तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आइए हम आपको एक ऐसे सफर पर ले चलते हैं जिसमें न तो कोई मंजिल न ही कोई पड़ाव है, अगर कुछ है तो वो है अनजान, खतरनाक और डरावने रास्ते। जहां कोई अपनी मर्जी से जाना नहीं चाहता, बस कोई भटकाव ही किसी इंसान को उस रास्ते पर ले जा सकता है और ऐसा ही कुछ हम लोगों के साथ हुआ। अब तक आपने देखा कि मौसम कि इतनी दुश्वारियां और परेशानियां झेलते हुए हम तुंगनाथ मंदिर तक पहुंचे। मंदिर के पास पहुंचते ही पता चला कि आज ग्रहण है इसलिए अब मंदिर बंद हो चुका है जो कल सुबह 5ः30 बजे खुलेगा। हम लोगों के लिए यह भी एक मुसीबत के जैसा ही था कि तीन दिन का सफर करके हम लोग यहां तक आए और जिस चीज के लिए आए वही चीज न मिल पाया। थक-हार हमने यहीं रुकने का प्लान बनाया। अब यहां बैठ कर समय बर्बाद करने से अच्छा हमने चंद्रशिला जाने की योजना बनाई। चंद्रशिला समुद्र तल से लगभग 4000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। तुंगनाथ जी का मंदिर लगभग 3600 मीटर की ऊंचाई पर है और चंद्रशिला करीब 4000 मीटर की ऊंचाई पर है और दोनों स्थानों के बीच की दूरी करीब 1.5 किलोमीटर है। अब इन आंकड़ों पर गौर करें तो चढ़ाई बहुत मुश्किल है। वैसे भी तुंगनाथ से चंद्रशिला जाने का कोई रास्ता नहीं बना है, बस कुछ जुनूनी लोगों के आने-जाने से कुछ निशान बन गए हैं और वही रास्ता है। बरसात के कारण वो रास्ते भी न जाने कितने फिसलन भरे हुए हो गए होंगे इसका पता तो वहां जाकर ही लगेगा। जाने से पहले भी बहुत सोच विचार करना पड़ रहा था कि अगर किसी कारण से फिसलन भरे रास्तों पर गिर गए और भीग गए तो हमारे पास पहनने के लिए अलग से कोई कपड़े नहीं हैं क्योंकि हमारा सारा सामान नीचे चोपता में ही था। हम लोगों ने जो कपड़े पहन रखा था उसके अलावा हम लोगों के पास तौलिया के अलावा और कुछ नहीं था, फिर भी हम सबने एक मत से चंद्रशिला जाने के लिए तैयार हो गए। अचानक ही धीरज और सुप्रिया जी ने जाने से मना कर दिया तो हम मैं, बीरेंद्र भाई जी, सीमा जी और राकेश जी ही चंद्रशिला की तरफ रवाना हुए।
3ः30 बज चुके थे और हम लोगों ने समय बर्बाद नहीं करते हुए जल्दी से निकलना ही उचित समझा। अभी बरसात भी पूरी तरह से बंद थी पर बादलों का बसेरा अभी भी वैसे का वैसा ही बना हुआ था। हम लोगों ने मंदिर के पुजारी से चंद्रशिला जाने के रास्ते के बारे में पूछा तो उन्होंने रास्ता बता दिया और कहा कि बहुत दिनों से उधर कोई गया नहीं है इसलिए आप लोग सावधानी से जाइएगा और अंधेरा होने से पहले आ जाइएगा। चंद्रशिला का रास्ता मंदिर के बगल से ही जाता है तो हम चारों भी उसी रास्ते पर चल पड़े। चंद्रशिला जाने के रास्ते के बारे में कहीं से इतनी जानकारी मिली थी कि मंदिर से आगे बढ़ने पर कुछ दूर चलने पर ही एक बड़ी सी चट्टान है और वहीं से बाईं तरफ पीछे की ओर एक रास्ता है वही चंद्रशिला चोटी तक जाता है। साथ ही ये भी पता था कि पूरा ही रास्ता खड़ी चढ़ाई वाला है और कहीं भी ढलान या समतल रास्ता नहीं है। हम लोग ऐसे ही रास्ते को निहारते हुए आगे बढ़ने लगे। अभी कुछ ही दूर गए कि एक बार फिर से झमाझम बरसात आरंभ हो गई।
एक तो खूब तेज बरसात और ऊपर से धुंध और घना कोहरा ऐसा कि आगे रास्ता तक अच्छी तरह दिख नहीं रहा था। हम लोग चलते रहे और कब चंद्रशिला जाने वाले रास्ते को अनदेखा करते हुए आगे बढ़ गए पता ही नहीं चला। करीब दस मिनट तक बरसात के साथ चलते रहे फिर बरसात ने हम पर रहम किया और बरसना बंद हो गया। हम लोग खुश हो गए कि अच्छा हुआ कि बरसात बंद हो गई और हम लोग आराम से चंद्रशिला पहुंच जाएंगे। ऐसे ही चलते हुए हम करीब 500-600 मीटर चले होंगे तो रास्ता नीचे ढलान की तरफ जाने लगा। मन में एक ही बात आती और हम सब आपस में इस बारे में बात भी करते कि जहां तक सुना है उस हिसाब से चंद्रशिला के रास्ते में कहीं भी ढलान नहीं है पर हम लोग तो नीचे की तरफ चले जा रहे हैं और इसका अर्थ ये है कि हम गलत रास्ते पर जा रहे हैं। फिर आपस में ही ये बात भी करते कि और तो कोई रास्ता है ही नहीं तो गलत रास्ते पर कैसे जाएंगे हम लोग सही चल रहे हैं और फिर चलने लगते। ऐसे ही हम सब बार बार इस बात को दुहराते और फिर गलती करते हुए भी नीचे की तरफ चलते जाते।
ये जानते हुए भी कि चंद्रशिला जाने वाला रास्ता चढ़ाई वाला है और हम लोग जिस रास्ते पर बढ़े जा रहे हैं वो नीचे की तरफ जा रही है, फिर भी हम लोग बस चलते रहे। रास्ता धीरे धीरे बेहद खतरनाक और संकरा होता जा रहा था। कुछ दूर चलते चलते रास्ते के नाम पर करीब एक से डेढ़ फुट चैड़ी पगडंडी जैसा ही रास्ता बच गया था। हम सबने एक बार फिर से ये बात दुहराई कि लगता है हमने गलत रास्ता पकड़ लिया है, फिर ये भी बोले कि अगर ये गलत रास्ता है तो सही रास्ता कौन सा है। अब तक तो हम लोगों को कोई और रास्ता दिखा ही नहीं कि जिस पर न जाकर हम ईधर आ गए तो ये गलत कैसे हो गया। अतः हम सब खुद ही निष्कर्ष निकाल लेते कि नहीं जी हम सब सही जा रहे हैं। हम सब नीचे की तरफ चलते रहे तभी अचानक एक जगह बीच रास्ते पर नाग देवता बैठै हुए मिले। इस सुनसान और डरावने रास्ते पर चलते हुए नाग देवता को देखते ही मन में सिरहन दौड़ गई पर पर बचपन गांव में बिता था तो ऐसे दृश्यों को देखने की आदत बन चुकी थी इसलिए बिना डरे हुए हम आगे बढ़ते रहे। ऐसे ही चलते हुए करीब 200 मीटर भी नहीं चले होंगे कि फिर से एक नाग देवता बैठे हुए मिले। अब हम लोगों का मन आशंकित होने लगा था कि हो न हो हम गलत रास्ते पर जा रहे हैं, फिर भी हमारा मन नहीं माना और एक दूसरे में उत्साह जगाते हुए हम आगे बढ़ते रहे।
अभी कुछ ही दूर और और चले थे कि फिर से मतलब कि तीसरी बार नाग देवता के दर्शन हुए और इस बार वो बीच रास्ते पर आसन लगा लिए और हटने का नाम ही नहीं ले रहे थे। जब हम लोगों ने पास ही पड़े कुछ लकड़ी के टुकड़े उठाए तो वो हमारा रास्ता छोड़ बगल से निकल लिए। इतना कुछ होने के बाद हम सब बिल्कुल ही चैंकन्ने होकर आगे बढ़ने लगे कि कहीं अगर गलती से सांप के ऊपर पैर पड़ गया तो वो बिना डंसे रहेगा नहीं और अगर ऐसा हो गया तो शायद जान बचाना भी मुश्किल होगा। सचेत होकर हम लोग चलते हुए एक ऐसी जगह पर पहुंच गए थे जहां से रास्ता मुड़ने के बाद बिल्कुल ही नीचे की तरफ जा रही थी। नीचे देखने पर डिस्कवरी चैनल पर दिखाए जाने वाले जंगलों को देखने पर जैसा प्रतीत होता है वैसा ही दृश्य सामने था। इन दृश्यों को देखकर हमारे कदम ठिठक गए और हम रुक कर आपस में बात करने लगे कि हो न हो हम जरूर ही गलत रास्ते पर आ चुके हैं। फिर भी हमारा मन नहीं मान रहा था पर इससे आगे जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी। आपस में यही बात करते रहे कि चंद्रशिला का रास्ता तो चढ़ाई वाला है और हम सब ढलान पर चलते हुए यहां तक आ गए। अब तक प्राप्त जानकारी के अनुसार तुंगनाथ मंदिर से चंद्रशिला तक पहुुंचने में 45 मिनट से ज्यादा नहीं लगते और हम लोग एक घंटे तक चलते रहे और चंद्रशिला तक नहीं पहुंचे। लोगों के बताए अनुसार करीब 10 मिनट चलने के बाद चंद्रशिला की चोटी दिखनी आरंभ हो जाती और हमारे घंटे भर के सफर के बाद चोटी नहीं दिखी। अतः ये तो निश्चित है कि हम गलत रास्ते पर हैं और अब हमें यहां से ही वापस हो जाना चाहिए और कुछ फोटो लेने के बाद हम सब आधे मन और भारी कदमों से वापस हो लिए।
वापसी करते हुए करीब 100 मीटर चलने के पश्चात हम लोगों ने आपस में यही बात किया कि चंद्रशिला का रास्ता चढ़ाई वाला है तो क्या पता ऐसे ही लोग कहीं से चढ़ जाते होंगे और बरसात और धुंध के कारण हमें चंद्रशिला नहीं दिख रहा तो यहीं से कहीं से चढ़ना आरंभ कर देते हैं। बहुत सोच विचार कर कभी हां, कभी ना, फिर कभी हां, फिर ना करते हुए अंततः ये फैसला किया कि यहीं से किसी तरह चढ़ जाते हैं। कभी कोई कहते कि चढ़ तो किसी तरह जाएंगे पर उतरना मुश्किल है। कोई कहते कि अरे जब चढ़ जाएंगे तो उतरना क्या मुश्किल है किसी तरह उतर ही जाएंगे। अंततः ऐसे ही बिना रास्ते के ही हम सब पहाड़ पर चढ़ने के लिए तैयार हो गए। पहले ये फैसला किया गया कि कोई एक आदमी करीब 50 से 100 मीटर तक चढ़े और ठीक-ठाक रहा तो सब मिलकर पीछे से चलना आरंभ कर देंगे। अब इस खतरनाक का शुभारंभ मैंने ही किया और बिना रास्ते के ही चढ़ने लगे और करीब 50 से 60 मीटर ऊपर जाकर हमने ईशारा किया कि चलिए हम लोग ऐसे ही चढ़ जाते हैं। अब उन लोगों ने भी सर पर कफन बांधा और कदम आगे बढ़ाया ही था कि इतनी तेज बरसात आरंभ हो गई कि उसके बारे में कुछ कह पाना संभव नहीं है। 35 वर्ष की आयु में हमने इतनी तेज बरसात नहीं देखी थी जितनी तेज बरसात अभी होने लगी थी। इतनी तेज बरसात शुरू होते ही नीचे खड़े साथियों ने केवल इतना ही कहा कि अभय भाई अब और नहीं हम सब यहां से वापस चलते हैं नहीं तो कुछ अनहोनी हो गई तोे ये सफर ही हम लोगों का आखिरी सफर होगा। हमने भी उनकी बात को मानते हुए किसी तरह बहुत मुश्किल से नीचे उतरने की कोशिश करने लगे। अचानक होने वाली इस तेज बरसात के कारण इतनी फिसलन हो गई थी कि हाथ और पैर जमाना एक असंभव सा काम हो गया था। किसी तरह घिसटते-घिसटते नीचे आए और नीचे आकर ही बैठ गए।
दिमाग बिल्कुल सुन्न पड़ चुका था। ऐसा लग रहा था कि ऐसे किसी ने मुझे बर्फ से भरे टब में डाल दिया हो। मेरी सोचने समझने की शक्ति खत्म हो गई थी। करीब 10 मिनट में हम धीरे-धीरे अपनी सामान्य अवस्था में आए और ऊपर देखा तो देखकर ही पूरे बदन में सिरहन दौड़ गई कि ये हम कहां चढ़ गए थे। अगर बरसात थोड़ी देर और न होती और हम कुछ और ऊपर चढ़ जाते तो वहां से उतरना तो संभव हो नहीं पाता और उसके बाद क्या होता इसका कुछ पता नहीं और क्या पता ये हमारा आखिरी सफर ही होता। वैसे जिस समय पहली बार नाग देवता ने हमारा रास्ता रोका था उसी समय हमें वापस हो जाना चाहिए था पर उत्साह में हम आगे बढ़ते रहे और एक बार नहीं तीन बार रास्ता रोकने के बाद भी हम सबने भोलेनाथ के ईशारे को नहीं समझा और वापस आने के बजाय आगे बढ़ते रहे। उसके बाद वापसी करते हुए भी बिना रास्ते के पहाड़ चढ़ने की हमारी कोशिश में बरसात ने व्यवधान उत्पन्न करके हमें रोका। यदि हम पहले ही सचेत होकर वापस हो जाते तो इस समय जो हमारी मनोदशा हो चुकी है वो नहीं होती।
खैर जो होता है अच्छे के लिए होता है और हमारे साथ जो भी हुआ अच्छा ही हुआ। अब हम वापस चले और जिस उत्साह से गए थे उसके उल्ट भारी मन से बिना चंद्रशिला पहुंचे ही वापस चल दिए। जाते समय चंद्रशिला जाने वाला रास्ता पीछे की तरफ से निकलता है इसलिए नहीं उस समय हम नहीं देख पाए थे लेकिन वापसी के समय ये हमें दिख गया। इस रास्ते को देखकर पहले तो हम सब ने यही सोचा कि एक कोशिश करते हैं चंद्रशिला जाने की, पर तेज होती बरसात के कारण हम सबने वहां जाना उचित नहीं समझा और सीधे मंदिर की तरफ बढ़ते रहे। अगर हम चंद्रशिला चले जाते तो जो सूर्यास्त के समय जो नजारा हमें मंदिर के पास दिखा वही नजारा ऊपर से न जाने और कितना खूबसूरत दिखता। तेज होती बरसात के कारण अब तक हम सब लोग पूरी तरह से भीग चुके थे। पहनने के लिए अलग से कोई कपड़ा भी नहीं था। कुछ ठंड और कुछ होने वाली अनहोनी की आशंका से आशंकित होकर हम सब कांप रहे थे। किसी तरह एक घंटे चलकर हम छः बजे वापस मंदिर के पास आ गए। कुछ मिनट हम सब कमरे में रखे कम्बल ओढ़ पर बैठे रहे, फिर जब शरीर कुछ गर्म हुआ तो खाने की तलाश में निकले और वहीं एक दुकान में मैगी खाने के बाद फिर से अपने कमरे में आकर कम्बल में दुबक गए।
हम सब की हालत ऐसी थी कि न निगलते बन रहा था न उगलते। पहने हुए सारे कपड़े भीग चुके थे और पास में कोई और सूखा कपड़ा था नहीं जिसे पहना जा सके। अब आखिरी उपाय यही बचा था कि बेडशीट और दरवाजे में लगे परदे से काम चलाया जाए और हम सबने यही किया। किसी ने बेडशीट पहना तो किसी ने दरवाजे से खोलकर पर्दे को पहना। धीरे धीरे समय बीतता जा रहा था और एक घंटा कब बीत गया कुछ पता नहीं चला, घड़ी देखा तो सात बज चुके थे। जो दो लोग नहीं गए थे हम सब उनको अपनी इस सफर के बारे में बता ही रहे थे कि सहसा बाहर से किसी के बोलने की आवाज सुनाई दी। हमने खिड़की खोला तो सामने जो नजारा दिखा उसे देखकर पहले तो हमारे होश उड़ गए। जिन चीजों के बारे में अब तक टीवी और फिल्मों में देखा करते थे कि और गाना सुना करते थे कि ‘‘आज मैं ऊपर आसमां नीचे, आज मैं आगे जमाना है पीछे’’ और आज ये सब हमारी आंखों के सामने थे।
मौसम बिल्कुल साफ हो चुका था। सूर्यास्त होने वाला था। बादल रुई के ढेर की तरह दिख रहे थे। सामने सब कुछ देखकर भी उस दृश्य पर यकीन नहीं हो रहा था। ऐसा लग रहा था कि हम कोई सपना देख रहे हैं। इन दृश्यों को देखते ही हम सबने सूख रहे गीले कपड़े को पहना और मैदान में आ गए कि ऐसा मौका फिर नहीं मिलने वाला। मेरे पीछे-पीछे बीरेंद्र भाई और सीमा जी भी आ गए। बाकी तीन लोग ठण्ड के कारण कम्बल ओढ़े वहीं बालकनी से इन दृश्यों का लुत्फ लेते रहे। ईधर हम और बीरेंद्र भाई इन दृश्यों के फोटो लेने में पागल हो चुके थे। अब तक सूर्यास्त का समय भी हो चला था और सूर्य की लाल-लाल किरणें जब बादलों पर पड़ रही थी तो एक अलग ही समां बंध रहा था। देखकर ऐसा नहीं लग रहा था कि ये बादल और उस पर पड़ती सूर्य की किरणें है। प्रतीत तो ऐसा हो रहा था कि जैसे दूर कहीं अग्नि-रेखा है। हम फोटो लेते रहे और धीरे-धीरे कब अंधेरा छाने लगा पता नहीं चला। इन दृश्यों मंे हम इतने खो चुके थे कि समय का कुछ पता ही नहीं चला। अब आप कह रहे होंगे कि ऐसा क्या दिख गया जो मैं पागल हुए जा रहा हूं, तो मुझे क्या दिखा वो आप भी जरूर देखिएगा। बिना फोटो देखे इस पोस्ट से दूर मत जाइएगा।
ऐसे ही फोटो खींचते हुए हम लोग कूद-फांद में लगे हुए थे तभी पास की दुकान वाला हम लोगों से खाने के लिए पूछने आया और साथ ही दोनों कमरों में रखने के लिए दो सोलर लालटेन भी लेकर आया था। तुंगनाथ में बिजली नहीं आती है और यहां बिजली की जरूरतें सोलर एनर्जी से ही पूरी की जाती है और अगर सूर्यदेव कुछ दिन नाराज रहे तो फिर मोमबत्तियों का सहारा लेना पड़ता है। खाने में क्या मिलेगा पूछने पर उसने बताया कि केवल खिचड़ी वो भी 100 रुपए की। हमने उसे सब लोगों के लिए खिचड़ी बनाने के लिए कह कर फिर से इन हसीन लम्हों में खो गए। जब तक बिल्कुल अंधेरा नहीं हो गया और दिखना बंद नहीं हो गया तब तक हम फोटो खींचते रहे और जब दिखना बंद हो गया तो कमरे में जाकर कम्बल में फिर से दुबक गए।
ठीक आठ बजे होटल वाले ने खाना खाने के लिए बुलाया और खाना खाने के लिए कमरे से निकले ही थे कि मंदिर के आंगन में पुजारी जी से भेंट हो गई और वो कहीं फोन पर बात कर रहे थे। मैंने उनसे फोन मांगा तो उन्होंने खुशी-खुशी फोन दे दिया। जैसे ही हमने घर फोन लगाया तो फोन आदित्या ने रिसीव किया और जिस चीज की उम्मीद हमने लगा रखा था वही हुआ। फोन रिसीव करते ही आदित्या ने मेरी आवाज पहचानते हुए जो पहला वाक्य बोला ये था कि ‘‘पापाजी मम्मी दो घंटे से बैठ कर रो रही हैं और खाना तक नहीं बनाया है।’’ बेटे को अपनी समस्या से अवगत कराया उसके बाद कंचन को भी समझाया तो मामला शांत हुआ। अब ये हालत है हमारे घर की, चलिए ये हर घर की यही कहानी है। पुजारी जी को धन्यवाद कहते हुए हम खाना खाने चले गए। होटल वाले ने हम सबको बहुत प्यार से खाना खिलाया। हम सब जितना खा सकते थे, पेट भर कर खाया। पैसे देने की बात पर उसने बोला कि कल सुबह जाते समय दे दीजिएगा। उसकी इन बातों से पहले तो हमें यही लगा कि हम लोगों ने थोड़ा और, थोड़ा और करते हुए जो बहुत सारा खिचड़ी खाया है सबका हिसाब अब सुबह देना पड़ेगा। पर ऐसा नहीं हुआ, अगली सुबह जब हम उसे पैसे देने गए तो उन्होंने उतने ही पैसे लिए जितने लेने चाहिए। हमने चार लोगों के लिए खिचड़ी बनाने के लिए बोला था और खाए पांच लोग फिर भी पैसे उन्होंने चार लोगों का ही लिया।
इस समय मौसम बिल्कुल साफ था लेकिन ठंड बहुत हो चुकी थी। जैसा कि पुजारी जी ने दिन में बताया था कि अगर रात में बारिश नहीं हुई तो कमरे के आगे जो खाली घास का मैदान है वहां कई प्रकार के जानवर आएंगे। अब जानवर देखने की उत्सुकता में नींद तो आने वाली थी नहीं। मैं और बीरेंद्र भाई जागते रहे, लेकिन बाकी चारों को नींद अपने आगोश में ले लेने के लिए आतुर था। ये सब देखकर मैं और बीरेंद्र जी दूसरे कमरे में चले गए और बाकी चारों उसी कमरे में सो गए। मैं और बीरेंद्र भाई अभी कुछ घंटों पहले जो हमारी हालत हुई थी उस पर ही चर्चा करते रहे। नींद हमारी आंखों से कोसों दूर थी, बस ठंड से बचने के लिए दुबके हुए थे ताकि शरीर गर्म रहे। जब सब कुछ शांत और नीरव हो गया तो बाहर से कुछ जानवरों के बोलने की आवाज कमरे के अंदर सुनाई देने लगी। जानवरों की आवाज सुनते ही हम दोनों धीरे से दबे पांव कमरे से बाहर निकले तो देखा कि कई सारे जानवर वहीं गेस्ट हाउस के आगे घूम रहे हैं और ये सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक फिर से बरसात शुरू नहीं हुई। जब हम लोगों को ठंड लगने लगती तो कमरे में जाकर कम्बल में दुबक जाते और फिर कुछ देर बाद फिर से बाहर आ जाते। यहां एक अफसोस की बात ये रही कि मंदिर के पुजारी ने रात में वहां आने वाले जानवरों की फोटो लेने के लिए मना कर दिया थो तो हमने उनकी बात का उल्लंघन नहीं किया और वहां आने वाले जानवरों को परेशान करना उचित नहीं समझा।
रात में करीब 2 बजे के बाद एक बार फिर बरसात शुरू हो गई तो हम लोग भी सोने के लिए कमरे में चलग गए। सोने से पहले कल सुबह चंद्रशिला निकलने की तैयारी भी कर लिए कि इस बार कुछ भी हो जाए चंद्रशिला पर जाकर ही वापस आना है चाहे तो हरिद्वार में ट्रेन ही क्यों न छूट जाए। कल की सारी योजना पर बात करने के बाद मैं और बीरेंद्र भाई सोने की कोशिश करने लगे। बीरेंद्र भाई तो सो गए पर अभी भी नींद हमारी आंखों से कोसों दूर थी और उसके भी कई कारण थे, जैसे हमारे साथ आज शाम को जो घटना हुई उसकी यादें, कल सुबह चंद्रशिला जाने का रोमांच, उसके बाद कल ही चोपटा तक पैदल नीचे जाने के बाद वहां से रात होने से पहले हरिद्वार पहुंचना, आदि जैसी कई बातें थी जिसके कारण हम देर तक जागते रहे फिर न जाने कब नींद आ गई कुछ पता नहीं चला। अब आज के इस आलेख में बस इतना और अगले आलेख में चंद्रशिला तक पहुंचाने के वादे के साथ हम आपसे विदा लेते हैं। अभी के लिए आज्ञा दीजिए बस जल्दी ही मिलते हैं अगली पोस्ट के साथ। जिसमें हम आपको अपने साथ चंद्रशिला की चोटी तक ले चलेंगे और फिर तुंगनाथ मंदिर में भगवान भोलेनाथ के दर्शन के उपरांत वापस चोपता चलेंगे।
जय भोलेनाथ।
इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें
भाग 1: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 1) : दिल्ली से हरिद्वार
भाग 2 : तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी
भाग 2 : तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी
भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली
आइये अब इस यात्रा के कुछ फोटो देखते हैं :
तुंगनाथ से चंद्रशिला के रास्ते में मैं और बीरेंद्र जी (फोटो : राकेश आज़ाद) |
तुंगनाथ से चंद्रशिला के रास्ते में राकेश जी और बीरेंद्र जी |
यही वो जगह है जहाँ से हमने पहाड़ पर चढ़ने के कोशिश किया था |
धुंध इतना ज्यादा की कुछ दूर आगे तक देखना मुश्किल था |
धुंध इतना ज्यादा की कुछ दूर आगे तक देखना मुश्किल था |
आखिर तक जाते जाते रास्ते इस तरह के हो गए थे |
इन रास्तों पर चलने का मतलब सावधानी हटी दुर्घटना घटी |
रूई जैसे बादल |
जब नज़ारे ऐसे हों तो मन थोड़े ही मानेगा |
बादल से ऊपर हम |
रूई या बादल |
वाह मनमोहक |
उफ्फ ये मनमोहक नज़ारे |
शांति का सुखद अहसास |
सूर्यास्त की आहट |
सूर्यास्त की आहट |
सूर्यास्त की आहट |
बादलों से निहारता चौखम्बा पर्वत |
इनसे नज़र हटे तो कैसे हटे |
इनसे नज़र हटे तो कैसे हटे |
बादलों के ऊपर पड़ती सुर्यास्त के समय सुनहरी किरणें |
बादलों के ऊपर पड़ती सुर्यास्त के समय सुनहरी किरणें |
बादलों के ऊपर पड़ती सुर्यास्त के समय सुनहरी किरणें |
काले और सफ़ेद बादलों से ढंका आसमान |
बादलों के ऊपर पड़ती सुर्यास्त के समय सुनहरी किरणें |
सूर्यास्त के बाद |
बादलों के ऊपर पड़ती सुर्यास्त के समय सुनहरी किरणें |
सूर्यास्त के बाद अँधेरा होने पर |
ऊपर बादलों पर सूर्य की किरणें और नीचे किसी गांव या कस्बे में बल्ब की झिलमिलाती रोशनी |
रात के समय तुंगनाथ जी मंदिर |
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बहुत खुब, जान जाने वाली हालत बन ही गयी आपके साथ। आप सौभाग्यशाली है की खुद प्रकृति आपको सचेत कर रही थी, अन्यथा प्रकृति जितनी सुंदर है उतनी ही निर्मम। जंगली जानवरों में कुछ विशेष भी नजर आया या बस हिरन और काकड़ ?? तुंगनाथ मेरात बिताना बहुत रोमांचक है इस बार हम भी देखते है।
ReplyDeleteसुंदर लिखा है आपने।
💐💐💐
जी हां अनुराग जी जान पर आफत तो बन ही गई थी और भाग्यशाली रहा कि महादेव ने पूर्णतः साथ निभाया। प्रकृति तो आरंभ से ही अपने हिसाब से सचेत करती रही पर हम ही ऐसे हैं कि उनके ईशारों को नहीं समझा और जबरदस्ती आगे बढ़ता गया और अंततः हार माननी पड़ी नहीं तो खामियाजा भुगतना पड़ता। जंगली जानवरों में जिस भालू को हमारी नजरें तलाश रही थी उसके दर्शन नहीं हुए। पर हिरन और कांकड़ का झुंड देखकर मन प्रसन्न हो गया, साथ ही भेड़ों का झुण्ड तो बहुत ही मनभावन था। हां तुंगनाथ जी में बिल्कुल मंदिर के सामने भोलनाथ के सान्निध्य में रात बिताने का रोमांचक अनुभव मिला। हां जी एक और मौका है। मेरी टूटी-फूटी भाषा में लिखे लेख को अपने सुंदर कहा इसके लिए आपका हार्दिक अभिनंदन अनुराग जी। बस आपके इन शब्दों में ही लिखने की प्रेरणा मिलती है जी। एक बार और धन्यवाद।
Deleteभगवान भोले नाथ आप पर कृपा करें प्रकृति हर बार मोका देती हैं आपने सही निर्णय लिया जय भोले अगली बारी की प्रतिक्षा में
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद जितेन्द्र जी, हां भोलेनाथ की कृपा तो सदा से ही रही है और रहेगी भी जी उससे भी ज्यादा बड़ी आप जैसे शुभचिंतक का होना है जी। जी हां मिश्रा जी प्रकृति बहुत मौके देती है, और अगली बार सफलता हाथ लगेगी ही
Deleteबहुत ही रोमांचक यात्रा रही आपकी. ग़लत राह पर चलते जाना मनुष्य का लालच है तो राह की रुकावटे ईश्वर का संकेत. गीले कपड़े, सूर्यास्त, जंगली जानवर .क्या हुआ जो चन्द्रशिला ना गये, राह भी तो मंज़िल ही हुई.
ReplyDeleteबहुत सारा धन्यवाद आपका।
Deleteजी वैसे ये तीन घंटे का सफर बहुत ही रोमांचक और रोयां-रोयां खड़ा कर देने वाला रहा था, और उस सफर से वापसी के बाद प्राकृतिक छटाओं का जो अद्भुत मंजर दिखा, उसने सफर के शुरुआत से साथ चले रहे परेशानियों और दुश्वारियों को बहुत पीछे छोड़ दिया। ये यात्रा कभी न भूलने वाली यात्राओं में शामिल हो गई।
जी सही कहा आपने क्या क्यों हुआ जो चंद्रशिला न गए, पर अगली सुबह दूसरे प्रयास मंे चंद्रशिला पहुंचने का भी सौभाग्य प्राप्त हो गया।
एक बार और धन्यवाद।
एक बात तो हमारे बुजुर्ग जन कहते है.. साँप यदि रास्ता रोके हुए है तो आगे बढ़ना नही चाहिए
ReplyDeleteये ईश्वर की चेतावनी ही है
पर 3 चेतावनियों के बावजूद आप आगे बढ़ते ही रहे
खैर सुरक्षित रहे ये अच्छा हुआ
शानदार लेख..
पहले तो बहुत सारा धन्यवाद आलेख पढ़ने के लिए। हां जब हम लौटकर आए तो दुकान में मैगी खाते समय ये बात दुकान वाले को बताया तो उसने कहा कि पहली ही बार आपको वापस आ जाना चाहिए था पर आपने जिद की और आगे बढ़े। इस यात्राा की सुखद बात ये रही कि सारी दुश्वारियों के बाद ही हम सकुशल वापस हुए।
Deleteएक बार पुनः धन्यवाद।
बहुत बढ़िया नजारे उस सफर के जिसकी कोई मंजिल नही...तुंगनाथ यात्रा में तो अपने रोमांच की हदे पार कर दी...ट्रैन में न उठा पाने से अभी तक रोमांच चालू ही है..बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteबहुत सारा धन्यवाद भाई जी, हां नजारे तो ऐसे दिखे कि उसका कोई जवाब ही नहीं। एक ऐसा सफर जो जिसकी कोई मंजिल नहीं, और वैसे ही मंजिल पर पहुंच जाना तो सफर का समाप्त हो जाना है, इस अधूरे सफर ने एक और रोमांच दिया कि एक बार फिर से चंद्रशिला की तरफ प्रस्थान करने का। जी हां ये पूरी यात्रा ही रोमांचक रही, दिल्ली से चलकर दिल्ली वापस आने तक, और मेरी घुमक्कड़ी जीवन की सबसे यादगार यात्राओं में एक।
Deleteएक बार और धन्यवाद।
कल सुबह आपको चंद्रशिला की चोटी पर पहुंचाएंगे
बेहद खूब लिखा आपने अपने अनुभवों को अभयानंद जी, पढ़ते-पढ़ते रोमांच का अनुभव करवा दिया आपने... मैं भी चन्द्रशिला नही गया था केवल तुंगनाथ से ही वापस हो लिया था क्योंकि मैं सपरिवार था.... और तुंगनाथ पहुँचना मेरी यात्रा में पहले से शामिल नही था क्योंकि हम बद्रीनाथ से सीधा केदारनाथ जा रहे थे..मैने शैतानी कर अपनी श्रीमती जी की इच्छा के विरुद्ध उन्हें शाम होने का बहाना दे चोपता में ही रोक लिया कि अभी केदारनाथ पहुँच कर क्या करेंगे... और सुबह पांच बजे बच्चों व श्रीमती जी को घोड़े कर और मैं पैदल तुंगनाथ के लिए रवाना हो गया, क्योंकि मुझे तुंगनाथ देखना था... जिसे मैने अपनी शैतानी से देखा।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद विकास नारदा भाई जी!
Deleteये पूरी यात्रा ही ऐसी रोमांचक रही कि दिल्ली से चलने के बाद हरिद्वार पहुंचते ही रोमांचक आरंभ हो गया था और जैसे जैसे यात्रा आगे बढ़ती रही रोमांच बढ़ता गया, भले ही ये यात्रा योजना के तहत थी पर फिर भी ये यात्रा ऐसी यात्रा बन गई कि जैसे बिना योजना के यात्रा हो, बस हम चल रहे थे और कहां जाना ये सब कुछ प्रकृति पर निर्भर था, प्रकृति मुझे जहां ले जा रही थी हम वहां जा रहे थे। वैसे शैतानी करना तो आपकी आदत में शामिल हो गया है, बदरीनाथ यात्रा में हम वसुधारा फाॅल चले गए, फिर उसी यात्रा में दूसरी शैतानी की तुंगनाथ चले गए और भी शैतानी आप कर चुके हैं जैसे दशहरे के समय आप जब गंगोत्री गए थे वहां भी कहीं और चले गए। आपको नई नई यात्राओं के लिए शुभकामनाएं विकास जी। जगह चाहे शैतानी से देखा जाए या सामान्य ढंग से नई जगहों को देखने का रोमांच एक अनछुआ अहसास होता है।
एक बार पुनः धन्यवाद आपको।
पर्वतारोहियों के लिए यह गाना बार बार गुनगुनाना पड़ जाता है- आज मैं ऊपर आसमा नीचे।
ReplyDeleteआआपकी बात बिल्कुल सही है, तुंगनाथ जी से 10 मिनट चलने के बाद ही चंद्रशिला चोटी दिखनर लग जाती है जी
यहां आने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद अक्षय जी, हां वो पल ही ऐसा था कि मैं बादलों से ऊपर से था और बादल नीचे, हां जी चंद्रशिला मंदिर से चलने के बाद कुछ ही देर बाद दिखना आरंभ हो जाता है, मैं अगली कोशिश में चंद्रशिला पहुंच गया था जी।
Deleteगजब करते हो अभय जी आप.... रास्ता भटक गये, आशंका थी आप लोगो की भटक गये हो चेतावनियों के बाबजूद जारी रखा चलना.... आप गिरते पड़ते बहुत हो भाई.... | सुरमई शाम के चित्र देखकर मन प्रफ्फुल्लित हो गया ..... ठण्ड आलम क्या है तुंगनाथ में ये तो हम नबम्बर की यात्रा में देख ही चुके है ...... हाय बारिश...फिर भी पीछे पड़ी रही....
ReplyDeleteधन्यवाद जी!!!
Deleteगजब तो शुरुआत से ही हो रहा था, उतरना था हरिद्वार पहुंचे देहरादून, फिर जाना था उखीमठ तो पहुंचे गुप्तकाशी। अब जाना था चंद्रशिला और पहुंचे उन खतरनाक रास्तों पर। सही कहा आपने नागदेवता के दर्शन होेते ही मुझे लौट जाना चाहिए था पर नहीं लौटा जिसका खामियाजा भी भुगता। हा हा हा, गिरने की बात पर हंसी आ रही है। उस शाम का दृश्य देख्ना मेरे लिए भी किसी अजूबे से कम नहीं था। जैसा फिल्मों में देखा करता था परियों का देश वैसा ही नजारा मैंने खुद अपनी आंखों से देखा। बारिश ने साथ छोड़ा ही नहीं।
Aap jis raste par chal pade the wo rasta Gopeshwar jata hai. Purane samay me Kedarnath-Tungnath-Badrinath rout ke yatri usi raste ka istemal karte the. Aapko left me Jana chahiye tha lekin aap seedhe chale gaye.
ReplyDeleteBehad achhi post. Chandrashila post ka intezar h.
हां जी वो बाद में मुझे वहां के पुजारी ने बताया कि जिस रास्ते पर हम लोग चले गए थे, वो रास्ता तुंगनाथ से गोपेश्वर को जाती है जो कि पहले के समय में प्रयोग होता था पर अब नहीं। आप भी तो उस रास्ते की ओर थोड़ा सा बढ़े थे मैंने पढ़ा था आपका वृत्तांत। आगे के सभी पोस्ट प्रकाशित है जी, जिसका लिंक सभी पोस्ट में दिया हुआ है।
DeleteThanks
ReplyDeleteबढ़िया लिखा अभयानंद जी।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपको
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