Sunday, July 4, 2021

मैं और मेरी कहानी (Main aur Meri Kahani)

मैं और मेरी कहानी (Main aur Meri Kahani)



मैंने अपने जीवन के पहले कुछ साल और शायद उसके बाद के कुछ साल और फिर उसके बाद के कुछ और साल एक गूंगे-बहरे आदमी की तरह बिताया। बचपन से ही पुराने ढंग के पोशाक पहनना पसंद है जैसे कोई पाषाण काल का आदमी हूं और जैसा कि मैं सोचता हूं मैं उसमें बुरा नहीं लगता हूं। .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... .... मैं किसी गुप्त आग में जलना, किसी अन-अनुमेय कुएं की गहराई में डूबना तो चाहता था लेकिन उस आग में अपने को फेंकने या कुएं में कूदने का साहस मुझमें नहीं था और न ही कोई ऐसा नहीं मिला जो मुझे उस आग में धकेल दे इसलिए मैं बिना उस ओर ताके किनारे पर ही चलता।

यही बात तब होती जब मैं बड़े लोगों या मामूली या रेलवे या पोस्ट आॅफिस के कर्मचारियों यके सामने पड़ता। मैं घर मेें बाऊजी और उनके उनके मित्रें की बातें सुनता रहता लेकिन अपने घर खाना खाने वाले लोगों से अगर अगले दिन मेरी मुलाकात हो जाती तो मैं अभिवादन भी नहीं कर सकता था। उनसे बचने के लिए कभी-कभी तो मैं गली के दूसरी तरफ चला जाता और इतना ही नहीं अगर खेतों की तरफ भी वो लोग दिख जाते तो दूर दूर घूमते हुए कई किलोमीटर का फासला तय करके घर पहुंचते।

कहते हैं शर्म आत्मा की ऐंठन है, एक ऐसी विशेष श्रेणी जिसके आयाम केवल अकेलेपन में खुलते हैं। यह एक पीड़ादायक चीज है जिसमें हमारा एक हिस्सा जीवन से अलग हो अपने में सिमट जाता है। यह उन बहुत सी चीजों में से एक है जिनसे मनुष्य बना है। यह ऐसी है जो बाद में आत्म यानी स्वयं के स्थापन की ओर ले जाती है।

मेरा बारिस-प्रेम का पिछड़ापन, अपने में बंद होने की आदत कुछ ज्यादा ही दिनों तक रही जो अब भी समानांतर रूप में साथ ही चली जा रही है। गांव की स्कूल से जब मैं शहर के महाविद्यालय में पहुंचा तो वहां भी मेरा एकाकीपन वैसे ही विद्यमान रहा। और तो और जब मैं देश की राजधानी में आ गया तो धीरे-धीरे इक्का-दुक्का मित्र बने पर मेरा एकाकी स्वभाव ने उनसे घुलने-मिलने से रोक लिया। मेरे लिए किसी को भी मित्र बनाकर उसके साथ चलना बहुत ही मुश्किल था।

मैं उस समय किसी भी मानवता के प्रति बहुत जिज्ञासु नहीं था। मैं अपने से कहता कि इस दुनिया में किसी को भी जानना तो संभव नहीं है फिर भी कुछ खास लोगों के बीच जाना जा सकता है, पर फिर भी पता नहीं क्यों दूरी ही बनी रही। मैं कहानी और कविताएं पढ़ता तो उनके पात्र मुझे अपनी ओर खींचते और वो खिंचाव इतना होता कि बहुत जल्दी ही टूट भी जाता। मुझे कभी किसी को सुप्रभात, शुभरात्रि कहने में भी कोई रुचि नहीं रही। पता नहीं क्यों ऐसा लगता कि ये सुप्रभात और शुभ रात्रि कहने वाले किसी साधु-जोगी-भरथरी की तरह कोई चोगा पहने हुए से डरावन लगते।

उस समय जो दो व्यक्तित्व मुझे पसंद थे उनमें से एक थे शिव और दूसरे बुद्ध। वे दोनों ही मुझ निठल्ले के जीवन का सुंदर आदर्श थे जो मैं स्वयं जीना चाहता था। कुछ समय बाद बात है कि तब सर्दियों के मौसम में मैं पहली बार किसी ऐसे ऐसे घर में गया जो कि अंदर से गर्म था, हल्का दुधिया प्रकाश और फर्नीचर की भरमार वाला था। दीवारें रंग-बिरंगी जिल्दों वाली किताबों से भरी हुई, जिसकी मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था। मैं किताबों को यूं ही देख ही रहा था कि एक मधुर ध्वनि कानों में गूंजी थी कि अगर आपको कोई किताब पंसद है तो आप उसे ले जाइए और पढि़ए और यही क्रम चालू रखिए। मैं जब भी उनके घर जाता तो पता नहीं मुझमें एक अदृश्य ऊर्जा का संचार होता और वहां जाते ही मुझे एक खुशी का अनुभव होता। मैं उनके घर से वापस आते समय बहुत खुश होता जिसे देखते हुए वे मुझे फिर बुलाते।

अपने जीवन की पहली पेंटिंग भी मैं उनके ही घर पर देखा। उन्हीं पेंटिंगों मंे से एक पेंटिंग किसी सुंदर, मनोहर और मनभावन वादियों का था और उसे देखकर हमने पूछा था कि ये कहां की पेंटिंग हैं तो उन्होंने कहा था कि बस यूं ही ये पेंटिंग उनके एक मित्र ने उनको उपहारस्वरूप दिया है और तभी से वो दीवार की शोभा बढ़ा रहा है। मैं जब भी उनके घर जाता तो पता नहीं क्यों उस पेंटिंग को अपनी नजरों को तिरछा करते हुए उस पेंटिंग को देखता। उनके घर में मेरा आना-जाना बिना किसी रोक-टोक के जारी रहा जो कई सालों तक अनवरत चलता रहा और मैं उनके घर बेरोक-टोक आता-जाता रहा और फिर अचानक एक दिन .........................।

फोटो : मध्यमहेश्वर के रास्ते में कहीं (Anywhere way to Madhyamaheshwar)

2 comments:

  1. sir aapne aage likha hi nhu, humko jigyasa ho rhi h, apna contact no. dijiye plz

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    1. धन्यवाद अरुण जी।
      आगे का भाग लिखा था लेकिन किसी कारण वो डिलीट हो गया फिर पता नहीं क्यों लिखने का मन ही नहीं किया।

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