Monday, April 27, 2020

शम्भू जी की रेल यात्रा (Train Journey of Shambhu Jee)

शम्भू जी की रेल यात्रा (Train Journey of Shambhu Jee)




रात के आठ बज चुके थे और शम्भू दयाल अपनी पत्नी गौरी दयाल, मित्र विक्की दयाल और उनकी पत्नी विनिता दयाल के साथ रेलवे स्टेशन पहुंचकर ट्रेन का इंतजार कर रहे थे। अभी गाड़ी आने में करीब डेढ़ घंटे का ज्यादा का समय बाकी था। इस डेढ़ घंटे के समय को शम्भू दयाल जी ने यहां तक आने के बस के सफर की दास्तान छेड़ दी जो कुछ खुशी और कुछ गम लिए हुई थी। हुआ ये था कि शम्भू बाबू घर से इतना समय लेकर चले थे कि शाम से पहले ही उनको स्टेशन पहुंच जाना चाहिए था पर कुछ बस वालों की चालाकी और कुछ यातायात की दुश्वारियों के कारण वो अपने द्वारा तय किए गए समय से करीब 3 घंटे की देर से यहां तक पहुंचे थे।

शम्भू जी अपने गांव से निकले और अपने शहर तक तो बड़े आराम से पहुंच गए। वहां से बड़े शहर मतलब कि जहां से ट्रेन थी वहां की बस लेनी थी और बस स्टेशन पहुंचते ही एक खाली बस भी मिल गई। शम्भू जी खाली बस देखकर बहुत खुश हुए क्योंकि वो एक साथ 10 लोग थे तो बिना अगली बस का इंतजार किए ही उनको सभी के लिए मनपसंद सीट वाली मिल गई थी। अब खुशियों का क्या वो तो पल भर में ही जाने वाली थी, बस का चालक बस को स्टेशन से निकालकर एक किलोमीटर दूर बाईपास पर ले जाकर खड़ा कर दिया और कहने लगा कि यहां से मेरी दूसरी बस आएगी सब उसमें बैठ जाइएगा। पूछने पर मालूम पड़ा कि जिस बस को जाना है अगर वो स्टेशन जाती तो उसका समय कट चुका होता क्योंकि वो अपने समय से दो तीन मिनट लेट हो जाती और इसी कारण से इस बस वाले ने स्टेशन से सवारियां ले ली और यहां उस बस में बैठाएगा।

दो-तीन मिनट दूसरी वाली बस जी आ गए और लेकिन उसमें आधी सीटें पहले से भरी हुई थी जिस पर शम्भू जी ने जाने से मना कर दिया। कुछ लोगों ने समझाया कि अब यहां से आप सारा सामान और सबको लेकर फिर से स्टेशन जाएंगे तो उतना परेशान होने से अच्छा है थोड़ी दिक्कत सहते हुए इसी बस से चले जाइए, पर शम्भू जी अपनी जिद पर अड़े रहने वाले किसी की बात नहीं माने और कहा कि कोई परेशानी नहीं होगी क्योंकि हम अकेले बस स्टेशन जाएंगे और सबके लिए सीट लेकर आएंगे क्योंकि चार घंटे का सफर है तो दिक्कत क्यों सहें। उनकी इस बात को दूसरे लोगों ने भी सुना और कहा कि जब आप जाएंगे तो मेरे लिए भी सीट लेकर आइएगा और इसी तरह से अधिकतर लोगों ने यही किया। अब उस बस वाले की दुर्गति हो गई और कोई भी सवारी उसमें नहीं बैठी। अब शम्भू जी दो-चार साथियों के साथ स्टेशन आए और एक खाली बस जो स्टेशन के गेट पर आकर लगी ही थी उसे बताया कि हमारी इतनी सवारी बाईपास पर खड़ी है और बस वाला एक साथ इतनी सवारियों के नाम सुनते ही चल पड़ा और बाईपास पर बस लाकर खड़ा कर दिया। सभी लोग बस में सवार हुए और बस आगे चल पड़ी।

तीन चौथाई सफर तो बड़े आराम से पूरा हो गया और बड़ा शहर आने ही वाला था कि पता लगा कि आगे हाइवे पर लंबा जाम है। अब जाम के नाम से शंभू जी की आंखों के आगे अंधेरा छाने लगा क्योंकि यहां पर जाम लगने का मतलब है कि एक घंटे का सफर पांच पांच घंटे में पूरा होता है, और कभी कभी ट्रेन भी चली जाती है और आदमी स्टेशन नहीं पहुंच पाता है। पर बस चालक की सूझबूझ और चालाकी से कभी सड़क पर कभी नीचे उतारकर तो कभी फिर से सड़क पर चलाते हुए बस केवल दो घंटे देर करके ही अपने गंतव्य पर पहुंच गई। और उसके बाद शम्भू जी वहां से रेलवे स्टेशन भी पहुंच गए। कुछ लोगों को उसी शहर में रहना था और कुछ लोगों को दूसरे स्टेशन से दूसरे जगह की गाड़ी पकड़नी थी तो वो सभी लोग अपने अपने गंतव्य की ओर चले गए और शम्भू जी अपनी पत्नी गौरी, दोस्त विक्की और उनकी पत्नी विनीता के साथ रेलवे स्टेशन पहुंच गए थे। इन्हीं बातों को याद करते हुए कब ट्रेन के आने का समय हो गया पता नहीं चला।

शम्भू जी प्लेटफाॅर्म के किनारे पहुंचकर देखा तो पता लगा कि ट्रेन आउटर सिग्नल को पार करके धीरे धीरे प्लेटफाॅर्म की तरफ बढ़ रही है और देखते ही देखते गाड़ी प्लेटफाॅर्म पर पहुंचकर रुक गई। शम्भू जी की ये ट्रेन सप्ताह में एक दिन चलने वाली ट्रेन थी इसलिए ज्यादा भीड़ नहीं थी और बिना किसी दिक्कत के शम्भू जी अपनी निर्धारित कोच के निर्धारित सीट पर पहुंच गए। शम्भू की चार सीटें थीं जिसमें से आमने सामने दो बीच वाली और दो ऊपर वाली सीटें थीं। सीट के पास पहुंचते ही शम्भू जी ने देखा कि नीचे वाली दोनों सीटों पर दो लोग सोए हुए हैं और बीच वाली एक सीट पर भी एक व्यक्ति चैन की वंशी बजाते हुए सोया हुआ है।

उस चैन से वंशी बजाकर सोते हुए आदमी को परेशानी न हो इसलिए शम्भू दयाल ने लाइट भी नहीं जलाया और प्लेटफाॅर्म पर जलते हुए बल्बों की रोशनी जो खिड़की से आ रही थी उसी रोशनी में अपना सामान सही से रखने लगे और अभी सामान रख भी नहीं पाए थे कि गाड़ी अपने गंतव्य की ओर सीटी बजाते हुए चल पड़ी। गाड़ी के प्लेटफाॅर्म से आगे बढ़ते ही कोच में अंधेरा छा गया। अब अंधेरा होते ही शम्भू जी ने लाइट जलाया और लाइट जलते ही चैन की वंशी बजाकर सोते हुए व्यक्ति की नींद में खलल पड़ा और वो चिल्ला उठा कि कैसे कैसे लोग हैं बेतलब का लाइट जला रहे हैं। उन महोदय की बात पर शम्भू जी ने कहा कि हम सामान रखकर लाइट बंद कर देंगे और आपको दिक्कत नहीं होगी, लेकिन वो आदमी लेटा हुआ बिढ़नी (ततैया) की तरह भनभनाने में लगा रहा और शम्भू दयाल उसकी बात को अनुसना करके सामान रखने में लगे रहे।

सामान रखने के बाद शम्भू दयाल ने अपने साथ चल रहे तीनों लोगों को तीन सीट पर सो जाने के लिए कहा और खुद टीटी का इंतजार करने लगे कि अभी सो भी गए तो टीटीई आकर जगाएगा ही। करीब दस मिनट बाद टीटी भी सीट नंबर पुकारता हुआ आ गया। टीटीई के समीप आते ही शम्भू जी अपना टिकट निकालने लगे तो उदारता का परिचय देते हुए टीटी महोदयई ने केवल सभी लोगों का नाम पूछा और आगे बढ़ गए। टीटी के जाते ही शम्भू जी सीटों का मुआयना करने लगे तो पता लगा कि एक एक नीचे वाले सीट पर एक बुजुर्ग महिला सोई हुई और दूसरे नीचे की सीट पर एक लड़की सोई हुई है और एक बीच वाली सीट जो कि शम्भू दयाल की ही सीट थी उस पर वही आदमी आदमी सोया हुआ है जो चैन की वंशी बजाते हुए सोया था लेकिन लाइट जलने से उसकी वंशी की आवाज गुम हो गई थी उसका ततैया की तरह भनभनाना शुरू हो गया था।

अब उस ततैये जैसे इंसान को शम्भू जी अपनी सीट पर से हटाने की हिम्मत जुटाने लगे और हिम्मत करके बोले कि चचा आपकी सीट कौन सी है तो ततैया बाबू बड़ी ही घूरते हुए अंदाज में जवाब दिया कि मेरी नीचे वाली सीट है। शम्भू जी ने कहा कि नीचे तो कोई और कब्जा किए हुए हैं तो जवाब मिला कि वो मेरी भतीजी है और अंत समय में उसने कहा कि हम भी जाएंगे तो उसका वेटिंग टिकट ले लिया और अब वो भी साथ में जा रही है। अब शम्भू जी बोले कि चचा ये मेरी सीट है मुझे सोना है आप मेरी सीट छोड़ दीजिए और इस पर वो बिदक गए और शम्भू जी पर बमकने लगे कि हम इस ट्रेन को ऐसे भी पसंद नहीं करते हैं, ये तो मजबूरी है इसलिए इससे जा रहे हैं वरना हम तो फलाने ट्रेन से जाते हैं। फिर शम्भू जी ने उसे बताया कि वो भी मजबूरी में ही इस गाड़ी से जा रहे हैं वरना तो वो भी फलाने गाड़ी में ही फलाने श्रेणी में जाते हैं और हर जाने वाला मजबूरी में ही दूसरी गाड़ी में सफर करता है। मजबूरी में ही हवाई जहाज से उड़ने वाला भी बैलगाड़ी पर भी जाता है और बैलगाड़ी से चलने वाला भी जरूरत पड़ने पर उड़कर जाता है। वरना शौक नहीं होता किसी को ऐसे ही परेशान होने का।

खैर वो किसी तरह से सीट से हटे और नीचे सो गए। उसके बाद शम्भू जी अपनी सीट पर सो गए। सुबह उठते ही उस ततैया बाबू ने शम्भू जी को एक बार फिर से हड़काना शुरू किया कि भाई सुबह हो गई है अब सीट खोल दो क्योंकि लोग बैठेंगे। ततैया जी के जगाने पर शम्भू जी ने आंख खोली तो देखा कि ट्रेन ऐसे ही कहीं रास्ते में रुकी हुई और पता चला कि अपने समय से करीब तीन घंटे की देर से चल रही है। अब ततैया जी के टेढ़ी बातों का जवाब शम्भू जी ने बड़े ही शालीनता से दिया कि चचा बस दस-पांच मिनट रुक जाइए हम सीट खोल देते हैं। इस पर ततैया स्वामी भड़क गए कि लोग बैठने के लिए परेशान है और आपको पांच-दस मिनट की पड़ी है, चलिए सीट खोलिए लोग बैठेंगे। इस पर अब शम्भू जी भी थोड़ा सा भड़के कि आखिर वो कौन लोग हैं जो यहां बैठने के लिए परेशान हो रहे हैं क्योंकि 6 में से चार सीट मेरा ही है और एक सीट वाले अभी सोए हुए ही हैं तो बैठने वाले लोग कहां बचे केवल आप ही न तो क्या पांच मिनट रुक नहीं सकते। इस पर ततैया जी बोले कि हमें बैठना है, मुझे दिक्कत हो रही है, और उसके इस बात से शम्भू जी पूरी तरह बिगड़ गए कि जाइए अब आपको जो करना है कीजिए, अब ये सीट दिल्ली पहुंचकर ही खुलेगी और आपको जहां जो करना है कर लीजिए। उसके बाद ततैया बाबू खामोश होकर बैठ गए। खैर दो-तीन घंटे की देर से चलती हुई ट्रेन घिसटते-रेंगते लगभग आधी दूरी का सफर तय करके एक बड़े से स्टेशन पर जाकर रुक गई।

स्टेशन पर पहुंचते ही शम्भू दयाल अपनी सीट से उठे कि जरा बाहर का नजारा देख लेते हैं फिर यहां से ट्रेन के खुलते ही सीट खोल देंगे और शम्भू जी प्लेटफाॅर्म पर घूमने चले गए। पांच मिनट बाद गाड़ी जब वहां से चलने लगी तो शम्भू जी भी अपनी सीट के पास पहुंच गए। सीट पर पहुंचते ही देखा कि एक तरफ का बीच वाला सीट खुला हुआ है और ततैया बाबू आराम से बैठे हुए हैं। जैसे ही शम्भू दयाल अपनी सीट के पास पहुंचे वैसे ही ततैया चचा ने फटाक से कहा कि देखा आपने तो कहा था कि ये सीट दिल्ली से पहले नहीं खुलेगी, और हमने आपकी सीट ही खुलवा दिया। इस पर शम्भू जी ने कहा कि ठीक है हम फिर से लगा देते हैं लेकिन पत्नी गौरी दयाल और दूसरे लोगों के समझाने पर शम्भू जी मान गए और ट्रेन में घुमक्कड़ी का आनंद लेने लगे और कुछ कुछ देर में घूम-घाम कर अपनी सीट पर आते और दूसरी तरफ चल पड़ते।

करीब घंटे भर बाद जब शम्भू दयाल जी अपनी सीट के पास आए तो देखा कि विनीता दयाल भी नीचे बैठी हुई हैं और उनकी ऊपर की सीट खाली है। अब शम्भू जी ने भी खाली सीट देखकर थोड़ा आराम करने का सोचा और ऊपर के खाली सीट पर जाकर पसर गए। कुछ देर बाद शम्भू दयाल की पत्नी गौरी दयाल जो कि दूसरे ऊपर वाले सीट पर विराजमान थीं वो नीचे उतरने लगीं और उनके हाथ से बोतल छूट गया जो सीधा नीचे फर्श पर आ गिरा। बोतल गिरते शम्भू जी ने साथी विक्की से जो नीचे ही बैठे थे उनसे बोतल मांगा और देखने लगे कि कहीं बेचारे बोतल महाराज को चोट-वोट तो नहीं लगी, हाथ-पैर तो नहीं टूटा या माथा तो नहीं फूटा। शम्भू जी बोतल का डाॅक्टरी परीक्षण-निरीक्षण कर ही रहे थे कि ततैया सर गौरी दयाल पर चिल्ला उठे कि बोतल को इस तरह से गिराना जरूरी था क्या, हाथ में भी तो दे सकते थे। शम्भू जी ने समझाया कि चचा बोतल गिराया नहीं गया है, हाथ से छूट गया इसलिए गिर गया। पर ततैया सर मानने के लिए तैयार नहीं और उनका चिल्लाना बढ़ता ही जा रहा था, दूसरे दूसरे लोग भी ततैया बाबू को दूसरे जगह से आकर समझा रहे थे पर वो मानने के लिए तैयार ही नहीं, बिल्कुल चिल्ला चिल्ला कर नसीहत देने लगे गए, मतलब कुछ का कुछ बोले जा रहे थे पर और शम्भू दयाल चचा चचा कहकर उनको शांत रहने के लिए कह रहे थे पर ततैया महाराज शांत ही नहीं हो रहे थे।

उनको चिल्लाता देख उनकी भतीजी जो केवल ये सब देख रही थी ततैया बाबू को बोली कि बड़े पापा आप चुप क्यों नहीं रहते, ऐसे क्यों कर रहे हैं, अगर बोतल गिर गया और चाहे गिरा भी दिया गया तो न तो आपको चोट लगी, न आपके ऊपर गिरा, न आप भींगे फिर भी आप ऐसा क्यों कर रहे हैं पर बेचारे ततैया बाबू मानने को तैयार ही नहीं। आखिर शम्भू दयाल भी कब तक शांत रहते। उनकी इन नसीहतों को सुनते सुनते शम्भू दयाल का दिमाग भी गरम हो गया और गरम दिमाग के साथ भी शम्भू जी ने ठंडे दिमाग से ऊपरी बर्थ पर बैठे बैठे ही ततैया बाबू को कहा कि चचा आप जो इतना चिल्ला रहे हैं न जो आप ठीक नहीं कर रहे हैं और हमें इतना सुनने की आदत नहीं है, इतने में हम लोगों को जी भर कर कूट देते हैं और आप कल रात से नौ बजे अभी जो टांय-टांय शुरू किए हैं वो हम केवल इसलिए सुन रहे हैं और माफ कर रहे हैं कि एक तो आप उम्र में हमसे बहुत बड़े हैं। अगर कोई हमारे उम्र का आदमी होता तो अब तक आपको घसीट कर हम दूसरे डिब्बे में पहुंचा दिए होते। आप इतने बड़े हैं और हम आदरस्वरूप आपके गलत-सलट बातों का भी सही जवाब दे रहे हैं वरना ट्रेन के हमारे किस्से अजब-गजब ही होते हैं। इसलिए अब भी शांत हो जाइए वरना हमें भी चिल्लाना आता है और हम चिल्लाने लग गए तो आपको ट्रेन से कूद कर भागना पड़ेगा पर हम ऐसा करेंगे नहीं क्योंकि आप बड़े हैं। पर ततैया बाबू तो समझने के लिए तैयार ही नहीं थे। शम्भू दयाल जी उनको समझा रहे थे और ततैया बाबू चिल्ला रहे थे। आखिरकार शम्भू दयाल ने कहा कि चचा, आपके इतना चिल्लाने और उधम मचाने के उपरांत अब भी मैं आपसे हाथ जोड़कर विनती कर रहा हूं कि आप शांत रहिए। इस तरह से करके क्यों आप अपना और दूसरे का दिमाग खराब कर रहे हैं। पर वो मानने के लिए तैयार ही नहीं हो रहे थे। पूरे कोच के लोगों में से दर्जन भर लोग ततैया बाबू को समझा चुके पर वो नहीं माने।

आखिरकार शम्भू दयाल के भी सब्र का बांध टूटा और वो सीट पर से कूद कर नीचे आ पहुंचे। शम्भू दयाल जिस उमंग और उत्साह से सीट से कूदे थे तो उसे देखकर तो यही लगा था कि अब ततैया का डंक निकाल लिया जाएगा, पर नीचे आते ही दो चार लोगों ने शम्भू दयाल को रोक लिया। शम्भू जी को इस स्थिति में देखकर ततैया जी अपना डंक फैलाने से पहले ही समेट कर शांत हो गए और बिल्कुल चुप हो गए। उसके बाद शम्भू जी ने ततैया बाबू को संबोधित करते हुए कहा चचा अब आगे अगर आपने एक शब्द भी अपने मुंह से निकाला तो हम भूल जाएंगे कि आप हमसे उम्र में बहुत बड़े हैं। अगर आजीवन आप अपने आपने आप को स्वयं के ही सामने शर्मिंदा होने से बचना चाहते हैं तो ये जो 15 घंटे से अपनी बेसुरी आवाज से मेरे कान में दर्द दे रहे हैं उसे उस पर काबू कीजिए, वरना ठीक नहीं होगा। उसके बाद ततैया महाराज खिड़की के पास जाकर बैठ गए और गाड़ी के बाहर जो देखना आरंभ किया कि बस बाहर ही देखते रहे। उस समय से ट्रेन के अपने गंतव्य तक पहुंचने में बिना रुके हुए चलने पर भी करीब 5 घंटे लगते और ट्रेन जी को बीच में कहीं रुकना भी नहीं था फिर भी बार बार रुक रुक कर चल रहे थे और रुक रुक कर चलते हुए देर पर देर हुए जा रहे थे। उधर ट्रेन जी रुक रुक कर देर पर देर करके चलते रहे और ईधर ततैया चचा बस खिड़की से बाहर ही देखते रहे। गाड़ी चलती रही चचा बाहर देखते रहे; गाड़ी लेट होती रही चचा बाहर देखते रहे; गाड़ी चलती रही चचा बाहर देखते रहे और गाड़ी लेट होती रही, गाड़ी चलती रही चचा बाहर देखते रहे और गाड़ी लेट होती रही और चलती रही और चचा बाहर देखते रहे। इतना सब कुछ होने के बाद अंत में 8 घंटे की देरी से ट्रेन अपने गंतव्य पर पहुंच गई और इस तरह शम्भू दयाल जी का सफर पूरा हुआ।

अभ्यानन्द सिन्हा

नोट : इस कहानी का संबंध एक आंखों देखी सच्ची घटना से है और पात्रों के नाम काल्पनिक हैं।



No comments:

Post a Comment