवारियां हैं उनमें से अधिकतर सवारियां जो भीड़ का सामना करने का हौसला रखती है, वो इसी में सवार होगी।

Thursday, January 17, 2019

घुमक्कड़ (Traveller)

घुमक्कड़ (Traveller)




एक घुमक्कड़ हमेशा एक सफर में रहना चाहता है और बिना थके, रुके, बिना मुड़े, बस ईधर-उधर देखते हुए चलता ही रहना चाहता है। उसे मंजिल नहीं चाहिए होता है उसे तो रास्ते अच्छे लगते हैं। रास्ते उसके लिए मंजिल होते हैं और मंजिल बस एक पड़ाव। वह चलता रहना चाहता है और किसी चलती हुई रेलगाड़ी के पीछे भागते हुए पेड़-पौधों, घर और दीवार को गिनना चाहता है। रास्ते में मिलने वाले खूबसूरत नजारें उसे दीवाना बनाते हैं और उसकी दीवानगी में वो बस चलता रहता है, उससे मिलने के लिए। वह बर्फ की चादर ओढ़ कर सोए हुए किसी झील के किनारे बैठकर उसके प्यार की आग में जलते रहना चाहता है और उसे अपने हृदय की अनंत गहराइयों में उतार लेना चाहता है।

Tuesday, January 15, 2019

रेगिस्तान और हिमालय (Registan aur Himalaya)

रेगिस्तान और हिमालय (Registan aur Himalaya)




बिछड़े हुए दो प्रेमी : रेगिस्तान और हिमालय (Registan aur Himalaya)कितनी अजीब बात है न, हम दोनों ने एक ही जगह से अलग-अलग दिशाओं में सफर करना आरंभ किया था और सोचे थे कि चलते चलते एक न एक दिन कहीं मिल जाएंगे। मिलने की उम्मीद में बस चले ही जा रहे थे कि सहसा ही हमारे कदम रुक गए थे। हमने पीछे मुड़कर देखा था कि जरूर तुम भी मुझे पीछे मुड़कर देख रहे होगे और बहुत खुशी हुई थी कि ये देखकर कि तुम भी मुझे ठीक वैसे ही देख रहे हो जैसे हम तुमको देख रहे हैं। हम सोच रहे थे कि तुम वापस आओगे और तुम सोच रहे थे हम वापस आएंगे और इसी सोच में न जाने कब हम दोनों ही अपने स्थान पर जड़बद्ध हो गए पता ही नहीं चला।

Monday, January 14, 2019

रास्ता (Way)

रास्ता (Way)



जब हम कहीं किसी सफर पर निकलते हैं तो बस दो चीजें ही ध्यान में रहती है कि कहां से चलना है और कहां जाना है। यहां से वहां तक और फिर वहां से वहां तक। पर कुछ दीवाने हमारे और आप जैसे भी होते हैं जिनका ध्यान यहां से वहां तक बहुत कम होता है। उनको ध्यान तो यहां से वहां के बीच पड़ने वाले रास्ते पर होता है। जो रोमांच रास्तों को देखकर होता है वो मंजिल पर पहुंचकर नहीं। मंजिल तक पहुंचकर तो सफर समाप्त हो जाता है। रास्ते तो बस चलते रहते हैं जो कभी खत्म नहीं होता। जो खूबसूरती किसी सफर में रास्ते में दिखाई देती है वो मंजिल पर पहुंचकर नहीं। मंजिल तो बस एक विश्रामस्थल है जहां कुछ देर रुकना फिर आगे चल पड़ना है।

Saturday, January 5, 2019

वैष्णो देवी यात्रा का सारांश (Summary of Vaishno Devi Journey)

वैष्णो देवी यात्रा का सारांश 

(Summary of Vaishno Devi Journey)




वैष्णो देवी के प्रति मेरे मन में ऐसी श्रद्धा बैठ गई है या कहें तो ये जगह मेरे मन में ऐसे बस गई है कि हमारा बेचैन मन हर बार और बार बार यहां जाना चाहता है। अब बार-बार जाना संभव तो है नहीं तो उस इच्छा पूर्ति के लिए साल में एक बार यहां का रुख कर लेते हैं और वो समय होता है नवरात्रों का। पूरा विवरण लिखने से पहले आइए उसी यात्रा एक सारांश हम आपके सामने रखते हैं। हमारी यह यात्रा 16 अक्टूबर की शाम को दिल्ली से आरंभ होकर 19 अक्टूबर की सुबह को दिल्ली आकर समाप्त हुई। (यात्रा का आरंभिक और समाप्ति स्थल-दिल्ली)। टिकट बुकिंग चार महीने पहले, ट्रेन 12445 अप, रात 8.50 (दिल्ली से कटरा), 12446 डाउन, शाम 6.55 (कटरा से दिल्ली)। यात्रा का कुल खर्च 1300 रुपए (10 रुपया घर से नई दिल्ली, 385 रुपया नई दिल्ली से कटरा, 406 रुपया रुकने का (दो दिन का, एक दिन का 203 रुपया) साथ ही नाश्ता फ्री और पानी बोतल मुफ्त, 40 रुपए का प्रसाद, 385 रुपया कटरा से नई दिल्ली, 15 रुपया नई दिल्ली से घर, दस-बीस रुपए और अतिरिक्त खर्च)।

Friday, January 4, 2019

मध्यमहेश्वर यात्रा का सारांश (Summary of Madhyamaheshwar Journey)

मध्यमहेश्वर यात्रा का सारांश
(Summary of 
Madhyamaheshwar Journey)



जब हम पहली बार केदारनाथ गए थे तभी से मन में पांचों केदार (केदारनाथ, मध्यमहेश्वर, तुंगनाथ, रुद्रनाथ, कल्पेश्वर) के दर्शन करने की इच्छा हुई थी जो धीरे-धीरे फलीभूत भी हो रही है। केदारनाथ के बाद तुंगनाथ गया और फिर दुबारा भी तुंगनाथ पहुंच गया। समय के साथ आगे बढ़ते हुए दुबारा भी हमने केदारनाथ यात्रा कर लिया और उसके बाद बारी थी किसी और केदार तक पहुंचने की। दो बार केदारनाथ और दो बार तुंगनाथ के दर्शन के पश्चात हमारे कदम चल पड़े थे एक और केदार मध्यमहेश्वर के दर्शन करने। मध्यमहेश्वर यात्र का पूरा विवरण लिखने से पहले आइए पढि़ए उसी यात्रा का सारांश। हमारी यह यात्रा 27 सितम्बर 2018 की शाम को दिल्ली से आरंभ होकर 2 अक्टूबर सुबह को दिल्ली आकर समाप्त हुई। (यात्रा का आरंभिक और समाप्ति स्थल-दिल्ली)। रांसी से मध्यमहेश्वर की दूरी 18 से 20 किलोमीटर है जो पैदल ही तय करनी होती है या घोड़े द्वारा।

Thursday, January 3, 2019

एक अधूरा सफर (An unfinished journey)

एक अधूरा सफर (A unfinished journey)



बहुत दिनों से मन में था कि दीपावली का दिन बदरीनाथ में ठाकुर जी के चरणों में बिताऊंगा और उसी पर अमल करते हुए हम झोला लेकर निकल पड़े थे ठाकुर जी से मिलने। निकल तो पड़े थे लेकिन या तो ठाकुर जी मुझसे मिलना नहीं चाहते थे या फिर मेरी परीक्षा ले रहे थे कि कर्म और पूजा में मैं किसे प्राथमिकता देता हूं। अपनी बनाई योजना के अनुसार रात नौ बजे (5 नवम्बर 2018) घर से निकले और करीब 40 मिनट के छोटे से सफर के बाद हम पहुंच गए कश्मीरी गेट बस अड्डे। वहां जाते ही बस अड्डे के बाहर एक हरिद्वार जाने वाली यूपी रोडवेज की बस मिल गई। लेकिन बस जी पहले से ही सवारियों से सजे-धजे भरे हुए थे, केवल पीछे की दो-तीन सीटें खाली थी, इसलिए हमने उनको बाय-बाय कर दिया और बस अड्डे के अंदर चले गए। वहां कई सारी बसें थी जो अपने गंतव्य पर जाने के लिए सवारियों के इंतजार में खड़ी थी। हम भी एक देर न करते हुए एक हरिद्वार जाने वाली बस में समाहित हो गए और एक सीट पर अपना कब्जा जमा लिया।

Tuesday, August 28, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-10: ओंकारेश्वर से देवास (Omakareshwar to Dewas)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-10: ओंकारेश्वर से देवास
(Omakareshwar to Dewas)





सुबह इंदौर से चलकर ओंकारेश्वर पहुंचना और तत्पश्चात् नर्मदा में स्नान करने के बाद मंदिर में भगवान भोलेनाथ के दर्शन करते करते दोपहर से ज्यादा का समय बीत चुका था। मंदिर में दर्शन के उपरांत कहां जाएं, कहां न जाएं की उहापोह वाली स्थिति उत्पन्न हो गई थी। तभी नदी के उसी तरफ से दिखाई देते एक बहुत बड़े शिव प्रतिमा को देखने की ललक से परिक्रमा पथ पर घूमने का मौका मिला। इस दौरान एक साथ कई कार्य हो गए थे। जैसे कि शिव प्रतिमा के दर्शन के साथ-साथ बहुत से पौराणिक और ऐतिहासिक स्थलों, मंदिरों और आश्रमों को देखने का मौका मिला। पूरे रास्ते नर्मदा, पहाड़, हरियाली, मंदिरों और पौराणिक स्थलों के अवशेष, पक्षियों का कलरव, बंदरों की धमाचैकड़ी ने उस समय का आनंद लेने का भरपूर मौका दिया था। हमने 1 बजे परिक्रमा आरंभ किया था और करीब 4ः30 बजे तक परिक्रमा पथ की परिक्रमा पूर्ण करके फिर से मंदिर तक आ गए थे। यहां पहुंचकर एक बार फिर से अपने भगवान भोले नाथ को प्रणाम करते हुए आगे के सफर पर निकल पड़ा। हमारी योजना ओंकारेश्वर से महेश्वर जाने की थी पर होनी को कुछ और ही मंजूर था और हम चले थे महेश्वर के लिए और पहुंच गए कहीं और। वो कहते हैं न कि दुनिया गोल है जहां से आप चलेंगे वहीं पहुंच जाएंगे और मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ। चलिए हम आपने साथ आपको उसी जगह पर ले चलते हैं, जहां फिर से कल ही की तरह उसी शहर में आभासी दुनिया के अनजान लोगों का मिलन था, जहां एक अपनापन था, प्यार और स्नेह था।

Monday, August 20, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-9 : ओंकारेश्वर परिक्रमा पथ (Omakareshwar Parikarma Path)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-9 : ओंकारेश्वर परिक्रमा पथ (Omakareshwar Parikarma Path)



ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करते करते 12 बज चुके थे। दर्शन के पश्चात मंदिर से निकल कर उसी दुकान पर पहुंचे जहां से हमने प्रसाद लिया था और अपना बैग रखा था। दुकान वाले को प्रसाद के पैसे देकर अपना बैग वापस लिया और कुछ देर मंदिर के पास पसरे बाजार में यहां वहां घूमते रहे। दोपहर से ज्यादा का समय बीत चुका था और अब तक भूख भी सताने लगी थी तो हमने वहीं पटरी पर बिक रहे खाने की चीजों में से कुछ चीजें खरीद कर और वहीं किनारे बैठ कर खा लिया और तत्पश्चात ये सोचने लगे कि अब यहां से कहां जाया क्योंकि मंदिर में देवता के दर्शन तो हो गए और यहां कुछ दिख नहीं रहा जहां जाया जा सके, तभी अचानक ध्यान आया कि नदी के उस पार टेम्पो से उतरते ही एक बहुत ही बड़ी शिव प्रतिमा दिख रही थी वो तो हमने देखा ही नहीं। फिर वहीं पास ही एक दुकान वाले से पूछा कि भाई ये बताएं कि नदी के उस तरफ से एक बहत ही बड़ी शिव की प्रतिमा दिखाई देती है वो कहां पर है मुझे उसे देखना है। दुकान वाले ने बताया कि वो प्रतिमा परिक्रमापथ पर स्थित है जो कि यहां से करीब 4 किलोमीटर है। मैंने उनसे रास्ता पूछा तो उन्हांेने कुछ लोगों की इशारा करके बताया कि वो सब लोग जिधर जा रहे हैं वो ही परिक्रमा पथ और सब उधर ही जा रहे हैं। फिर हमने उनसे कुछ और जानकारियां ली कि कुल दूरी कितनी है परिक्रमा पथ की और समय कितना लग जाएगा तो उन्होंने जवाब दिया कि कुल दूरी 7 से 8 किलोमीटर के करीब है और समय अपने-अपने चलने की क्षमता पर निर्भर करता है लेकिन फिर भी लोग 3 से 4 घंटे में आ ही जाते हैं। मैंने घड़ी देखा तो एक बजने में कुछ समय बाकी था मतलब कि हम अभी चलें तो चार बजे तक वापस आ सकते हैं।

Monday, August 13, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-8 : ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन (Omkareshwar Jyotirling)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-8 : ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन 
(Omkareshwar Jyotirling)


सुबह सात बजे इंदौर से चलकर ओंकारेश्वर पहुंचते-पहुंचते करीब दस बज चुके थे। करीब करीब दस बजे या यों भी कह लीजिए कि ठीक दस बजे मैं ओंकोरश्वर पहुंच चुका था। ओंकारावर में बस स्टेशन से मंदिर और घाट की दूरी करीब दो से तीन तीन किलोमीटर है और बस स्टेशन से घाट (मंदिर) तक जाने के लिए आॅटो चलती है। मुझे भी बस से उतरते ही एक आॅटो मिल गई। सवारियां पूरी होने के बाद आॅटो चली और करीब दस मिनट में वहां पहुंच गए जहां जाने के लिए आए थे। इंदौर से चलकर यहां तक के सफर में करीब तीन घंटे से ज्यादा लगे और समय भी साढ़े दस हो गया था। यहां उतरते ही पहले तो दुकान वाले पीछे पड़ने लगे कि मेरे यहां से प्रसाद ले लीजिए और सामान रख दीजिए और शाम तक आप कभी भी आकर अपना सामान ले जाइएगा। पर हमने अपना सामान कहीं नहीं रखा और सीधे नर्मदा घाट पर पहुंच गए और नहाने के लिए ऐसे जगह की तलाश करने लगे कि जहां पर सामान रखकर आराम से नहा सकें।

Sunday, August 5, 2018

ऐसा देश है मेरा (Aisa Desh Hai Mera)

ऐसा देश है मेरा (Aisa Desh Hai Mera)



कभी-कभी ऐसा कुछ होता है जिसके बारे में हम कुछ सोच नहीं पाते। ऐसा ही कुछ हुआ जिसके कारण हमने ये लेख लिखा है। इस आलेख की पटकथा एक फोटो से आरंभ हुई थी इसलिए उसी फोटो को हम इस पोस्ट में लगा रहे हैं। यह फोटो हमारे एक घुमक्कड़ मित्र आदरणीय किशन बाहेती (Kishan Bahety) जी द्वारा लेह यात्रा के दौरान ली गई थी। आइए आप भी पढि़ए इस आलेख को, जिसे लिखने में मेरा सहयोग अनुराग गायत्री चतुर्वेदी (Anurag Gayatree Chaturvedi) जी ने भी किया है।

ऐसा देश है मेरा तो क्यों परदेश मैं जाऊं।
अगला जन्म लेकर इस पुण्य धरा पर आऊं।

उपरोक्त ये जो दोनों पंक्तियां अभी आपके सामने है, ये केवल दो पंक्तियां नहीं बल्कि अपने इस देश की गौरव गाथा है। इन दो पंक्तियों से ही इस देश की संपूर्ण गाथा लिखी जा सकती है। ज्यादा तो नहीं थोड़ा लिखने की कोशिश किया हूं, उम्मीद है सबको पसंद आएगा। असल ये दोनों पंक्तियां आदरणीय किशन बाहेती जी की है, जिस पर मैंने अपने देश का गुणगान करते हुए ये लेख लिखा है।

Friday, August 3, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-7 : इंदौर से ओंकारेश्वर (Indore to Omkareshwar)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-7 : इंदौर से ओंकारेश्वर 
(Indore to Omkareshwar)



अब तक के पिछले भागों में आपने पढ़ा कि किस तरह मैं उज्जैन के दर्शनीय स्थानों महाकालेश्वर मंदिर, विक्रमादित्य का टीला, हरसिद्धी मंदिर, भतृहरि गुफा, गढ़कालिका मंदिर, कालभैरव मंदिर, सिद्धवट मंदिर, मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम आदि जगहों को देखने के बाद उज्जैन से इंदौर अपने घुमक्कड़ मित्र डाॅक्टर सुमीत शर्मा जी के यहां पहुंचा। उनके साथ वो प्यार भरी मुलाकात, अपने हाथों से परोसा कर खाना खिलाना और साथ में इंदौर के बाजार में रात्रि भ्रमण। इंदौर का पूरा सर्राफा बाजार घूम लेने के बाद जब हमने कुछ नहीं खाया तो उनका ये कहना कि कोई और होता तो इतना खाता कि उसे चार आदमी उठा कर ले जाते, पर आपने पूरा सर्राफा बाजार घूम लिया और खाने-पीने के नाम पर केवल आधा गिलास दूध। बाजार भी ये सोच रहा होगा कि इस खाऊ-पकाऊ गली में केवल खाने-पीने वाले लोग आते है, ये पहला अजूबा आदमी आया है जिसने कुछ नहीं खाया। अब उनको क्या बताते कि आपने अपने हाथों से थोड़ा और थोड़ा और करके जितना खिला दिया वो क्या कम था जो अब और खाते। पेट में एक दाने के लिए जगह नहीं थी तो कैसे खाते। खैर ये तो हो गई कल की बात। अब आगे की बात करते हैं।

Tuesday, July 24, 2018

नदी : एक शीतल अहसास (Nadi: Ek Sheetal Ehsas)

नदी : एक शीतल अहसास (Nadi: Ek Sheetal Ehsas)


हर इंसान की जिंदगी को कुछ न कुछ चीजें प्रभावित करती हैं। कुछ चीजों के प्रति उसका जुनून और पागलपन हमेशा उसके साथ रहता हैं। कुछ शब्द, कुछ वस्तुएं, शहर, गांव, नदियां, खेत, जानवर, पक्षी आदि बहुत सी चीजें हैं जिनसे इंसान प्रभावित होता है और किसी खास चीज से इंसान का खास लगाव भी रहता है। कुछ चीजें किसी खास इंसान को बहुत हद तक आकर्षित करती है। वैसे ही और लागों की तरह हमें भी बहुत सी देखी-अनदेखी चीजों ने आकर्षित किया है, जैसे पहाड़, समुद्र, नदी, झरने, सड़कें, बाढ़, हरे-भरे खेत आदि और भी न जाने ऐसी कितनी चीजें हैं जिसके प्रति सदा ही मेरा आकर्षण रहा है। पहाड़ के प्रति मेरे लगाव, जुनून और पागलपन को आपने पहले पढ़ा ही होगा। आइए अब अपने नदी के प्रति उस लगाव के बारे में बताते हैं, जहां पहुंचकर हमें एक बहुत ही शीतलता का आभास होता था।

Sunday, June 17, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-6 : मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम (Mangalnath Temple and Sandipani Ashram)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-6 : मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम (Mangalnath Temple and Sandipani Ashram) 








उज्जैन के दर्शनीय स्थानों के भ्रमण की श्रृंखला में महाकालेश्वर मंदिर, विक्रमादित्य का टीला, हरसिद्धी मंदिर, भतृहरि गुफा, गढ़कालिका मंदिर, कालभैरव मंदिर और सिद्धवट मंदिर जैसी जगहों को देखने के पश्चात आइए अब हम आपको मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम लेकर चलते हैं। सिद्धवट मंदिर में पुजारियों की बातों से दुखी और व्यथित होकर सिद्धवट मंदिर क्षेत्र से निकलने के पश्चात देवी को अर्पित करने के लिए मैंने जो फूल खरीदा था वो फूल मैंने दुकान वाले को ही वापस कर दिया और फूल के पैसे देकर चुपचाप उदास मन से आॅटों में आकर बैठ गया। आॅटो वाला मुझे फूल वापस करते हुए देख लिया था तो उसने झट पूछ बैठा कि क्या हुआ जो आपने फूल वापस कर दिया, ज्यादा भीड़ थी क्या? मैंने उसे सारी बातें बताई तो बोला कि इन पुजारियों का अब ये रोज का काम हो गया। यहां आने वाले आधे से ज्यादा लोग इसी तरह दुखी होकर जाते हैं। आपने तो फूल वापस लाकर दुकान वाले को दे दिया पर लोग वहीं मंदिर के आस-पास ही कहीं रख कर चले आते हैं। मैंने भी उदास मन से यही कहा कि चलिए जिनकी जो गति होनी है वो तो होगी ही हम श्रद्धालु लोग ही पागल हैं जो मंदिरों के चक्कर में यहां तक आते हैं। मेरी इस बात का उस आॅटो वाले ने बहुत ही भावुक जवाब दिया।

Wednesday, May 16, 2018

मैं और मेरी साइकिल (Main aur Meri Cycle)

मैं और मेरी साइकिल (Main aur Meri Cycle)


साइकिल एक ऐसा शब्द है जो किसी के लिए बस, तो किसी के लिए ट्रक तो किसी के लिए खेल का सामान, तो किसी के लिए जीविका का साधन है, पर मेरे लिए साइकिल एक सपना था, जिसे पूरा करने के लिए बहुत इंतजार करना पड़ता था। चौथी कक्षा में पढ़ता था तभी से साइकिल के प्रति मेरा रुझान हो गया था। चौथी कक्षा में साइकिल वाला अध्याय पढ़कर मेरे मन में साइकिल चलाने के प्रति तो जुनून आरंभ हुआ वो बस मन में ही दबी रही, उसे मन के गहराइयों से बाहर निकलने के लिए चार साल तक इंतजार करना पड़ा। जब चौथी कक्षा में तो लोगों को साइकिल चलाते हुए देखता तो एक अजीब सी उत्सुकता मन में होती थी कि ये साइकिल तो खुद बिना स्टैंड के खड़ी नहीं होती पर जब चलती है तो कभी एक, कभी दो, कभी तीन और कभी-कभी तो दो आदमी और दो बोरा सामान भी अपने ऊपर लेकर चलती है।

Sunday, February 25, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-5 : कालभैरव मंदिर और सिद्धवट मंदिर (Kalbhairav Temple and Siddhvat Temple)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-5 : कालभैरव मंदिर और सिद्धवट मंदिर (Kalbhairav Temple and Siddhvat Temple)



उज्जैन के दर्शनीय स्थानों के भ्रमण की श्रृंखला में महाकालेश्वर मंदिर, विक्रमादित्य का टीला, हरसिद्धी मंदिर, भतृहरि गुफा और गढ़कालिका मंदिर जैसी जगहों को देखने के पश्चात आइए अब हम आपको कालभैरव मंदिर, सिद्धवट मंदिर, मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम लेकर चलते हैं। गढ़कालिका मंदिर में दर्शन के पश्चात आॅटो वाला हमें अगले पड़ाव की तरफ ले चला। हमारे ये पूछने पर कि अब यहां के बाद आप किस जगह पर ले चलेंगे तो उनका जवाब मिला कि अब हम पहले कालभैरव मंदिर जाएंगे उसके बाद सिद्धवट मंदिर। हम आॅटो वाले से बातें करते हुए चले जा रहे थे। करीब दस-पंद्रह मिनट के सफर के बाद दूर से ही एक मंदिर की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने मुझे बताया कि वो मंदिर ही कालभैरव मंदिर है। साथ ही उन महाशय ने भी बताया कि यहां कालभैरव को प्रसाद के रूप में शराब चढ़ाया जाता है। मैंने उनसे कहा कि भाई मैं शराब नहीं पीता इसलिए मुझे शराब जैसी चीजों से कोई मतलब नहीं है। तब उन्होंने कहा कि आने वाला हर भक्त बाबा को शराब का भोग जरूर लगाता है इसलिए आप भी अपनी तरफ से बाबा को भोग लगा दीजिएगा। उनकी बातों पर मैंने कहा कि ठीक है भोग तो लगा देंगे पर हम उस भोग का करेंगे क्या क्योंकि मैं मदिरापान नहीं करता तो उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं आप हमें दे दीजिएगा। ठीक है बोलकर मैं चुप रहना ही उचित समझा और चुप बैठ गया। ऐसे ही चलते हुए कुछ देर में हम मंदिर के पास पहुंच गए।

Wednesday, February 14, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-4 : भतृहरि गुफा और गढ़कालिका मंदिर (Bharthari Gufa and Gadhkalika Temple)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-4 : भतृहरि गुफा और गढ़कालिका मंदिर (Bharthari Gufa and Gadhkalika Temple)



विक्रमादित्य का टीला देखने और हरसिद्धी मंदिर में दर्शन करने के बाद हम उज्जैन के कुछ प्रमुख दर्शनीय स्थानों (भतृहरि गुफा, गढ़कालिका मंदिर, कालभैरव मंदिर, सिद्धवट मंदिर, मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम) को देखने के लिए निकल पड़े। बड़ी मान-मनौती करने पर एक आॅटो वाला हमें इन जगहों पर घुमाने के लिए तैयार हो गया। मोल-तोल के बाद सौदा तय होने के बाद हम आॅटो में बैठ गए। मेरे आॅटो में बैठते ही उसने मेरे हाथ में एक कार्ड थमा दिया और खुद चाय पीने चला गया। मैंने कार्ड को उलट-पुट कर देखा तो एक तरफ किसी बड़े दुकान का विज्ञान छपा था और दूसरी तरफ उज्जैन के दर्शनीय स्थलों के नाम अंकित थे। कार्ड को देखने से ही पता चल रहा था कि दुकान वाले ने कार्ड छपवाकर आॅटो वालों को बांटा होगा कि इसी बहाने कुछ प्रचार-प्रसार हो जाएगा। पांच मिनट में ही आॅटो वाला भी अपनी चाय खत्म करके आ गया। उसके आते ही मैंने सबसे पहले उसे कहा कि भाई अब चलोगे या कुछ और बाकी है। जवाब मिला कि अब कुछ नहीं बस चलते हैं। इतना कहकर उसने आॅटो स्टार्ट किया और अपने मंजिल की तरफ बढ़ने लगा। अभी चले ही थे कि उसने अपने सवालों की बौछार आरंभ कर दिया कि कुछ खरीदना चाहते हैं, जैसे साड़ी, कपड़े, यहां की पुरानी चीजें आदि-आदि। मैंने उसे साफ मना कर दिया कि मैं कुछ खरीदने नहीं बस जगहों को देखने आया हूं। मेरी इन बातों को सुनते ही वो कुछ देर के लिए चुप हो गया।

Monday, February 12, 2018

पहाड़ : मेरा बालहठ

पहाड़ : मेरा बालहठ




हर इंसान की जिंदगी को कुछ न कुछ चीजें प्रभावित करती हैं। कुछ चीजों के प्रति उसका जुनून और पागलपन हमेशा उसके साथ रहता हैं। कुछ शब्द, कुछ वस्तुएं, शहर, गांव, नदियां, खेत, जानवर, पक्षी आदि बहुत सी चीजें हैं जिनसे इंसान प्रभावित होता है और किसी खास चीज से इंसान का खास लगाव भी रहता है। कुछ चीजें किसी खास इंसान को बहुत हद तक आकर्षित करती है। वैसे ही और लागों की तरह हमें भी बहुत सी देखी-अनदेखी चीजों ने आकर्षित किया है, जैसे पहाड़, समुद्र, नदी, झरने, सड़कें, बाढ़, हरे-भरे खेत आदि और भी न जाने कितनी चीजें हैं जिसके प्रति सदा ही मेरा आकर्षण रहा है। इन चीजों में पहाड़ और समुद्र दो ऐसे शब्द हैं जिसने मुझे बचपन से ही बहुत ज्यादा आकर्षित किया और इसका भी कुछ खास कारण रहा। वो कारण ये था कि और चीजें तो हम हर दिन देखते और महसूस करते थे पर पहाड़ और समुद्र से हम बहुत दूर थे। तो आइए आज हम आपको पहाड़ के बारे में अपने जुनून और पागलपन की बातें बताते हैं और समुद्र के बारे में फिर कभी। शुरुआत एक फिल्मी गाने से करता हूं, जो पता नहीं किस फिल्म का है जो मुझे पता नहीं क्योंकि मैं फिल्में नहीं देखता हूं और न ही गाने सुनता हूं। वैसे गाने की पंक्तियां तो न चाहते हुए भी सुननी पड़ती है क्योंकि बसों, दुकानों, चौक-चौराहे पर आते-आते गाने सुनने को मिल जाते हैं जिसे न चाहकर भी सुनना पड़ता है, उसमें ही कुछ पंक्तियां याद भी रह जाती है, तो दो पंक्तियां आपके सामने प्रस्तुत करता हूं :

Sunday, February 11, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-3 : विक्रमादित्य का टीला और हरसिद्धी मंदिर (Vikrmaditya ka Teela and Harsiddhi Temple)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-3 : विक्रमादित्य का टीला और हरसिद्धी मंदिर (Vikrmaditya ka Teela and Harsiddhi Temple)



महाकालेश्वर मंदिर में भोलेनाथ के दर्शन के बाद आइए अब चलते हैं उज्जैन के अन्य दर्शनीय स्थानों का भ्रमण करते हैं। मंदिर में दर्शन, पूजा-पाठ आदि कार्यकलापों को पूरा करते-करते तीन बज चुके थे। स्थानीय लोगों से पूछने पर पता चला कि अन्य स्थानों पर जाने के लिए आॅटो हरसिद्धी मंदिर के पास बहुत ही आसानी से मिल जाएगी। रामघाट से यहां आते समय हमें हरसिद्धी मंदिर के दर्शन हुए थे इसलिए वहां तक के लिए किसी से रास्ते के बारे में पूछने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अपनी आदत के अनुसार रास्ते में दाएं-बाएं निहारते हुए अपनी ही मस्ती में अकेला चला जा रहा था। अभी कुछ ही दूर गया था कि बाएं तरफ एक बड़ा सा दरवाजा दिखा। पहले तो मन में आया कि ऐसे ही कुछ होगा, पर नहीं पास जाने पर बोर्ड पर विक्रमादित्य का टीला लिखा हुआ दिख गया। विक्रमादित्य का नाम आते ही बचपन में विक्रम-वैताल की कहानियां याद आ गई और अब तक की पढ़ी गई सारी कहानियां दिमाग में ऐसे घूमने लगी जैसे अभी मेरे सामने से राजा विक्रमादित्य गुजर रहे हैं और उनके कंधे पर वो वैताल बैठ कर कहानी सुनाता हुआ जा रहा है। बचपन में जब उन कहानियों को पढ़ा करता था तो ये सोचा भी नहीं था कि हम कभी विक्रमादित्य की उस नगरी में जाएंगे जहां से ये कहानियां आरंभ हुई है।

Thursday, January 25, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-2 : महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग (Ujjain-Omkareshwar Journey-2: Mahakaleshwar Jyotirling)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-2 : महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग (Ujjain-Omkareshwar Journey-2: Mahakaleshwar Jyotirling)



उज्जैन पहुंचते पहुंचते बारह बज चुके थे। गाड़ी के स्टेशन पहुंचते ही ट्रेन से उतर कर जल्दी से स्टेशन से बाहर गए। सड़क पर पहुंचते ही एक आॅटो मिल गई जो दस रुपए प्रति सवारी के हिसाब से लोगों को रामघाट तक ले जा रही थी। हम आॅटो में बैठे ही थे कि उसके तुरंत बाद मेरी ही उम्र का एक व्यक्ति और आया जो मेरे ही बगल में बैठ गया। जल्दी ही बातें होने लगी तो पता चला कि वो भी उज्जैन और ओंकारेश्वर घूमने के लिए आए हैं। हम दोनों ही इस शहर से अनजान थे, अतः एक दूसरे का साथ पाकर थोड़ी सी ये तो उम्मीद बंधी कि चलिए ज्यादा तो नहीं कम से कम रामघाट पर नहाने भर का साथ तो रहेगा ही। कुछ देर में ही आॅटो भी सवारियों से भर गई। आॅटो वाले ने आॅटो को स्टार्ट किया और रामघाट की तरफ चल दिया। अभी आधे ही दूर गए थे कि सभी सवारियां उतर गई। अब आॅटो में केवल हम दो लोग ही बैठे रह गए थे। सभी सवारियों के उतरने के बाद आॅटो वाला पहले तो हमें आधे रास्ते में उतारने की कोशिश करने लगा, पर हमने साफ कहा कि भाई रामघाट बोलकर आॅटो में बैठाए हो और हम रामघाट पर ही उतरेंगे अगर रामघाट नहीं पहुंचा सकते तो मुझे वापस स्टेशन ही पहुंचा दो और उस बाद के कोई पैसे नहीं मिलेंगे, तो न चाहते हुए भी आॅटो वाले ने आधे मन से हमें रामघाट तक पहुंचाया।

Tuesday, January 23, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-1 : दिल्ली से उज्जैन (Ujjain-Omkareshwar Journey-1: Delhi to Ujjain)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-1 : दिल्ली से उज्जैन (Ujjain-Omkareshwar Journey-1: Delhi to Ujjain)




रामेश्वरम के पवित्र ज्योतिर्लिंग के दर्शन करके लौटने के बाद से ही उज्जैन में स्थित महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग के दर्शन करने का मन होने लगा था। जैसा कि हमारी एक गलत आदत है कि कहीं भी जाओ तो एक जगह जाकर वापस आना मुझे अच्छा नहीं लगता है तो हमने उज्जैन के पास ही स्थित किसी और जगह जाने के बारे में हिसाब-किताब लगा लिया और वो जगह थी ओम्कारेश्वर। उज्जैन और ओंकारेश्वर में कोई खास दूरी नहीं है और उज्जैन से करीब चार घंटे का सफर करके ओंकारेश्वर पहुंचा जा सकता है तो हमने उसी हिसाब से उज्जैन के साथ-साथ ओंकारेश्वर को भी अपनी इस यात्रा में जोड़ लिया। छुट्टियों के हिसाब से बहुत सोच विचार कर दिन और तिथियों का हिसाब लगाया तो अगस्त में दो ऐसा संयोग बन रहा था कि एक छुट्टी लेकर इस यात्रा को अंजाम दिया जा सकता था। पहला संयोग था 6 से 8 अगस्त और दूसरा था 13 से 15 अगस्त। 6 से 8 अगस्त तो पहले ही तुंगनाथ-चंद्रशिला के लिए आरक्षित हो चुका था तो दूसरे विकल्प पर ही जाने का निश्चित हुआ। अतः 13 अगस्त रविवार और 15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस की छुट्टी को देखते हुए हमने आॅफिस में पहले ही बीच में पड़ रहे 14 अगस्त की छुट्टी के लिए आवेदन दे दिया। अब एक दिन की छुट्टी ले रहा था तो कोई दिक्कत नहीं हुई।

Wednesday, November 8, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली 




जब हम किसी यात्रा पर अपने घर से निकलते हैं तो उसका रोमांच अलग होता है लेकिन यात्रा पूरी करके वापस लौटने पर वो रोमांच नहीं रह जाता तो जाते समय होता है। पर हमारी इस यात्रा में घर से निकलकर यात्रा पूरी करके वापस आने तक पूरी तरह रोमांच बना रहा। चार दिन की इस यात्रा में हमने दिल्ली से हरिद्वार तक की यात्रा ट्रेन से तय किया। ट्रेन से सफर करते हुए हमें हरिद्वार में उतरना था पर नींद नहीं खुली और हम देहरादून के करीब पहुंच गए और ऐसे ही बीच रास्ते में ट्रेन रुकने पर वहीं उतर कर पैदल ही निकल पड़े। हरिद्वार पहुंचने के बाद हम उखीमठ के लिए निकले पर परिस्थितियों ने हमें उखीमठ के बदले गुप्तकाशी पहुंचने पर मजबूर कर दिया। गुप्तकाशी में बाबा विश्वनाथ के दर्शन के पश्चात हम उखीमठ में स्थित प्रसिद्ध कालीपीठ पहुंचे और फिर उसके बाद चोपता गए। चोपता से भारी बरसात में चढ़ाई करके तुंगनाथ पहुंचे और यहां भी परिस्थितियों ने कुछ और ही बाधा में डाला। उसके बाद पहले तुंगनाथ से चंद्रशिला की तरफ निकले जहां रास्ता भटककर हम कहीं और पहुंचे और सकुशल वापस भी आए। अगले दिन एक बार फिर तुंगनाथ से चंद्रशिला देखने चले और इस बार सकुशल पहुंचकर एक अद्वितीय अनुभव लेने के बाद वापस तुंगनाथ मंदिर आकर भगवान भोलेनाथ के दर्शन और जलाभिषेक के पश्चात वापस चोपता आ गए। वापसी का हमारा सफर तो तुंगनाथ मंदिर में भोलेनाथ के दर्शन के पश्चात ही शुरू हो गया था। बरसात में ही हम तुंगनाथ से चोपता आए। तुंगनाथ से चोपता आकर कुछ देर के विश्राम के पश्चात हमारा कारवां हरिद्वार की तरफ चलने को तैयार था।

Tuesday, November 7, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी




तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आइए हम आपको तुंगनाथ मंदिर से चद्रशिला की चोटी तक ले चलते हैं। जैसा कि पहले के आलेखों में आपने पढ़ा कि कैसे हम तुंगनाथ मंदिर पहुंचे फिर चंद्रशिला गए। जब चंद्रशिला जा रहे थे तो चंद्रशिला के रास्ते से भटककर गोपेश्वर के रास्ते पर चले गए और बहुत मुश्किल हालातों में उलझकर किसी तरह वापस आए। रास्ते में आने वाली दुश्वारियों ने हमारे चंद्रशिला तक पहुंचने के हौसले को तोड़ दिया था, पर उसी शाम तुंगनाथ मंदिर परिसर से प्रकृति के कुछ अद्भुत दृश्यों के दर्शन हुए और उन अद्भुत दृश्यों को देखकर एक उम्मीद जगी और फिर से चंदशिला जाने की योजना बनाई। चंद्रशिला समुद्र तल से लगभग 4000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और तुंगनाथ जी का मंदिर लगभग 3600 मीटर की ऊंचाई पर है। दोनों स्थानों के बीच की दूरी करीब 1.5 किलोमीटर है। 1.5 किलोमीटर की दूरी में करीब 400 मीटर की ऊंचाई चढ़ने का मतलब ही है कि अपने आप में एक कठिन परीक्षा से होकर गुजरना। तुंगनाथ मंदिर के दर्शन करने के लिए आने वाले अधिकतर लोग मौसम की बेरुखी से परेशान होकर चंद्रशिला न जाकर मंदिर से ही वापस चले जाते हैं। यहां का मौसम हर पल बदलता है। इस बात का कोई पता नहीं कि कब यहां बरसात हो जाए और कब मौसम अच्छा हो जाए। जो लोग चंद्रशिला पहुंच भी जाते हैं तो इस बात की कोई उम्मीद नहीं होती कि वहां सब कुछ अच्छा ही दिखेगा। कभी कभी तो चंद्रशिला के पास जाने पर भी चंद्रशिला साफ नहीं दिख पाता। यदि किस्मत अच्छी हो और मौसम साफ हो तो चंद्रशिला से हिमालय का जो नजारा दिखता है कि उसके आगे सब कुछ छोटा लगने लगता है। मैं भी चंद्रशिला तो पहुंच गया पर मौसम की बेरुखी ने हमें उन अद्भुत दृश्यों को देखने से वंचित ही रखा, पर वहां तक पहुंच जाने की जो खुशी महसूस हुई वो भी कम नहीं थी।

Saturday, November 4, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर




तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आइए हम आपको एक ऐसे सफर पर ले चलते हैं जिसमें न तो कोई मंजिल न ही कोई पड़ाव है, अगर कुछ है तो वो है अनजान, खतरनाक और डरावने रास्ते। जहां कोई अपनी मर्जी से जाना नहीं चाहता, बस कोई भटकाव ही किसी इंसान को उस रास्ते पर ले जा सकता है और ऐसा ही कुछ हम लोगों के साथ हुआ। अब तक आपने देखा कि मौसम कि इतनी दुश्वारियां और परेशानियां झेलते हुए हम तुंगनाथ मंदिर तक पहुंचे। मंदिर के पास पहुंचते ही पता चला कि आज ग्रहण है इसलिए अब मंदिर बंद हो चुका है जो कल सुबह 5ः30 बजे खुलेगा। हम लोगों के लिए यह भी एक मुसीबत के जैसा ही था कि तीन दिन का सफर करके हम लोग यहां तक आए और जिस चीज के लिए आए वही चीज न मिल पाया। थक-हार हमने यहीं रुकने का प्लान बनाया। अब यहां बैठ कर समय बर्बाद करने से अच्छा हमने चंद्रशिला जाने की योजना बनाई। चंद्रशिला समुद्र तल से लगभग 4000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। तुंगनाथ जी का मंदिर लगभग 3600 मीटर की ऊंचाई पर है और चंद्रशिला करीब 4000 मीटर की ऊंचाई पर है और दोनों स्थानों के बीच की दूरी करीब 1.5 किलोमीटर है। अब इन आंकड़ों पर गौर करें तो चढ़ाई बहुत मुश्किल है। वैसे भी तुंगनाथ से चंद्रशिला जाने का कोई रास्ता नहीं बना है, बस कुछ जुनूनी लोगों के आने-जाने से कुछ निशान बन गए हैं और वही रास्ता है। बरसात के कारण वो रास्ते भी न जाने कितने फिसलन भरे हुए हो गए होंगे इसका पता तो वहां जाकर ही लगेगा। जाने से पहले भी बहुत सोच विचार करना पड़ रहा था कि अगर किसी कारण से फिसलन भरे रास्तों पर गिर गए और भीग गए तो हमारे पास पहनने के लिए अलग से कोई कपड़े नहीं हैं क्योंकि हमारा सारा सामान नीचे चोपता में ही था। हम लोगों ने जो कपड़े पहन रखा था उसके अलावा हम लोगों के पास तौलिया के अलावा और कुछ नहीं था, फिर भी हम सबने एक मत से चंद्रशिला जाने के लिए तैयार हो गए। अचानक ही धीरज और सुप्रिया जी ने जाने से मना कर दिया तो हम मैं, बीरेंद्र भाई जी, सीमा जी और राकेश जी ही चंद्रशिला की तरफ रवाना हुए।

Friday, November 3, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर





तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में हम आपको तुंगनाथ मंदिर ले चलते हैं। तुंगनाथ का स्थान पंच केदारों में से तीसरे स्थान पर है। पहले स्थान पर केदारनाथ मंदिर जो द्वादश ज्योतिर्लिगों मे से एक है। द्वितीय केदार के रूप में भगवान मदमहेश्वर की पूजा की जाती है। तुंगनाथ मंदिर तृतीय केदार के नाम से जाना जाता है। चतुर्थ और पंचम केदार क्रमशः रुद्रनाथ और कल्पेवश्वर को माना जाता है। तुंगनाथ जी का मंदिर समुद्र तल से लगभग 3680 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। मंदिर कई पौराणिक तथ्यों को अपने आप में समेटे हुए है। कथाओं के आधार पर यह माना जाता है कि इस मंदिर का निर्माण पांडवों ने किया था। मंदिर का इतिहास हजारों साल पूर्व का रहा है। यहीं मंदिर से कुछ ऊपर एक चंद्रशिला नामक चोटी है जिसके बारे में कहा जाता है कि राम ने रावण का वध करने के पश्चात ब्रह्महत्या के पाप से मुक्त होने के लिए कुछ दिन तक इस चोटी पर तपस्या की थी और तभी से इस स्थान का नाम चंद्रशिला पड़ गया। यह मंदिर केदारनाथ और बदरीनाथ मंदिर के लगभग बीच में स्थित है। यह गढ़वाल के सुंदर स्थानों में से एक है। जनवरी से मार्च तक मंदिर पूरी तरह से बर्फ में डूबा हुआ होता है। बरसात के मौसम में दूर दूर तक हरियाली ही हरियाली दिखती है। तुंगनाथ तक पहुंचने के लिए चोपता से तुंगनाथ तक की तीन किलोमीटर की खड़ी चढ़ाई का रास्ता पैदल ही तय करना पड़ता है। चोपता से तुंगनाथ के पैदल मार्ग को हर जगह 3 किलोमीटर ही लिखा गया है पर मुझे ये दूरी 3 किलोमीटर से ज्यादा प्रतीत होती है। अब चाहे दूरी जितनी हो जिनको जाना है वो चाहे कितनी भी दूरी वो तो जाएंगे ही।

Thursday, November 2, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता




तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आईए हम आपको ले अपने साथ चोपता तक लेकर चलेंगे। चोपता का नाम सुनते ही कुछ अजीब सा लगता है कि कैसा नाम है चोपता। चोपता नाम बेशक कुछ बेढब सा है, मगर यह उत्तराखंड में गढ़वाल हिमालय की सबसे खूबसूरत जगह है। यहां पहुंचकर आप प्रकृति से सीधा साक्षात्कार कर सकते हैं। चोपता समुद्र तल से करीब 12 हजार फुट की ऊंचाई पर स्थित है और इससे थोड़ी ज्यादा ऊंचाई तक का क्षेत्र हम सबकी पहुंच में होता है। यहां आपने के लिए सबसे उपयुक्त समय मई से लेकर नवंबर तक है लेकिन बरसात में यहां आना थोड़ी परेशानी खड़ी करता है। दिसंसबर से अप्रैल तक यहां की ठंड बिल्कुल ही असहनीय होती है। यहां बहने वाली हवाएं बहुत ही ठंडी होती है। यहां आस-पास चारों तरफ फैली हरियाली के बीच पल-पल बारिश से सामना और बदन पर बादलों की मखमली छुअन का आनंद ही कुछ और है। तुंगनाथ जाने के लिए चोपता आधार शिविर हैं। चोपता तक आप सड़क मार्ग से आ सकते हैं और चोपता से आगे का सफर पैदल चढ़ाई या घोड़े से पूरी होती है। भले ही ही यहां खाना-पीना थोड़ा महंगा मिलता है पर खाने-पीने की कोई दिक्कत नहीं है। यहां दूर दूर तक फैले घास के मैदान जिसे स्थानीय भाषा में बुग्याल कहते है, आपको एक अलग ही दुनिया की सैर कराती नजर आएंगी। वैसे अगर हम अपने अनुसार कहें तो चोपता के तारीफ जितनी की जाये उतनी कम है। कुछ लोगा तो चोपता की तुलना स्वीटजरलैंड से करते हैं। प्रकृति की ने भी इस जगह को दिल खोलकर सजाया-संवारा है। आज भी यह स्थान शहरों की भागा-दौड़ी से बहुम दूर है। भीड़भाड़ के नाम पर यहां केवल कुछ ढाबे और कुछ दो कमरे वाले होटल हैं, जिसमें यहां आने वाले यात्री विश्राम कर सकते हैं और साथ ही जो भी गेस्टहाउस या ढाबे यहां पर बने हैं सब लकड़ी के ही बने मिलते हैं।

Wednesday, November 1, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ



तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आईए हम आपको ले चलते हैं उस स्थान पर जिसका संबंध शिव और शक्ति दोनों से है और उस पवित्र स्थान का नाम है कालीमठ। कालीमठ रुद्रप्रयाग (उत्तराखंड) जिले का एक प्रमुख धार्मिक स्थल है। यह गुप्तकाशी और उखीमठ के बीच सरस्वती नदी के किनारे पर स्थित है। इसे भारत के सिद्ध पीठों में एक माना जाता है। कालीमठ में देवी काली का एक बहुत ही प्राचीन मंदिर है। कहा जाता है कि मां भगवती ने इस स्थान पर दैत्यों के संहार के लिए काली का रूप धारण किया था और उसी समय से इस स्थान पर भगवती के काली रूप की पूजा-अर्चना होती आ रही है। यहां देवी काली ने दुर्दान्त दैत्य रक्तबीज का संहार किया था, उसके बाद देवी इसी जगह पर अंतर्धान हो गई। कहा यह भी जाता है कि यही जगह प्रसिद्ध कवि कालीदास का साधना-स्थली भी थी। इसी जगह पर कालीदास ने मां काली को प्रसन्न करके विद्वता प्रदान की थी। यह स्थान धार्मिक दृष्टिकोण से तो महत्वपूर्ण है साथ यहां प्रकृति का भी अलौकिक सौंदर्य बिखरा पड़ा है। साल 2013 में आई केदारनाथ त्रासदी के दौरान कालीमठ में स्थित मां लक्ष्मी, शिव मंदिर, ब्रती बाबा समाधि स्थल, मंदिर समिति कार्यालय समेत स्थानीय लोगों के कई व्यापारिक प्रतिष्ठान आपदा की भेंट चढ़ गये थे। महालक्ष्मी मंदिर के टूटने के साथ ही मंदिर में रखी हुई पौराणिक पत्थर तथा धातु की मूर्तियों में से कई मूर्तियां सरस्वती नदी के उफान में बह गई। सरस्वती नदी के दीवार के साथ बनी रेलिंग पर भक्तों द्वारा बांधी गई घंटियां इसकी शोभा में चार चांद लगाने का काम करती है।

Monday, October 30, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 3) : काशी विश्वनाथ मंदिर, गुप्तकाशी

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 3) : काशी विश्वनाथ मंदिर, गुप्तकाशी



तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आईए हम आपको ले चलते हैं गुप्तकाशी में स्थित भगवान भोलेनाथ के प्रसिद्ध और पुरातन मंदिर में जिसका संबंध महाभारत काल से ही है। गुप्तकाशी कस्बा केदारनाथ यात्रा का मुख्य पड़ाव है। कहा जाता है कि पहले इसका नाम मण्डी था। जब पांडव भगवान् शंकर के दर्शन हेतु जा रहे थे तब इस स्थान पर शंकर भगवान् ने गुप्तवास किया था जिसके बाद पांडवों ने यहां काशी विश्वनाथ मंदिर का निर्माण किया था। इस कारण इस स्थान का नाम गुप्तकाशी पड़ा। काशी विश्वनाथ के मंदिर में एक मणिकर्णिका नामक कुंड है जिसमे गंगा और यमुना नामक दो जलधाराएं बहती है। हमने भी अपनी तुंगनाथ यात्रा के दौरान इस मंदिर में महादेव के दर्शन किया तो आइए आप भी हमारे साथ इस मंदिर में भगवान भोलेनाथ के दर्शन करिए। कहा जाता है न कि जो होता है अच्छे के लिए होता है। अगर कल शाम को बरसात न हुई होती तो शायद हम गुप्तकाशी न आकर उखीमठ ही चले जाते और उखीमठ जाते तो ये यात्रा केवल तुंगनाथ तक ही सीमित रह जाती और हम गुप्तकाशी में स्थित भगवान भोलेनाथ के दर्शन के से वंचित रह जाते वो भी श्रावण महीने के पूर्णिमा के दिन। मेरे सबसे पहले जागने और नहा-धो कर तैयार होने का मुझे एक फायदा यह मिला कि जब तक हमारे सभी साथी स्नान-ध्यान में लगे तब तक हम पहाड़ों की खूबसरती का दीदार करने के लिए गेस्ट हाउस की छत पर चला गया। यहां जाकर जो पहाड़ों में बरसात का जो नजारा दिखा वो कभी न भूलने वाले पलों में शामिल हो गया। बहुत लोगों को कहते सुना है कि बरसात में पहाड़ों की घुमक्कड़ी करने से बचना चाहिए और ये बात बहुत हद तक सही भी है। पर इस बरसात में यहां आकर हमने पहाड़ों का जो सौंदर्य देखा उसके बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। जिस तरह शादी में नई दुल्हन सजी संवरी होती है ठीक वैसे ही पहाड़ भी इस मौसम में एक दुल्हन की तरह दिख रही थी। बरसात के कारण मुरझाए पेड़ों पर हरियाली छाई हुई थी। पिछले साल जब जून के महीने में हम यहां आए तो यही पहाड़ सूना-सूना लग रहा था पर बरसात में इन पहाड़ों का मुझे एक अलग ही रूप देखने को मिला। एक तो हरा-भरा पहाड़ उसके ऊपर से अठखेलियां करते बादल का आना और जाना मन को मुग्ध कर रहा था।

Friday, October 27, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी



तुंगनाथ चंद्रशिला यात्रा के दूसरे भाग में आइए आपको ले चलते हैं हरिद्वार से गुप्तकाशी। हरिद्वार में सब कुछ करते करते नौ बज चुके थे। करीब साढ़े नौ बजे हम धर्मशाला से निकलकर बस स्टेशन की तरफ चल पड़े। बस स्टेशन धर्मशाला से केवल 5 मिनट की दूरी पर था तो हम सब जल्दी ही वहां पहुंच गए। बस स्टेशन के पास बाहर ही कुछ प्राइवेट बसें खड़ी थी जिसमें से एक बस गोपेश्वर जा रही थी। बस बिल्कुल ही खाली थी। हम सभी लोग उसी बस में बैठ गए कि रुद्रप्रयाग में उतर फिर वहां से उखीमठ की बस में बैठ जाएंगे, पर होनी को तो कुछ और मंजूर था। बस में बैठने के बाद बीरेंद्र भाई ने कहा कि इस बस के पीछे एक बस है जो सीधे उखीमठ जा रही है। हमने थोड़ा तांक-झांक कर देखा तो ये मालूम पड़ गया कि उस बस में हम सभी के लिए अच्छी सीट मिलने वाली नहीं है इसलिए हमने इसी बस से रुद्रप्रयाग तक जाना उचित समझा और रुद्रप्रयाग पहुंचकर वहां से किसी दूसरे बस या मैक्स वाहन से उखीमठ तक का सफर तय कर लेंगे। बस ठीक साढ़े दस बजे हरिद्वार से चल पड़ी और कुछ ही देर में भीड़ भरे बाजार से होते हुए हरिद्वार-ऋषिकेश बाईपास पर आ गई। मौसम में गर्मी के साथ उमस भरी हुई थी पर बस के चलने से बस के अंदर हवा का संचार हुआ तो गर्मी और उमस से थोड़ी राहत मिलनी आरंभ हो गई। कुछ ही देर में बस चिल्ला वन्यजीव अभ्यारण रेंज में प्रवेश कर गई। चिल्ला वन्यजीव अभ्यारण्य वर्ष 1977 में बनाया गया था। यह 249 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह हरिद्वार से 10 किमी दूर गंगा नदी के किनारे स्थित है। वर्ष 1983 में इसे मोतीचूर एवं राजाजी अभ्यारण्यों के साथ मिलाकर राजाजी राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। चिल्ला वन्यजीव अभ्यारण्य में कई प्राणी है जैसे कि चीते, हाथी, भालू और छोटी बिल्लियाँ आदि। यहां से गुजरने पर कई तरह के सुंदर पक्षियों, तितलियों को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता है। वैसे इस अभ्यारण्य में भ्रमण करने के लिए नवंबर से जून के बीच का समय सबसे अच्छा माना जाता है। हरिद्वार से ऋषिकेश और ऋषिकेश से हरिद्वार आने जाने वाली अधिकतर गाडि़यों दिन के समय इसी रास्ते से आती जाती है, पर रात में यहां से किसी भी प्रकार की गाडि़यों का गुजरना प्रतिबंधित है।

Friday, October 13, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 1) : दिल्ली से हरिद्वार

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 1) : दिल्ली से हरिद्वार





आइए अपनी इस यात्रा में हम आपको उस स्थान पर ले चलते हैं, जो भगवान शिव से संबंधित है और उस जगह का नाम है तुंगनाथ। तुंगनाथ को पांच केदारों में से एक हैं। कुछ समय पहले जब हमने केदारनाथ की यात्रा किया था तो ये सोचा भी नहीं था कि कुछ ही समय बाद मुझे एक और केदार के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त होगा। कहा जाता है कि जब तक महादेव का बुलावा न आए तब तक यहां कोई नहीं आ सकता और जब बुलावा आ जाए तो इंसान खुद न चाहते हुए भी वहां पहुंच जाता है। मेरे साथ भी कुछ वैसा ही हुआ। मई महीने की बात है मेरे एक घुमक्कड़ मित्र संजय कौशिक हैं, जिन्होंने मुझे तुंगनाथ चलने के लिए कहा, पर व्यस्तता के कारण मैं उनके साथ नहीं जा सका। पर उसी दिन मैंने ये निर्णय ले लिया कि जितना जल्दी हो मैं तुंगनाथ जी के दर्शन कर लूंगा और उसी दिन छुट्टियों का हिसाब देखकर 6 से 8 अगस्त तक तुंगनाथ जाने की योजना बना लिया। 6 अगस्त रविवार, 7 अगस्त को रक्षाबंधन की छुट्टी और 8 अगस्त को आॅफिस से छुट्टी लेकर तुंगनाथ जाने की योजना पर काम करने लगा। 5 अगस्त रात्रि में दिल्ली से प्रस्थान और वापसी में 8 अगस्त की रात्रि में हरिद्वार से वापसी का निश्चित किया। अब बात रह गई हरिद्वार तक आने जाने की टिकट के लिए। साथ चलने के लिए किसी साथी की तलाश में करीब महीना भर बीत गया पर कोई भी साथ जाने के लिए नहीं मिला। अंत में थक हार कर हमने टिकट बुकिंग की प्रक्रिया शुरू की। ट्रेन के समयानुसार अगर हम मूसरी एक्सप्रेस का टिकट लेते तो हरिद्वार सुबह के सात बजे पहुंचते लेकिन हम वहां जल्दी पहुंचना चाहते थे जिससे हरिद्वार में हमें थोड़ा ज्यादा समय मिल सके। यही सब सोचकर हमने नंदा देवी एक्सप्रेस में टिकट देखा तो दिल्ली से हरिद्वार के लिए कोई टिकट उपलब्ध नहीं थी पर दिल्ली से देहरादून के लिए कुछ सीटें उपलब्ध थी, तो हमने दिल्ली से देहरादून की ही टिकट ले लिया पर उतरना मुझे हरिद्वार में ही था। नंदा देवी एक्सप्रेस का टिकट हमने हरिद्वार में कुछ ज्यादा समय मिलने के लिए लिया था पर दुर्भाग्यवश या कहिए कि मेरी लापरवाही से मुझे ज्यादा किया थोड़ा समय भी नहीं मिल सका और इसके बारे में आप आगे पढ़ेंगे। वापसी की टिकट भी इसी हिसाब से लेना था कि आने के बाद उसी दिन आॅफिस ज्वायन कर लें और उसके लिए मसूरी एक्सप्रेस एक्सप्रेस से आकर आॅफिस नहीं पकड़ सकता था क्योंकि मसूरी एक्सप्रेस दिल्ली आठ बजे सुबह पहुंचाती है। अतः हमने वापसी का टिकट भी नंदा देवी से ही लिया क्योंकि नंदा देवी दिल्ली सुबह 5 बजे ही पहुंच जाती है। नंदा देवी हरिद्वार से रात में 12:50 पर चलती है, इसलिए तकनीकी रूप से मैंने 9 अगस्त का टिकट लिया। वैसे कहा 8 अगस्त ही जाता पर रात के बारह बजे के बाद की ट्रेन के कारण 9 अगस्त की टिकट हुई। टिकट कर लेने के बाद हम यात्रा की तिथि का इंतजार करने लगे।

Friday, October 6, 2017

त्रिवेंद्रम से दिल्ली : एक रोमांचक रेल यात्रा

त्रिवेंद्रम से दिल्ली : एक रोमांचक रेल यात्रा



14 जून 2017 : आठ दिन से घूमते हुए अब यात्रा बिल्कुल अंतिम दौर में पहुंच चुकी थी। पद्मनाभ स्वामी मंदिर और कोवलम बीच से आने के बाद अब हमें वापसी की राह पकड़नी थी। तिरुवनंतपुरम् सेंट्रल स्टेशन से हमारी ट्रेन (ट्रेन संख्या 22633) दोपहर 2:15 पर थी। वैसे तो आम दिनों में इस ट्रेन को त्रिवेंद्रम से दिल्ली पहुंचने में 48 घंटे का समय लगता है पर माॅनसून के समय यही ट्रेन दिल्ली पहुंचाने में 52 का घंटे का समय लेती है। एक बजे तक हम लोगों ने सारा सामान पैक किया और खाने के लिए निकल पड़े और स्टेशन परिसर में ही बने फूड प्लाजा में खाना खाया और फिर वापस आकर सामान उठाकर प्लेटफार्म की तरफ चल पड़े। हमें प्लेटफाॅर्म पर पहुंचते पहुंचते 1:45 बज चुके थे। प्लेटफाॅर्म पर गया तो तो देखा कि ट्रेन पहले से ही खड़ी है और अधिकतर यात्री अपनी अपनी सीटों पर बैठ चुके हैं। जब हम अपनी सीट पर गए तो देखा कि कुछ लोग हमारी सीट पर भी कब्जा जमाए हुए हैं। अपनी सीट प्राप्त करने के लिए पहले तो उन लोगों से बहुत देर तक मुंह ठिठोली करनी पड़ी। इस सीट पर से हटाएं तो उस सीट पर बैठ जाएं, वहां से हटाएं तो फिर दूसरी पर। थक हार कर मुझे ये कहना पड़ा कि इस कूपे की सारी सीटें मेरी है। 4 लोगों में से 3 लोग तो आराम से निकल लिए पर चाौथे ने जिद पकड़ रखी थी नहीं जाने की और हमारी भी जिद थी हटाने की, लेकिन फिर हमने सोचा कि चलिए कुछ देर बैठने ही देते हैं फिर देखा जाएगा। इसी दौरान उन महाशय ने ये कह दिया कि क्या आपने ट्रेन खरीद लिया है और इसी बात की जिद से हमने भी उनको सीट से हटा कर ही दम लिया। अपनी ही जगह के लिए इतनी मशक्कत इस यात्रा में पहली ही बार हुआ। खैर मुझे सीट मिल गई और वो भाई साहब कहीं और जाकर बैठ गए।

Friday, September 22, 2017

त्रिवेंद्रम यात्रा : पद्मनाभस्वामी मंदिर और कोवलम बीच

त्रिवेंद्रम यात्रा : पद्मनाभस्वामी मंदिर और कोवलम बीच


आज हमारी यात्रा का आठवां दिन था और हमारी यात्रा अब धीरे धीरे अंतिम अवस्था में पहुंच रही थी। त्रिवेंद्रम से दिल्ली की हमारी ट्रेन दोपहर बाद 2ः15 बजे थी। तब तक पहले की बनी योजना के अनुसार आज पद्मनाभ स्वामी मंदिर में भगवान विष्णु के दर्शन करना और उसके बाद कोवलम बीच जाना था। उसके बाद वापसी में समय बचने पर गणपति मंदिर में गणपति जी के दर्शन करना था। तड़के सुबह 3 बजे अलार्म बजने के साथ ही नींद खुल गई। रात में 11 बजे के बाद तो सोए थे और 4 घंटे में नींद ठीक से पूरी हुई भी नहीं कि जागना पड़ रहा था। वैसे भी घुम्मकड़ी में नींद और भूख दोनों को त्यागना पड़ता है तभी घुमक्कड़ी हो सकती है। खैर जैसे तैसे आंखे मलते हुए उठे और दूसरे कमरे में सो रहे सभी लोगों को जगाया। यहां कमरा भी ऐसा मिला था कि हरेक व्यक्ति के लिए एक छोटा कमरा था और हम पांच लोगों के लिए पांच अलग अलग कमरे थे। हमारी योजना मंदिर 5 बजे से पहले पहुंचने की थी इसलिए सब जल्दी जल्दी नहा धो कर निकलने की तैयारी करने लगे। 4 बजते बजते हम लोग तैयार हो गए। सारा सामान पैक कर लिया गया कि आने के बाद ज्यादा समय न लगे और गीले कपड़े सूखने के लिए कमरे में ही डाल दिया गया। इतना सब करते करते 4ः15 बज गए। मंदिर जाने के लिए हम कमरे से निकले तो अभी बाहर बिल्कुल घना अंधेरा था। स्टेशन से बाहर आते ही हमें पद्मनाभ स्वामी मंदिर जाने के लिए केवल 50 रुपए में एक आॅटो मिल गया। आॅटो वाले से हमने मंदिर के मुख्य दरवाजे की तरफ छोड़ने का कहा। केवल 10 मिनट के सफर में हम मंदिर के पास पहुंच गए और आॅटो वाले को पैसे देकर हम मंदिर की तरफ बढ़ गए।