ताड़ : प्रकृति का अनुपम उपहार
(Palm: The Unique Gift of Nature)
(Palm: The Unique Gift of Nature)
बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे ताड़ खजूर।
पंथी को छाया नहीं फल लागे अति दूर।
पता नहीं किसने ये कहावत शुरू किया होगा। ताड़ का पेड़ सीधे भले ही मुसाफिरों को छाया नहीं देता पर उस एक पेड़ के इतने गुण हैं कि यही कह सकते हैं कि
सात समंदर की मसि करौं लेखनि सब बनराइ।
धरती सब कागद करौं ताड़ गुण लिखा न जाइ।
ताड़ का पेड़ प्रकृति प्रदत्त एक अनुपम उपहार है जिसका जीवन तो बस परोपकार के लिए ही है, वो अपना हर चीज (जड़, तना, पत्ता, फल, बीज, आदि सभी चीज) लोगों की सेवा में समर्पित कर देता है।
ताड़ का पेड़ प्रकृति प्रदत्त एक अनुपम उपहार है जिसका जीवन तो बस परोपकार के लिए ही है, वो अपना हर चीज (जड़, तना, पत्ता, फल, बीज, आदि सभी चीज) लोगों की सेवा में समर्पित कर देता है। शुरुआत ताड़ के पत्ते से करते हैं। ताड़ का पत्ता जिसे ढमकोल भी कहा जाता है वो इतना बड़ा होता है कि चाहे कितना भी तेज बरसात हो रही हो, आप ढमकोल से अपने को भींगने से बचा सकते हैं। तेज धूप में भी ये आपको धूप से बचाकर छाया देगा। ये छान-छप्पर छाने के काम भी जाता है। खेत-खलिहानों को घेरने के भी काम जाता है। चटाई और टोकरी बनाने के काम भी आ जाता है।
इन सब कामों के बाद सूख जाने, सड़ जाने पर भी ये बर्बाद नहीं होता और ये जलावन के काम भी आ जाता है। ताड़ के पत्ते यानी ढमकोल का जितना उपयोग बताया जाए वो कम होगा। हाथ वाला पंखा, चटाई, मौनी (टोकरी), शादी-वियाह में सिर पर पहने वाला मौरी, पूजा में प्रयोग होने वाला गेरुआ आदि भी इसके पत्ते से ही बनता है। प्राचीन काल में इसके पत्ते पर लिखा जाता था जो सामूहिक रूप से भोजपत्र (यहाँ वास्तव में पत्र छाल है) ताड़पत्र के रूप में जाना जाता है। एक बात और वो ये कि ताड़ी पीने के लिए ताड़ के पत्ते का ही दोना (मान लीजिए कि गिलास) बनाकर उससे ही पी लिया जाता है।
ताड़ का पेड़ प्रकृति प्रदत्त एक अनुपम उपहार है जिसका जीवन तो बस परोपकार के लिए ही है, वो अपना हर चीज (जड़, तना, पत्ता, फल, बीज, आदि सभी चीज) लोगों की सेवा में समर्पित कर देता है। शुरुआत ताड़ के पत्ते से करते हैं। ताड़ का पत्ता जिसे ढमकोल भी कहा जाता है वो इतना बड़ा होता है कि चाहे कितना भी तेज बरसात हो रही हो, आप ढमकोल से अपने को भींगने से बचा सकते हैं। तेज धूप में भी ये आपको धूप से बचाकर छाया देगा। ये छान-छप्पर छाने के काम भी जाता है। खेत-खलिहानों को घेरने के भी काम जाता है। चटाई और टोकरी बनाने के काम भी आ जाता है।
इन सब कामों के बाद सूख जाने, सड़ जाने पर भी ये बर्बाद नहीं होता और ये जलावन के काम भी आ जाता है। ताड़ के पत्ते यानी ढमकोल का जितना उपयोग बताया जाए वो कम होगा। हाथ वाला पंखा, चटाई, मौनी (टोकरी), शादी-वियाह में सिर पर पहने वाला मौरी, पूजा में प्रयोग होने वाला गेरुआ आदि भी इसके पत्ते से ही बनता है। प्राचीन काल में इसके पत्ते पर लिखा जाता था जो सामूहिक रूप से भोजपत्र (यहाँ वास्तव में पत्र छाल है) ताड़पत्र के रूप में जाना जाता है। एक बात और वो ये कि ताड़ी पीने के लिए ताड़ के पत्ते का ही दोना (मान लीजिए कि गिलास) बनाकर उससे ही पी लिया जाता है।
ताड़ के पेड़ से सोमरस भी निकलता है जिसे ताड़ी के नाम से जाना जाता है, उसे आसमानी गाय का दूध भी कह सकते हैं। ताड़ के फल को हम अपनी भाषा में फेदा कहते हैं। पेड़ से ताड़ी निकालने की तैयारी करने के लिए इसके कुछ फलों को काट कर गिरा दिया जाता है। ये फल यानी कि ये फेदा दो, तीन या चार भागों में विभाजित होता है जिसके अंदर एक बहुत ही स्वादिष्ट खाद्य पदार्थ निकलता है जिसे कोवा या कोआ या ताड़गोला के नाम से जाना जाता है। उसका स्वाद थोड़ा थोड़ा लीची से मिलता जुलता है और ज्यादा खा लेने पर ये पेट में उछलता-कूदता भी रहता है। यही गोला ताड़ का फल पकने पर गुठली में बदल जाता है और जब इसी गुठलियों को रोपा जाता है तो अंकुरण के बाद ये फिर से खाने के लायक हो जाता है, जिसका स्वाद कैसा होता है ये कैसे बताऊं, पर बहुत स्वादिष्ट होता है।
जो फल ताड़ के पेड़ पर बचे रह जाते हैं वो और बड़े होकर पक जाते हैं और धीरे धीरे करके एक-एक करके खुद ही गिरते जाते हैं। और उसका स्वाद इतना मीठा होता है कि उसके सामने फलों का राजा आम भी पीछे छूट जाता है। हम तो कहते हैं कि अगर आम फलों का राजा है तो पका हुआ ताड़ का पका हुआ फल फलों का महाराजा हुआ। इस पके हुए फल के गूदे से जैसे मैंगो-शेक, बनाना-शेक आदि बनाते हैं उसी तरह इससे ताड़-शेक भी बना सकते हैं और यकीन मानिए इस शेक के सामने सारे शेक फेल हो जाएंगे। इन्हीं गूदों का खमीरीकरण करके शराब भी बनाया जाता है। फलों के गूदे को खा लेने के बाद जो गुठली बच जाता है उसे रोप दिया जाता है और जिससे ताड़ के पौधे का जन्म होता है।
ताड़ की गुठलियों को जब रोपा जाता है तो ये अंकुरित होकर पहले धरती के अंदर ही करीब डेढ़-दो फुट जमीन जमीन के अंदर ही बढ़ते हैं और उसके बाद इसके पत्ते बाहर आते हैं। गुठली के रोपे जाने से लेकर धरती के अंदर होने वाली इस प्रक्रिया में करीब 4 महीने लगते हैं। उसे जमीन के अंदर से निकाल कर उसे उबाल कर खाने का जो स्वाद मिलता है; वाह क्या स्वाद होता है। वैसे इसे अपनी भाषा में इसे हम परम कहते हैं, पर स्थान स्थान पर इसका नाम परिवर्तित हो जाता होगा या कहीं इसके उपयोग को नहीं भी जानते होंगे। इस पूरी प्रक्रिया के दौरान गुठलियों के बीच भी खाने की एक वस्तु का निर्माण हो जाता है जो बहुत ही स्वादिष्ट और मीठा होता है। गुठली रोपने के बाद जो जड़ बनता है अगर इसे नहीं निकाला तो यही बाद में ताड़ का पेड़ बनता है।
ताड़ का पेड़ जब छोटा होता है या चाहे बड़ा ही हो अगर ये किसी तरह गिर जाए, किसी तरह ये उखाड़ दिया जाए तो इसके पत्तों के बीच में भी बहुत ही स्वादिष्ट खाने योग्य चीज हमें मिल जाती है, जिसे हम अपनी भाषा में खाजा कहते हैं। एक ताड़ के पेड़ को वयस्क होने में करीब 100 साल से भी ज्यादा समय लगता है और अगर यह ताड़ का पेड़ अकाल मृत्यु को प्राप्त होता है तो ये पूरा पेड़ जलावन के काम आता है, अगर तना मजबूत हो चुका होता है तो बांस-बल्ली के बदले छान-छप्पर मंे प्रयोग हो जाता है। 80-90-100 साल के ताड़ का इतना मजबूत हो जाता है कि ये छत में भी लगाने के काम आ जाता है।
एक और प्रमुख बात जो बताना भूल गए वो ये कि ताड़ के पत्ते यानी ढमकोल का जो फट्ठा होता है वो मार-पीट में भी काम आता है, वैसे उसके दोनों तरफ इतना तेज धार होता है हलका सा खरोच लगने पर भी घायल करने के लिए काफी होता है।
एक और बात जो बताना तो हम भूल ही गए थे वो ये कि ताड़ के पेड़ में भी पुरुष पेड़ और महिला पेड़ होता है। फल वाला पेड़ महिला पेड़ होता है और बलरी वाला यानी कि फूल वाला पेड़ पुरुष पेड़ होता है। फल वाले पेड़ से ताड़ी बैशाख और जेठ के महीने में निकलता है और फूल वाले पेड़ से पूरे साल ताड़ी निकलता है।
एक और बात जो बताना तो हम भूल ही गए थे वो ये कि ताड़ के पेड़ में भी पुरुष पेड़ और महिला पेड़ होता है। फल वाला पेड़ महिला पेड़ होता है और बलरी वाला यानी कि फूल वाला पेड़ पुरुष पेड़ होता है। फल वाले पेड़ से ताड़ी बैशाख और जेठ के महीने में निकलता है और फूल वाले पेड़ से पूरे साल ताड़ी निकलता है।
कुल मिलाकर अगर कहा जाए तो ‘‘आम के आम और गुठलियों के दाम’’ शायद इस ताड़ के पेड़ के फल से ही शुरू हुआ होगा क्योंकि हर शेष भाग अपनी कीमत चुका के ही जाता है। वैसे ताड़ के पेड़ की महिमा में न जाने कितने पन्ने लिखे जा सकते हैं लेकिन हम इतना लिख कर विराम देते हैं।
✍️ अभ्यानन्द सिन्हा
नीचे लिखी गई ये पंक्तियां ललित विजय जी का है।
रामायण में एक दृश्य है जब श्रीराम एक तीर से सात ताड़ के पेड़ को गिरा देते हैं। बचपन में वो बड़ा कौतूहलपूर्ण लगता था परन्तु देहातों में खेत के मेड़ पर अनेक ताड़ो को देखना आम है। ताड़ के पेड़ों के साथ मिलकर धान का हरा और पीला खेत और पीछे आकाश एक अलग दृश्य का निर्माण करते हैं। सच्चाई यह है कि ताड़ के पेड़ का खेतों के मेड़ पर इस तरह से दिखना ग्रामीण भारत का परिचय कराता है। ताड़ी आज भी गाँव के लोगों का पेय है अर्थात कम आया वालों का जबकि शहरी या शहरी गरीब अल्कोहल के लिए देशी शराब या अंग्रेजी शराब का सेवन करते हैं। गाँव के कच्चे घरों में इसका तना शहतीर के रूप में ऊपरी हिस्से में नजर आता है। एक तो इसका पत्ता काफी चैड़ा होता है अनेक चीजों के काम आता है। जुगाड़ तकनीक और देशज कला के अन्याय रूपों में इसके पत्तों का प्रयोग देखें हैं। सबसे पहले तो ताड़ी पीने वाले इसके पत्ते को एक तरह से गिलास जैसा बना लेते है जो बेलनाकार तो नही पर चैड़ा होता है। उससे भी ताड़ी पी लेते हैं। इसके पत्ते से झोपड़ी बना लेते हैं जो धूप से तो पूर्णतः बचा लेता है और बढिया से बनाने पर बरसात में भी आश्रय बन जाता है। पत्ते का शुरूआती हिस्सा जो मुख्य तना से जुड़ा होता है बच्चे उस पर बैठते हैं और दो-तीन बच्चे उसे खींचते हैं। इस तरह के दृश्य पहले गाँवो में दिखना आम था। आप कह सकते हैं की यह बच्चों का वाहन, फियेट, बीएमडब्ल्यू होता था। विशेषकर शाम में गाँव में यह दृश्य जरूर दिखता था। अंग्रेजी शराब के तुलना में यह एक तरह से जैविक अल्कोहल माना जा सकता है इसलिए शरीर पर इसका कुप्रभाव कम पड़ता है और कीमत भी कम है इसके बावजूद मैं किसी भी अल्कोहल उत्पाद का पेय के रूप में वकालत नहीं कर रहा हूँ। आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्से में मुर्गे के माँस में ताड़ी डालकर बनाते हैं उसे कल्लू चिकेन कहते हैं। जिनके खेत में या मेढ़ पर ताड़ होता है उसके मालिक को पेड़ के कारण सालाना कुछ आय भी हो जाता है। अभी लिखते समय यह विचार आया की खेत का मेढ तो दो आदमी का होता है तो मालिकाना हक का हिसाब कैसे होता है। उसमें भी अगर खेत विषम संख्या में हो तो कैसे। ताड़ी के पेड़ पर पासी को चढते देखना भी एक रोमांच पैदा करता है। पैरों में एक विशेष प्रकार का रस्सी बाँधे चढना जो शायद पेड़ से फिसलने नही देता है, सच में एक साहस और अनुभव का कार्य है। जो कम उम्र से, परंपरागत रूप से या पेशेवर रूप में कर रहे हैं उनका बात तो अलग है।
नीचे लिखी गई ये पंक्तियां ललित विजय जी का है।
रामायण में एक दृश्य है जब श्रीराम एक तीर से सात ताड़ के पेड़ को गिरा देते हैं। बचपन में वो बड़ा कौतूहलपूर्ण लगता था परन्तु देहातों में खेत के मेड़ पर अनेक ताड़ो को देखना आम है। ताड़ के पेड़ों के साथ मिलकर धान का हरा और पीला खेत और पीछे आकाश एक अलग दृश्य का निर्माण करते हैं। सच्चाई यह है कि ताड़ के पेड़ का खेतों के मेड़ पर इस तरह से दिखना ग्रामीण भारत का परिचय कराता है। ताड़ी आज भी गाँव के लोगों का पेय है अर्थात कम आया वालों का जबकि शहरी या शहरी गरीब अल्कोहल के लिए देशी शराब या अंग्रेजी शराब का सेवन करते हैं। गाँव के कच्चे घरों में इसका तना शहतीर के रूप में ऊपरी हिस्से में नजर आता है। एक तो इसका पत्ता काफी चैड़ा होता है अनेक चीजों के काम आता है। जुगाड़ तकनीक और देशज कला के अन्याय रूपों में इसके पत्तों का प्रयोग देखें हैं। सबसे पहले तो ताड़ी पीने वाले इसके पत्ते को एक तरह से गिलास जैसा बना लेते है जो बेलनाकार तो नही पर चैड़ा होता है। उससे भी ताड़ी पी लेते हैं। इसके पत्ते से झोपड़ी बना लेते हैं जो धूप से तो पूर्णतः बचा लेता है और बढिया से बनाने पर बरसात में भी आश्रय बन जाता है। पत्ते का शुरूआती हिस्सा जो मुख्य तना से जुड़ा होता है बच्चे उस पर बैठते हैं और दो-तीन बच्चे उसे खींचते हैं। इस तरह के दृश्य पहले गाँवो में दिखना आम था। आप कह सकते हैं की यह बच्चों का वाहन, फियेट, बीएमडब्ल्यू होता था। विशेषकर शाम में गाँव में यह दृश्य जरूर दिखता था। अंग्रेजी शराब के तुलना में यह एक तरह से जैविक अल्कोहल माना जा सकता है इसलिए शरीर पर इसका कुप्रभाव कम पड़ता है और कीमत भी कम है इसके बावजूद मैं किसी भी अल्कोहल उत्पाद का पेय के रूप में वकालत नहीं कर रहा हूँ। आन्ध्र प्रदेश के कुछ हिस्से में मुर्गे के माँस में ताड़ी डालकर बनाते हैं उसे कल्लू चिकेन कहते हैं। जिनके खेत में या मेढ़ पर ताड़ होता है उसके मालिक को पेड़ के कारण सालाना कुछ आय भी हो जाता है। अभी लिखते समय यह विचार आया की खेत का मेढ तो दो आदमी का होता है तो मालिकाना हक का हिसाब कैसे होता है। उसमें भी अगर खेत विषम संख्या में हो तो कैसे। ताड़ी के पेड़ पर पासी को चढते देखना भी एक रोमांच पैदा करता है। पैरों में एक विशेष प्रकार का रस्सी बाँधे चढना जो शायद पेड़ से फिसलने नही देता है, सच में एक साहस और अनुभव का कार्य है। जो कम उम्र से, परंपरागत रूप से या पेशेवर रूप में कर रहे हैं उनका बात तो अलग है।
फोटो (फोटो कई स्रोतों से इकट्ठा किया गया है) :
1. ताड़ फल और उसका निकाला हुआ गोला
2. पका हुआ ताड़ का फल
3. पके हुए ताड़ के फल से खाने वाला भाग निकालते हुए
4. गुठलियों की रोपाई
5. गुठलियों के अंकुरण के बाद खाने वाला भाग
6. परम (गुठलियों के अंकुरण के बाद ताड़ का जड़ जिसे उबाल कर खाया जाता है)
7. ताड़ और ताड़ी
8. कोवा और परम (अंकुरित गुठली और उसका जड़)
9. अंकुरित गुठली
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ताड़ फल और उसका निकाला हुआ गोला |
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पका हुआ ताड़ का फल |
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पके हुए ताड़ के फल से खाने वाला भाग निकालते हुए |
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गुठलियों की रोपाई |
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गुठलियों के अंकुरण के बाद खाने वाला भाग |
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परम (गुठलियों के अंकुरण के बाद ताड़ का जड़ जिसे उबाल कर खाया जाता है) |
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ताड़ और ताड़ी |
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कोवा और परम (अंकुरित गुठली और उसका जड़) |
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अंकुरित गुठली |
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