Monday, April 27, 2020

शम्भू जी की रेल यात्रा (Train Journey of Shambhu Jee)

शम्भू जी की रेल यात्रा (Train Journey of Shambhu Jee)




रात के आठ बज चुके थे और शम्भू दयाल अपनी पत्नी गौरी दयाल, मित्र विक्की दयाल और उनकी पत्नी विनिता दयाल के साथ रेलवे स्टेशन पहुंचकर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। अभी गाड़ी आने में करीब डेढ़ घंटे का ज्यादा का समय बाकी था। इस डेढ़ घंटे के समय को शम्भू दयाल जी ने यहां तक आने के बस के सफर की दास्तान छेड़ दी जो कुछ खुशी और कुछ गम लिए हुई थी। हुआ ये था कि शम्भू बाबू घर से इतना समय लेकर चले थे कि शाम से पहले ही उनको स्टेशन पहुंच जाना चाहिए था पर कुछ बस वालों की चालाकी और कुछ यातायात की दुश्वारियों के कारण वो अपने द्वारा तय किए गए समय से करीब 3 घंटे की देर से यहां तक पहुंचे थे।

Saturday, April 4, 2020

एक छोटी सी ट्रेन यात्रा (A Short Train Journey)

एक छोटी सी ट्रेन यात्रा (A Short Train Journey)







(यात्रा तिथि : 2 दिसम्बर 2019) : राजगीर (राजगह, राजगृह) के कुछ जगहों को घूमते-देखते लगभग 11 बजे चुके थे और अब हमें यहां से अपने गांव की तरफ प्रस्थान करना था तथा उसके लिए पहले हमें बिहार शरीफ पहुंचना था। राजगीर से बिहार शरीफ जाने के लिए हर 5 से 7 मिनट पर बसें मिल जाती है और छोटी गाडि़यां भी, साथ ही करीब एक दर्जन ट्रेन उपलब्ध है। इतने सारे साधन होने के बावजूद भी हम ये सोचने लगे कि हम किस साधन से बिहार शरीफ तक जाएं, बस से या ट्रेन से। और यही सोचते हुए कुछ मिनट ऐसे ही बीत गए और सोचने के पीछे भी एक कारण था। वो ये कि अगर हम बस से जाते हैं तो बस जी हमें जिस बस पड़ाव पर उतारेंगे वहां से दूसरे बस पड़ाव तक जाने के लिए ऑटो से दूसरी तरफ जाना पड़ेगा क्योंकि बस हमें शहर के पश्चिम तरफ के बस पड़ाव पर छोड़ेगी और मेरे गांव की गाड़ी शहर के पूरब से मिलती है। यही यदि हम ट्रेन से जाते हैं तो ट्रेन महाराज हमें शहर के पूरब की तरफ छोड़ेंगे जहां से मैं पांच मिनट पैदल चलकर पांच मिनट में उस बस पड़ाव पर पहुंच जाऊंगा और कुछ धन भी बचा लूंगा क्योंकि यदि बस से जाता तो मेरा खर्चा 30 और 12 मतलब कि कुल 42 रुपए खर्च होते और ट्रेन महाराज हमें केवल और केवल और केवल 10 रुपए में ही वहां पहुंचा देंगे और शहर की भीड़ भाड़ से भी बचा लेंगे।

Thursday, April 2, 2020

लवनी और फेदा (Lavni and Feda)

लवनी और फेदा (Lavni and Feda)




गांव से जब हम पहली बार दिल्ली आए थे हमें बहुत ही अजीब सा महसूस हुआ था। वो अजीबपन कुछ इस तरह का था; जैसे, सिर्फ काली सड़कें, कंक्रीट से बने पक्के मकान हैं, पेड़ों के नाम पर इक्का-दुक्का पेड़, जिनके नाम जानने के लिए भी मुझ अनाड़ी को किसी वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर और वैज्ञानिक की जरूरत पड़ जाए। हमारे यहां तो गांव में के पेड़ों के नाम आम, अमरूद, ताड़, खजूर, शीशम, पाकड़, गूलर, महुआ, लसोड़ा, सिरिस, कटकरेजी, पुटुस आदि होते थे और गांव तो गांव पास के शहरों में भी ये सब पेड़ मिल जाते हैं; पर दिल्ली आकर उन पेड़ों को के बारे में जानना ख्वाब बन गया और देखना तो सपना।