Monday, August 13, 2018

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-8 : ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन (Omkareshwar Jyotirling)

उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-8 : ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन 
(Omkareshwar Jyotirling)


सुबह सात बजे इंदौर से चलकर ओंकारेश्वर पहुंचते-पहुंचते करीब दस बज चुके थे। करीब करीब दस बजे या यों भी कह लीजिए कि ठीक दस बजे मैं ओंकोरश्वर पहुंच चुका था। ओंकारावर में बस स्टेशन से मंदिर और घाट की दूरी करीब दो से तीन तीन किलोमीटर है और बस स्टेशन से घाट (मंदिर) तक जाने के लिए आॅटो चलती है। मुझे भी बस से उतरते ही एक आॅटो मिल गई। सवारियां पूरी होने के बाद आॅटो चली और करीब दस मिनट में वहां पहुंच गए जहां जाने के लिए आए थे। इंदौर से चलकर यहां तक के सफर में करीब तीन घंटे से ज्यादा लगे और समय भी साढ़े दस हो गया था। यहां उतरते ही पहले तो दुकान वाले पीछे पड़ने लगे कि मेरे यहां से प्रसाद ले लीजिए और सामान रख दीजिए और शाम तक आप कभी भी आकर अपना सामान ले जाइएगा। पर हमने अपना सामान कहीं नहीं रखा और सीधे नर्मदा घाट पर पहुंच गए और नहाने के लिए ऐसे जगह की तलाश करने लगे कि जहां पर सामान रखकर आराम से नहा सकें।

वैसे तो मैं इंदौर से ही नहा कर चला था पर यहां आकर नर्मदा में स्नान नहीं करना खुद के साथ बहुत ही बड़ी नाइंसाफी होती इसलिए नहाना जरूरी था। यहां नर्मदा नदी के तट पर बहुत से सुन्दर घाट बने हुए हैं, जल भी स्वच्छ है और गंदगी तो दूर दूर तक दिखाई नहीं देती। कोटि तीर्थ घाट जो कि मुख्य मंदिर के ठीक सामने स्थित है सभी घाटों में सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, पर वहां नहाने वाले की भीड़ बहुत अत्यधिक थी। नदी किनारे आकर मैं यहां-वहां नहाने की जगह तलाश करने लगा, पर सभी घाटों पर नहाने वाले की भीड़ लगी हुई थी और हम कोई ऐसी जगह देख रहे थे जहां कि कोई न हो और हम अपना सामान रखकर आराम से नहा सकें, पर डर ये भी था कि जहां लोग नहीं नहा रहे हों वो जगह नहाने के लिए सुरक्षित है या नहीं इस बात का भी ध्यान रखना था। आखिरकार करीब पांच से सात मिनट के निरीक्षण के बाद एक शांत सी जगह मुझे मिल गई जहां हम आराम से अपना सामान किनारे पर रखकर जितनी देर मन करे उतनी देर तक पानी में मगरमच्छ की स्थिति में पड़े रहें।

घड़ी के अनुसार समय भी अब तक 10ः30 हो चुका था तो हमने भी देर न करते हुए किनारे पर अपना सामान रखा और चल दिया नर्मदा में डुबकी लगाने और करीब बीस मिनट तक ऐसे ही मगरमच्छ की तरह शांत पड़े रहे लेकिन मेरा मगरमच्छ बनना भी कई लोगों को पसंद नहीं आया। मुझे अकेले शांत जगह पर नहाता देखकर कुछ और लोग भी वहीं आ धमके। उनका आना मुझे भी रास नहीं आया और मैं पानी से बाहर आ गया और कहा कि लीजिए अब आप लोग आराम से नहाइए हम चलें। उसके बाद हमने कपड़े पहने और बैग उठाकर चल दिया। पहले सोचा कि नाव से उस पार जाऊं पर नाव वाले ने 150 रुपए मांगे तो मैंने नाव से पार होने का इरादा छोड़ पैदल पुल से ही पार होना उचित समझा और चलने ही वाला था कि छह लोगों (दो पुरुष, दो महिला और दो बच्चे) का एक परिवार वहां आ पहुंचा जो शौक से नदी से पार होने के लिए नाव का उपयोग करना चाहता था। उन लोगों ने एक नाव वाले से बात किया तो नाव वाले ने उनसे भी वही 150 रुपए मांगा। मैं भी वहीं पर खड़ा था तो मैंने भी कह दिया कि भाई साहब मुझे भी अपने साथ उस पार ले चलो। ये सुनकर नाव वाले ने कहा कि आपका 30 रुपया अलग से लगेगा। मैंने भी झट जवाब दिया कि हां मैं 30 रुपया दूंगा और आप यदि चाहो तो पहले ही ले लो और साथ ले चलने का मेरा ये मतलब नहीं है कि मैं उसी पैसे में उस तरफ चला जाऊंगा जो ये भाई लोग दे रहे हैं। मेरे कहने का मतलब था कि मैं अकेले जाऊं तो कोई नाव वाला भी उतना ही मांग रहे हैं जितना आप इन पांच लोगों का मांग रहे हैं और साथ मिलकर जो मेरा हिस्सा बनेगा वो मैं दे दूंगा। इन बातों के बाद उन सभी भाइयों के साथ मैं भी नाव में बैठ गया।

ओंकारेश्वर में नदी को पार करने के तीन साधन हैं जिसमें दो तो पुल हैं एक पुराना पुल और एक नया पुल और तीसरा साधन नाव है। ओंकारेश्वर मंदिर दोनों पुलों के बीच में स्थित है। आप किसी भी साधन से नदी के पार जा सकते हैं। नदी के इस तरफ ममलेश्वर मंदिर है और उस तरफ ओंकारेश्वर मंदिर। हां तो हम कह रहे थे कि 30 रुपए में मोल-तोल करके हम भी नाव में बैठ गए और करीब एक मिनट के बहुत ही छोटे से सफर के बाद हम नाव के साथ उस किनारे पर पहुंच गए। नाव वाले को 30 रुपए दिए और नाव से उतर कर ओंकारेश्वर मंदिर की तरफ चल दिए। कुछ सीढि़यां चढ़कर ऊपर पहुंचा तो देखा कि वहां दर्शन करने वालों की बहुत लम्बी लाइन लगी हुई है। भीड़ तो वहां हर दिन ही रहती है लेकिन सोमवार का दिन होने से भीड़ कुछ ज्यादा थी। लाइन में लगने से पहले हमें दो काम करना था, पहला पीठ पर लदे बैग को रखना और दूसरा प्रसाद लेना। मंदिर के आसपास प्रसाद की अनगिनत दुकानें थीं और साथ ही खिलौने, उपहार की वस्तुएं, मूर्तियां, श्ाृंगार के सामान की दुकानें भी बहुतायत में हैं। पहले तो पांच-सात मिनट हम उसी दुकान वाली गली में घूमें कि सामान कहां रखा जाए और कहां से प्रसाद लिया जाए। 

घूमते हुए जब कहीं ऐसा कुछ नहीं दिखा कि सामान रखा जा सके तो अंतत अंततः एक दुकान वाले से मैंने पूछा कि सामान रखने के लिए कहीं लाॅकर उपलब्ध है क्या? उसका जवाब था कि यहां ऐसा कोई लाॅकर नहीं है जहां आप सामान रख सके। आप जिस किसी भी दुकान से आप प्रसाद खरीदेंगे वहीं पर आप सामान रख दीजिए और दर्शन के बाद आकर अपना सामान ले जाइए। फिर मैंने दूसरा सवाल कर दिया कि मोबाइल और कैमरा कहां रखेंगे फिर तो उनका जवाब था कि मोबाइल और कैमरा आप बैग में ही डाल दीजिए और ताला लगाकर रख दीजिए। अब कोई और उपाय तो था नहीं, जहां प्रसाद खरीदना है वहीं सामान रखना भी है और वैसे भी नहाने के पहले नदी के उस तरफ भी दुकान वाले यही कह रहे थे कि आप सामान रख दीजिए, प्रसाद ले लीजिए और दर्शन करने जाइए या परिक्रमा करने जाइए और वापसी में अपना सामान ले जाइएगा। अब तो उस तरफ जा नहीं सकते थे तो इसी दुकान पर प्रसाद खरीदा और अपना बैग दुकान वाले के हाथों में अमानत के तौर पर सौंप दिया। ऐसा कई तीर्थस्थलों पर होता है कि आप जिस दुकान से प्रसाद लेंगे वहां सामान रख सकते हैं और वही व्यवस्था यहां पर भी थी। इस व्यवस्था के साथ एक दिक्कत और भी है कि जो व्यक्ति अपना सामान वहां रखते हैं उनको महंगा प्रसाद दिया जाता है और जो सामान नहीं रखते उनको कम दाम पर प्रसाद दिया जाता है, लेकिन यहां पर ऐसा नहीं था। सामान रखने न रखने वाले दोनों को एक ही कीमत पर प्रसाद दिया जा रहा था और वो भी उसी कीमत पर जो कि होनी चाहिए। हम भी प्रसाद लेकर और बैग उनको देकर मंदिर की तरफ चल दिए।

अब तक समय भी ग्यारह से थोड़ा ज्यादा हुआ था। सोमवार होने के कारण दर्शन की लाइन बहुत लंबी थी और हम भी लाइन में सबसे पीछे खड़े रहे। अब सबसे पीछे खड़े होने का मतलब ये नहीं कि हम सबसे पीछे ही रहे। मिनट भी नहीं गुजरा होगा कि हमारे पीछे भी बहुत लोग खड़े हो गए। लाइन धीरे धीरे बढ़ती रही और हम भी धीरे धीरे आगे आगे बढ़ रहे थे। मंदिर तक पहुंचने के लिए करीब तीस से चालीस सीढि़यां चढ़नी पड़ती है और भीड़ इतनी थी कि सीढि़यों पर लोग धक्का-मुक्की करने में लगे हुए थे। एक तो जबरदस्त भीड़ उसके ऊपर से आपस की धक्का-मुक्की, एक दूसरे को पीछे छोड़कर आगे निकल जाने की होड़ एक बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकता था। लोगों की आगे निकल जाने की ऐसी होड़ लगी थी कि सीढि़यों पर पैर जमाना भी मुश्किल हो रहा था, फिर भी किसी तरह उस भीड़ में धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे। ईधर भीड़ का आलम और उधर कुछ पंडों का आतंक भी दिख रहा था। पंडे लोग लाइन में खड़े लोगों के पास आते और 200 रुपए में दर्शन कराने का लालच देकर लोगों को लाइन से उड़ा ले जाते। कुछ लोग 200 रुपए देकर लाइन से निकल पंडे के साथ जा रहे थे तो कुछ लोग मोल-तोल करके कम पैसे में भी दर्शन का सौभाग्य प्राप्त करने के लिए लाइन से निकल रहे थे। एक पंडा जी मेरे पास भी आए तो मैंने उनको चलता किया कि रहने दीजिए हम यहीं धक्का-मुक्की में ही आनंदित हो रहे हैं फिर वो बुदबुदाते हुए निकल दूसरे व्यक्ति की तरफ बढ़ गए। दर्शन के लिए लाइन में लगे लोग धीरे धीरे आगे बढ़ रहे थे और धीरे धीरे आगे बढ़ते हुए आखिरकार हम भी मंदिर के दरवाजे तक पहुंच गए। यहां एक बात और बताना चाहेंगे कि ऐसे ही पटना निवासी बीरेंद्र कुमार जी से तुंगनाथ से आते हुए बात हो रही थी तो मैंने उनको बताया था कि एक सप्ताह बाद हम ओंकारेश्वर जाने वाले हैं तो उन्होंने सुझाव दिया था कि कोशिश कीजिएगा कि मंदिर में प्रवेश करने के बाद बाई तरफ से चलने के लिए क्योंकि शिवलिंग बाईं तरफ ही विराजमान हैं और यहां पहुंचते ही मुझे उनकी बात याद आ गई।

हां तो हम बात कर रहे थे कि धीरे धीरे बढ़ते हुए मंदिर के दरवाजे तक पहुंच गए। मंदिर में प्रवेश करते ही किसी तरह से हम बाएं होने की कोशिश करने लगे और अपने इस कार्य में सफल भी हो गए। धीरे धीरे चलते हुए हम गर्भगृह में पहुंच गए। वहां गए तो देखा कि शिवलिंग को एक शीशे की दीवार से घेर रखे हैं और उस दीवार की ऊंचाई करीब चार फीट थी। वहां पहुंचते ही वहां खड़े सुरक्षाकर्मी लोगों को ऐसे हटा रहे थे जैसे कि ये कोई बहुत बड़े अपराध करने यहां आए हैं और इनको उस अपराध करने से रोका जा रहा है। हम भी वहां पहुंचे और सेकेंड भर से भी कम समय मिला होगा वहां दर्शन का और उसके बाद जानवरों की तरह बाहर निकाल दिया गया। अब इस बात पर यही कह सकते हैं कि हमने रास्ता ही तो नापा, इस दरवाजे से अंदर गए और उस दरवाजे से बाहर निकाल दिए गए। ये धर्मस्थान भी पंडे पुजारियों की बपौती जैसी लगने लगी है। धीरे धीरे इन धर्मस्थानों से अब मोह भंग भी होने लगा है कि जिस चीज के लिए चार से पांच दिन का सफर पूरा करके यहां तक पहुंचो और यहां पहुंचते ही धक्के देकर बाहर निकाल दिया जाएगा, पर शिव में आसक्त मन नहीं मानता और एक जगह से दुत्कारे जाने के बाद फिर दूसरे जगह पहुंच ही जाते हैं। इस हिसाब से अगर मैं कहूं तो सबसे अच्छा तृतीय केदार तुंगनाथ जी ही हैं, वहां कोई धक्के मारने वाला होता है, न तो सुरक्षाकर्मी न ही पुजारी। तुंगनाथ का वो दिन आज भी याद आता है जब पुजारियों ने कहा था कि आपको जितने देर तक यहां बैठना है बैठिए, जितना जल चढ़ाना है चढ़ाइए, जितना माथा टेकना है टेकिए क्योंकि यहां आपको कोई मना करने वाला नहीं है और इसीलिए मुझे तुंगनाथ जाना सबसे अच्छा लगता है।

खैर जैसे भी हो, आधे-अधूरे या पूरे कहें, जो भी कह लें, एक घंटे की धक्का-मुक्की के बाद शिव के दर्शन के पश्चात हम मंदिर से बाहर निकले और फिर उसी दुकान पर पहुंचे जहां से हमने प्रसाद लिया था और अपना बैग रखा था। दुकान वाले को प्रसाद के पैसे देकर अपना बैग वापस लिया और कुछ देर मंदिर के पास पसरे बाजार में यहां वहां घूमते रहे तो दो चार विदेशी छोरों और छोरियों पर नजर पड़ गई। उनको देखकर बहुत ही आश्चर्य हुआ कि आज हम उनकी नकल करके उनके जैसे परिधान अपनाने लगे हैं और वो यहां आकर हमारे जैसे परिधान अपनाने लगे हैं। विदेशी लड़का धोती और पीले कुर्ते में और लड़की पीली साड़ी में बाजार में घूमते हुए मिल गए। उनको इस परिधान में देखकर सच कहें तो इतनी प्रसन्नता हुई कि उनसे बात करने का बहुत मन हो रहा था पर संकोचवश उनसे मैं बात नहीं कर सका और आगे बढ़ गया। मंदिर में दर्शन के पश्चात हमारी अगली मंजिल या यों कहिए तो हमारा अगला सफर ओंकारेश्वर परिक्रमा पथ था और हम उसी तरफ आगे बढ़ गए। अब तक दोपहर के साढ़े बारह बज चुके थे और खाली पड़े पेट में चूहे उधम मचाने लगे थे मतलब कि अब कुछ खाने-पीने की आवश्यकता महसूस होने लगी थी। भोजन की तलाश में समय व्यर्थ नहीं करते हुए हमने वहीं पटरी पर बिक रहे कुछ खीरा खरीदा और वहीं बैठ कर उसे निपटाने लगे। अब जब तक हम खीरे को निपटा कर उसे उसकी मंजिल पर पहुंचाते हैं तब तक आप भी थोड़ा आराम कर लीजिए और हम जल्दी ही आते हैं अपनी अगली पोस्ट के साथ जिसमें हम आपको ओंकारेश्वर परिक्रमा पथ पर अपने साथ परिक्रमा पर ले चलेंगे। तब तक के लिए आज्ञा दीजिए, बस अभी गया और अभी आया। धन्यवाद।

हर हर महादेव।

ओंकारेश्वर के दर्शनीय स्थल

पंचमुखी गणेश मंदिर : ओंकारेश्वर में मुख्य मंदिर के पहले पंचमुखी गणेश मंदिर स्थित है। यहाँ गणेश जी की प्रतिमा स्वयंभू मानी जाती है। यह उसी पाषाण में उत्पन्न हुई है जिसमे श्री ओंकारेश्वर प्रकट हुए है।

ममलेश्वर मंदिर : ममलेश्वर मंदिर नर्मदा के दक्षिण तट पर स्थित है इसका सही नाम अमरेश्वर है। भक्तगण ओंकारेश्वर एवं ममलेश्वर दोनों जगह दर्शन पूजन करते हैं। यह मंदिर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा घोषित संरक्षित स्मारक है।

वृहदेश्वर मंदिर : यह मंदिर ममलेश्वर मंदिर के समीप स्थित है। मंदिर में अत्यंत ही सुन्दर शिल्पकारी एवं नक्काशी की गई है एवं यह मंदिर अत्यंत ही दर्शनीय है। वर्तमान में यहाँ अवतारों की मूर्तियां स्थापित है।

गोविन्देश्वर मंदिर एवं गुफा : यह मंदिर ओंकारेश्वर मंदिर के प्रवेश द्वार के पास ही स्थित है। 

अन्नपूर्णा मंदिर : यह एक प्राचीन मंदिर है जिसमे एक विशाल परिसर निर्मित किया गया है। इस परिसर में सर्वमंगला मंदिर भी स्थित है जिसमे देवी लक्ष्मी, सरस्वती एवं पार्वती की मूर्ति स्थापित है। यहाँ एक लगभग 35 फुट ऊँची भगवान कृष्ण की विराट स्वरूप मूर्ति स्थापित है।

महाकालेश्वर मंदिर : ओंकारेश्वर में मंदिर के नीचे से दूसरे तल पर श्री महाकालेश्वर मंदिर भी स्थित है जैसा की उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर ज्योतिर्लिंग में श्री ओंकारेश्वर मंदिर भी स्थित है। यहाँ श्री महाकाल ऊपर एवं श्री ओमकार नीचे हैं एवं इसके उलट उज्जैन में श्री ओमकार ऊपर एवं महाकाल नीचे हैं।

गुरुद्वारा ओंकारेश्वर साहिब : श्री गुरुनानक देव जी महाराज अपनी देशव्यापी धार्मिक यात्रा के दौरान ओंकारेश्वर आये थे। इसी घटना की स्मृति में सिक्ख समाज द्वारा यहाँ पर एक गुरुद्वारा निर्मित किया गया है।

प्रथम पुल (पुराना पुल) : ओंकारेश्वर नगर नर्मदा नदी द्वारा दो भागों में विभक्त किया गया है। मुख्य नगर से द्वीप पर स्थित मुख्य मंदिर में दर्शन हेतु जाने के लिए पहले केवल नावें ही उपलब्ध थीं, भक्तों कि सुविधा के लिए मध्य प्रदेश सरकार ने नदी पर एक पुल का निर्माण करवाया। इस पुल कि लम्बाई करीब 200 मीटर है।

झूला पुल (नया पुल) : ओंकारेश्वर आने वालों दर्शनार्थियों के लिए झूला पुल एक विशेष आकर्षण है। भक्तों कि बढती हुई संख्या को देखते हुए नर्मदा हाइड्रो इलेक्ट्रिक डेवलपमेंट कार्पोरेशन द्वारा ममलेश्वर सेतु नामक एक नए पुल का निर्माण किया गया। यह पुल करीब 235 मीटर लंबा एवं 4 मीटर चौड़ा है। इस पुल के ऊपर से नर्मदा नदी, ओंकारेश्वर बांध एवं मंदिर का मनोरम दृश्य दिखलाई पड़ता है।





इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 1: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-1 : दिल्ली से उज्जैन
भाग 2: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-2 : महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग
भाग 3: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-3 : विक्रमादित्य का टीला और हरसिद्धी मंदिर
भाग 4: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-4 : भतृहरि गुफा और गढ़कालिका मंदिर
भाग 5: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-5 : कालभैरव मंदिर और सिद्धवट मंदिर
भाग 6: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-6 : मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम
भाग 7: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-7 : इंदौर से ओंकारेश्वर
भाग 8: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-8 : ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन
भाग 9: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-9 : ओंकारेश्वर परिक्रमा पथ
भाग 10: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-10: ओंकारेश्वर से देवास




आइये अब इस यात्रा के कुछ फोटो देखते हैं :




नदी के इस तरफ से ओंकोरश्वर मंदिर की तरफ कुछ धर्मशालाएं

परिक्रमा पथ पर दूर से दिखाई देता शिव प्रतिमा

ओंकारेश्वर मंदिर

ओंकारेश्वर मंदिर और नर्मदा

झूला पूल और ओंकारेश्वर डैम

ओंकारेश्वर डैम

पुराना पुल

पुराना पुल

नर्मदा और रंग-बिरंगी नावें

नर्मदा, झूला पूल, ओंकारेश्वर डैम और रंग-बिरंगी नावें

एक फोटो आज अपना भी लगा देते हैं

नर्मदा

वो परिवार जिनके साथ हमने नाव से नर्मदा पार किया और साथ में नाव व नाविक भी

ममलेश्वर मंदिर

नर्मदा घाट और नावें

नर्मदा और हरियाली

नर्मदा और घाट

दर्शन के लिए लाइन में लगे श्रद्धालु

दर्शन के लिए लाइन में लगे श्रद्धालु

दर्शन के लिए लाइन में लगे श्रद्धालु

प्रसाद और अन्य सामान की दुकानें

प्रसाद और अन्य सामान की दुकानें

नर्मदा, ओंकारेश्वर मंदिर, झूला पूल, और ओंकारेश्वर डैम

ओंकारेश्वर मंदिर



इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 1: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-1 : दिल्ली से उज्जैन
भाग 2: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-2 : महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग
भाग 3: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-3 : विक्रमादित्य का टीला और हरसिद्धी मंदिर
भाग 4: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-4 : भतृहरि गुफा और गढ़कालिका मंदिर
भाग 5: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-5 : कालभैरव मंदिर और सिद्धवट मंदिर
भाग 6: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-6 : मंगलनाथ मंदिर और संदीपनी आश्रम
भाग 7: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-7 : इंदौर से ओंकारेश्वर
भाग 8: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-8 : ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग दर्शन
भाग 9: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-9 : ओंकारेश्वर परिक्रमा पथ
भाग 10: उज्जैन-ओंकारेश्वर यात्रा-10: ओंकारेश्वर से देवास





16 comments:

  1. वाह.. वाह.. मेरे मगरमच्छ वाले भईया जी बहुत अच्छे..🤗🤗 मेरी भी इच्छा है की मगरमच्छ बनूं।
    इन मंदिरों में मेरी श्रद्धा बिल्कुल ही समाप्त हो चुकी है, यदी कहीं मंदिर जाना भी हुआ तो विशेष ध्यान दर्शन पर ना होकर वास्तुशिल्प और आस पास के वातावरण पर ही रहता है। क्योंकि इन मंदिरों में कोई ईश्वर है ही नहीं ये तो बस एक व्यापारियों का केंद्र बन गये है, जहाँ जितनी आपकी आर्थिक स्थिति है उतनी ही आपकी प्रतिष्ठा है। यह निश्चित है की शिव कहीं प्रकृति के सान्निध्य में ही होंगे इन शाॅपिंग सेंटरों पर नही।
    आपका एक बोट वाली लाल फोटो देखकर याद आता है.. लाल देह लाली लसे.. 😊

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    1. बहुत सारा धन्यवाद अनुज अनुराग इतनी सुंदर टिप्पणी करने के लिए, वो शांत नर्मदा के जल में करीब बीस मिनट तक ऐसे ही बिना हिलेे डुले पड़े हुए थे अगर लोग नहीं आते तो कम से कम घंटा गुजार देते। हां मंदिरों में अब श्रद्धा पैसे खर्च के लिए रह गई है। प्राचीन मंदिरों की शिल्पकला और उसकी बनावट ऐसी है कि वो बरबस ही ध्यान आकर्षित कर लेता है लेकिन पंडों का आतंक आम जन को मंदिरों से धीरे-धीरे विमुख करने लगता है। वो ये भी नहीं सोचते कि लोग कई दिन का सफर करके यहां तक आते हैं तो कुछ क्षण में क्या बिगड़ जाए। मन करता है कि ऐसे पंडे कहीं एकांत में मिले तो कूट डालें। हां शिव का वास प्राकृतिक दृश्यों और बादलों, पहाड़ों और बरसात और हरियाली के बीच ही कहीं है।
      अरे वाह वो लाल फोटो इतनी अच्छी लगी। पूरे ओंकारेश्वर, उज्जैन, इंदौर और देवास में वही इकलौती फोटो है उस यात्रा की। शर्ट लाल, गमछा लाल, नाव भी लाल और सब कुछ लाल होने से चेहरा भी लाल दिखने लगा है।

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  2. वाह!अभयानंद जी,��
    क्या ऑखों देखा हाल लिखा है।मुझे हाॅकी के हिन्दी उदघोषक जसदेव सिंह जी स्मरण हो आए। पल-पल/क्षॅण-क्षॅण का यथार्थ,पाठक भी अनुभव करते रहे।
    धन्यवाद कि आनन्द देते हो आप।��

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    1. बहुत सारा धन्यवाद आपको, वैसे धन्यवाद शब्द आपके लिए अच्छा नहीं लगता प्रयोग करना फिर भी कर देते हैं। आपको हमारा लेख इतना अच्छा लगता है ये मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। 🙏🙏🙏🙏

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  3. बहुत बढ़िया सिन्हा जी
    वैसे जब मैं गया था तो 1 दिन रुका था। दिन में तो भीड़ थी पर शाम को तो इतनी शांति थी कि अपने 5 के अलावा 2 या 4 लोग और थे बस , दूसरे दिन सुबह भी ज्यादा भीड़ नही थी । 3 बार दर्शन किए सब व घंटों समय प्रांगण में गुजरा।।
    बड़ा अच्छा अनुभव था ।।
    पुरानी यादें ताज़ी हो गई आओ के लेख को पढ़ कर

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको। मुझे भी एक बार और जाना है तब इस तरह से जाना है कि शाम को वहां पहुंचे और रात में वहीं रुकें फिर अगले दिन पूरा दिन वहीं रहें और शाम को वापसी करें क्योंकि अगली बार पूरे परिवार को लेकर जाना है।

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  4. वाह अभय भाई, बेहद शानदार शैली है आपके लेखन की�� पढ़ना तो क्या कहेंगे बस यूँ समझिए कि फिसलते हुए नीचे चले आए।

    पंडों के ऐसे आचरण पर सच में बड़ी कोफ़्त होती है, इस मामले में द्वारिका में हमें कोई दिक़्क़त नहीं हुई।

    आप द्वारा दी गयी इस पूर्ण जानकारी को हम सेव किए ले रहे हैं।
    बहुत बहुत धन्यवाद आपका ��

    हर हर महादेव��

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको आशीष जी। पंडों के व्यवहार पर तुंगनाथ की याद सबसे ज्यादा आती है, वो प्रेम, सौहार्द सभी बड़े धार्मिक स्थलों के पंडों का सीखना चाहिए वहां जाकर। केदारनाथ गया कपाट खुलने के दिन भीड़ इतनी ज्यादा कि पैर रखने तक की जगह नहीं, फिर भी उनका व्यवहार बिल्कुल सम्मानजनक था।

      इससे पिछले पोस्ट में भी कुछ जानकारियां थी और इस पोस्ट में भी है और इससे आगे आने वाले दो पोस्टों में परिक्रमापथ पर जितने भी मंदिर आश्रम या दर्शनीय स्थल हैं उनकी जानकारी दूंगा, अभी लिख रहा हूं।

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    2. नमस्ते में भी उज्जैन ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग गुमने जा रहा हु और इंदौर सिटी देखना तो कुछ मदद होती तो अच्छा वहा पे गुमने के लिए

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  5. मेरा भाई सबसे पहले तो एक बात हम कहना चाहेंगे कि आप जब देखें की पोस्ट लंबा हो रहा है तो उसको दो पार्ट में कर दें इससे क्या होगा पाठकों को पढ़ने में आसानी रहेगी और दूसरे पार्ट्स को पढ़ने में के लिए जिज्ञासा भी उनके मन में रहेगी।

    एक में ही आप पूरा झोंक देंगे तो कितने लोग हैं कि उसको सही से पढ़ेंगे भी नहीं और साइड कर देंगे और फूल पत्ते अंगूठा दिखाकर आगे हो जाएंगे ••••••••कोशिश करिए की लंबी पोस्ट को दो भागों में करने के लिए ������

    दूसरी बात हम हमेशा आप की पोस्टों को बड़े ध्यान से पढ़ते हैं और उनको पढ़ने के बाद जो हमने अनुभव किया और हमारे मन में जो विचार आया है वो बतलाना चाहेंगे कि आपके सभी लेखों को मिलाकर एक पुस्तक छपवाया जा सकता है ।

    उसमें आप अपने सारे लेख शामिल कराइए यह हमारी इच्छा भी है क्योंकि आप लिखते बहुत जबरदस्त है भैया और यकीन मानिये हाथों हाथ आप फेमस हो जाएंगे पूरे हिंदुस्तान में ������

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    1. पहले तो आपको ढेर सारा धन्यवाद।
      हम भी बहुत सोचते हैं कि पोस्ट छोटी हो और कभी-कभी दो भाग में बनाते भी हैं, लेकिन किसी पोस्ट में जो केवल एक जगह का ही विवरण हो उसमें दो भाग बना नहीं पाते हैं। पर अब ये कोशिश रहेगी कि दो भागों में बनाया करेंगे।
      आप मेरे लेख को दिल से पढ़ते हैं इसके लिए आपको धन्यवाद और ढेर सारी शुभकामनाएं।
      अब किताब वाली है तो ऐसा है कि एक प्रकाशक से दक्षिण भारत के सभी लेखों को पुस्तक रूप में छापने के लिए बात चल रही है, उम्मीद है जल्द ही पुस्तक आपको सप्रेम भेंट करेंगे।

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  6. हर हर महादेव सर जी।
    हमेशा की तरह इस बार भी आपका लेख पढकर मन मंत्रमुग्ध हो गया। कितना अच्छा लगता होगा पानी में तैरना तथा कई तरह की गोताखोरी करना, परंतु मैं इस सुखद आनंद से अभी तक वंचित हूँ, क्योंकि मैने कई बार कोशिश की तैराकी सीखने की, लेकिन लाख कोशिश करने के बाद भी पानी का डर मैं अपने मन से नहीं निकाल पाया, खैर...........
    वैसे आपने नाव की सवारी करने का अच्छा जुगाड़ बनाया ।
    आपने सही कहा हम इतने दिन की यात्रा करके भगवान के दर्शन करने के लिए आते हैं और वहाँ हमारे साथ जानवरों जैसा व्यवहार होता है और कुछ अपवाद छोङ दे तो हर जगह इन पंडो का और आसपास के दुकानदारों का आतंक, अगर मेरा वश चलें तो इन्हें आतंकवादी घोषित कर दूँ.. इसी वजह से मैंने ज्यादा भीड़भाड़ वाली जगहों पर जाना बंद कर दिया है या यूँ कहिए आउट आफ सीजन जाता हूँ जब उस जगह पर भीड़ कम ही हो।
    मैंने भी कई जगह देखा है पाश्चात्य संस्कृति के लोगों को जो अब भारतीय संस्कृति से जुङ रहे हैं और हमारे देश के लोग पाश्चात्य संस्कृति को अपनाने में लगे हुए हैं।
    वैसे आप पर लाल रंग बङा चंगा लगदा है। प्रवेश जी की बात से मैं भी सहमत हूँ, आपके सारे लेखों की पुस्तक छपनी चाहिए ना कि सिर्फ दक्षिण भारत की।

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    1. ऊं नमः शिवाय।
      पहले तो आपको ढेर से भी ज्यादा ढेर सारा धन्यवाद। आप अपना कीमती समय देकर हमारे पोस्ट के एक एक बिंदु को पढ़ते हैं और उतने ही प्यार से आप टिप्पणी करते हैं, आपके टिप्पणी को देखकर तो मन बिल्कुल हर्षित हो उठता है। ऐसा लगता है जैसे सालों से सूखे पड़े धरती पर बारिश की बूंदे गिरने लगी हैं।

      शांत पानी में बिल्कुल स्थिर पड़े रहना तन-मन को एक सुखद अनुभूति प्रदान करता है। तैरन तो हम भी नहीं जानते, केवल किनारे पर ही हाथ-पैर मारते हैं, ज्यादा पानी में जाने की हिम्मत नहीं है मेरी।

      नाव का जुगाड़ किस्मत से हो गया वरना या तो 150 लगते या पैदल पार करना पड़ता पुल पर से।

      जब मंदिर में जाओ तो पंडा लोगों के व्यवहार से बहुत दुख होता है, तब लगता है कि बेकार में आ गए पर खूबसूरत प्राकृतिक दृश्यों को देखकर फिर मन को थोड़ी शांति महसूस होती है। मंदिर के आसपास दुकान वाले, पंडे आदि लोग बहुत परेशान करते हैं।

      हां ये मेरा लाल रंग वाला फोटो मुझे भी अच्छा लगा इसलिए लगा दिया वरना अपनी फोटो कहां लगाते हैं। सब कुछ उसमें लाल लाल ही है। बस आप सबकी शुभकामनाएं साथ है तो पुस्तक भी जल्दी आ जाएगी।

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  7. यह बार बार मगरमच्छ वापस आ जाता है कही न कही से घूम कर...बढ़िया रहा आपका नर्मदा स्नान...

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    1. धन्यवाद प्रतीक भाई, ब्लाॅग पर आकर अपना समय देकर पढ़ने और एक सुंदर सी टिप्पणी करने के लिए।
      ये घूमंतू मगरमच्छ है इसलिए बार बार आ जाता है, वैसे अगर कुछ लोग और नहीं आ जाते तो अभी कुछ देर और वैसे ही पानी में पड़े रहते।

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  8. गागर में सागर। एक ही पोस्ट में इतनी सारी जानकारी समेटने का प्रयास अच्छा लगा।

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