Thursday, April 2, 2020

लवनी और फेदा (Lavni and Feda)

लवनी और फेदा (Lavni and Feda)




गांव से जब हम पहली बार दिल्ली आए थे हमें बहुत ही अजीब सा महसूस हुआ था। वो अजीबपन कुछ इस तरह का था; जैसे, सिर्फ काली सड़कें, कंक्रीट से बने पक्के मकान हैं, पेड़ों के नाम पर इक्का-दुक्का पेड़, जिनके नाम जानने के लिए भी मुझ अनाड़ी को किसी वनस्पति विज्ञान के प्रोफेसर और वैज्ञानिक की जरूरत पड़ जाए। हमारे यहां तो गांव में के पेड़ों के नाम आम, अमरूद, ताड़, खजूर, शीशम, पाकड़, गूलर, महुआ, लसोड़ा, सिरिस, कटकरेजी, पुटुस आदि होते थे और गांव तो गांव पास के शहरों में भी ये सब पेड़ मिल जाते हैं; पर दिल्ली आकर उन पेड़ों को के बारे में जानना ख्वाब बन गया और देखना तो सपना।

जब पेड़ों से हमारा ध्यान हटा और यहां के जगहों के नामों की जानकारी मिलने लगी तो हमारा दिमाग ठीक वैसे ही गोल गोल घूमने लगा जैसे पानी में भंवर घूमता है या फिर जेठ की दुपहरिया में विंडोइया (चक्रवात पवन) घूमता है। चक्रवात से याद आया, जब गांव में हम स्कूल से वापस आते थे रास्ते में ये चक्रवात पवन मिलता था तो हम इससे दूर भागते थे क्योंकि हमें यही पता था कि इसमें बड़े बड़े और मोटे मोटे भूत रहते हैं और बच्चों को पकड़ कर ले भागते हैं। हां तो हम बात कर रहे थे यहां के जगह के नाम के बारे में तो यहां के जगह के नाम जो मुझे पता चला वो कुछ इस तरह था; मलाई मंदिर, पंचकुइयां रोड, कौडि़या पुल, पंडारा रोड, तीन मूर्ति आदि आदि पर हमारे गांवों में जगहों के नाम इस प्रकार हुआ करते थे जैसे ताड़ के पेड़ तर, लसोड़ा तर, भण्डार कोण, देवी स्थान, महावीर स्थान, महादेव स्थान, गोसाई बाबा, भैरो बाबा, तलाय पर आदि आदि। यहां के दुकान का नाम भी जगहों के नाम की तरह भी कुछ अजीब सा लगता था जैसे फतेहपुरी का वो दुकान, चांदनी चैक का ये दुकान आदि आदि पर हमारे गांव में दुकान का नाम भी ऐसे रखते थे, नकटा के दुकान, भोलासाव के मील, सातो के चक्की, मोदी जी के दुकान, लसोड़ा तर वाला फोकचा वाला, लंगड़ा सिंघाड़ा (समोसा) वाला, आदि आदि।

अब थोड़ा आगे चलते हैं, दिल्ली से जब हम जैसे जैसे पूरब की ओर बढ़ते हैं तो सड़क और रेल पटरियों के किनारे ताड़ और खजूर के पेड़ मिलने शुरू हो जाते हैं और सबसे ज्यादा कौतूहल का विषय होता था ताड़ और खजूर के पेड़ पर लटका हुआ लवनी (मिट्टी का बर्तन), जिसे देखकर अच्छे से अच्छे सूरमाओं को चक्कर आने लगते थे कि आखिर इतने ऊंचे पर लवनी लटकाया किसने। अच्छा ये तो हो गई लवनी की बात और गरमी के दिनों में जब ताड़ पर फेदा फलता है और उसी फेदे के बीच में लवनी लटका रहता है तो केवल लवनी देखकर चक्कर आने वाले लोगों को ये देखकर तो बेहोशी छा जा जाती है कि आखिर ये कैसा पेड़ है जिस पर एक ही पेड़ में दो तरह के फल लटके हुए हैं। और वो ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि आखिर एक ही पेड़ पर फेदा और लवनी जैसे दो अलग तरह के फल कैसे फल सकता है। बात यहीं नहीं रुकती थोड़ा आगे बढ़ने पर ताड़ी उतारने वाला व्यक्ति भी ताड़ के पेड़ पर दिख जाए तो बेहोश हुआ आदमी भी उठकर भागने लगता है कि आखिर ये व्यक्ति इस इतने ऊंचे पेड़ पर चढ़ा कैसे? (वैसे ताड़ के पेड़ पर फेदा काटने के लिए हम भी बहुत बार चढ़े हैं।)

अब थोड़ा और आगे चलते हैं। जैसे हर किसी के लिए कुछ जरूरतें होती है, जैसे रोटी, कपड़ा, मकान और प्रेम तथा कुछ लोगों को इनके अलावा भी कुछ और जरूरतें होती है; जिसका नाम है नशा और नशे का कोई वर्ग-विभेद नहीं होता, नशा सिर्फ नशा होता है, चाहे वो प्यार का हो या यार का हो, 10 रुपये के देशी दारू का नशा हो या 100 रुपये के अग्रेजी बोतल बंद शराब का नशा हो या फिर 1000 रुपये वाले शैम्पेन का नशा हो; नशा तो बस नशा होता है, बस अंतर केवल बोलने के ढंग का होता है कि वो बेवड़ा है, वो शराबी है और वो स्काॅच पीते हैं, करते तो सब नशा ही है और इस नशे के नशे में आकर कोई चोरी करता है, कोई मार-पीट करता है, कोई लूट करता है, कोई छीनाझपटी करता है और कोई बीच सड़क पर तो कोई सड़क किनारे लोट जाता है तो कोई क्रक्रीट के ऊंचे ऊंचे भवनों में मखमली बिस्तर पर लुढ़क जाता है, पर करता तो नशा ही है। और इनमें से कुछ लोग ऐसे भी होते हैं, जो चुपचाप नींद की शरण में जाकर अगली सुबह ही जागते हैं।

मुझे वो दिन अब भी याद है, जब हमारे साथ काम करने वाले कुछ लोग हमें कहते थे (कहते तो अब भी हैं) कि कौन सा लेंगे; गोल्ड फ्लैक, नेवीकट, पनामा, फिल्टर, चाम्र्स, मार्लबोरो, आदि-आदि तो हम कहते कि हमें इनसे मतलब नहीं तो कहते कि अच्छा पताका, खट्टन, लंगर, घोड़ा, बुड्ढा, शिवाजी, खरा सोना, 502 आदि आदि इनमें से कौन सा लेंगे और इन नामों को सुनकर हम पूछते कि ये क्या तो पता लगता कि ये बीड़ी है (इतने सारे नाम जानने से पहले हम इन नामों को केवल बीड़ी के नाम से ही जानते थे) तो हम कहते कि भाई इन चीजों से दूर हैं तो ये उपाधि मिलते कि आप पता नहीं किस मिट्टी के बने हैं, हर चीज में मना कर देते हैं तो हमारा जवाब होता कि हमें तो बस सोनपापड़ी चाहिए, और वो लोग बीड़ी-सिगरेट का फूंक लगाते और हम सोनपापड़ी का मीठा मीठा स्वाद लेते। आज भी हम गुटखाधारियों और सिगरेटपुजारियों के साथ आॅफिस से बाहर निकलते हैं और आज भी मेरा प्रिय सोनपापड़ी प्रिय बना हुआ है, फर्क इतना आ गया है कि तब वो 50 पैसे में मिलता था और अब वो 500 पैसे यानी कि 5 रुपए में मिलता है, अब चाहे वो जितने में मिले, सोनपापड़ी जिंदाबाद।

✍️ अभ्यानन्द सिन्हा






1 comment:

  1. हर हर महादेव 🙏🙏
    आज का जो आपने विषय लिया है, इसमें कोई दो राय नहीं कि जब कोई व्यक्ति पहली-पहली बार गांव या कस्बे से किसी बड़े शहर या महानगर में जाता है तो उसे भी आपकी तरह परेशानी आती है चाहे वह किसी स्थान का नाम हो या दुकान का नाम। ऐसे में एक बड़ी परेशानी और होती है वह है महानगरों में व्यक्ति का व्यस्त होना किसी से कुछ पूछने पर या तो जबाव नहीं मिलता या फिर कोई व्यक्ति अपने मनोरंजन के लिए हम जैसे लोगों को भटका देते हैं। हमारे छोटे से गांव में यदि कोई व्यक्ति कुछ पूछता है तो उसे बताने वाले चार आ जाते हैं।
    खैर ये बातें छोडिए आप की मनपसंद मिठाई सोनपपडी है यह जानकर अच्छा लगा कि मेरी तरह आप भी सोनपपडी के दीवाने हैं बस स्वादिष्ट 😋 सी सोनपपडी बस मुंह में रखो और सारी पिघल कर पेट के अंदर।
    ।। जय माता दी।।

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