Friday, October 27, 2017

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी

तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी



तुंगनाथ चंद्रशिला यात्रा के दूसरे भाग में आइए आपको ले चलते हैं हरिद्वार से गुप्तकाशी। हरिद्वार में सब कुछ करते करते नौ बज चुके थे। करीब साढ़े नौ बजे हम धर्मशाला से निकलकर बस स्टेशन की तरफ चल पड़े। बस स्टेशन धर्मशाला से केवल 5 मिनट की दूरी पर था तो हम सब जल्दी ही वहां पहुंच गए। बस स्टेशन के पास बाहर ही कुछ प्राइवेट बसें खड़ी थी जिसमें से एक बस गोपेश्वर जा रही थी। बस बिल्कुल ही खाली थी। हम सभी लोग उसी बस में बैठ गए कि रुद्रप्रयाग में उतर फिर वहां से उखीमठ की बस में बैठ जाएंगे, पर होनी को तो कुछ और मंजूर था। बस में बैठने के बाद बीरेंद्र भाई ने कहा कि इस बस के पीछे एक बस है जो सीधे उखीमठ जा रही है। हमने थोड़ा तांक-झांक कर देखा तो ये मालूम पड़ गया कि उस बस में हम सभी के लिए अच्छी सीट मिलने वाली नहीं है इसलिए हमने इसी बस से रुद्रप्रयाग तक जाना उचित समझा और रुद्रप्रयाग पहुंचकर वहां से किसी दूसरे बस या मैक्स वाहन से उखीमठ तक का सफर तय कर लेंगे। बस ठीक साढ़े दस बजे हरिद्वार से चल पड़ी और कुछ ही देर में भीड़ भरे बाजार से होते हुए हरिद्वार-ऋषिकेश बाईपास पर आ गई। मौसम में गर्मी के साथ उमस भरी हुई थी पर बस के चलने से बस के अंदर हवा का संचार हुआ तो गर्मी और उमस से थोड़ी राहत मिलनी आरंभ हो गई। कुछ ही देर में बस चिल्ला वन्यजीव अभ्यारण रेंज में प्रवेश कर गई। चिल्ला वन्यजीव अभ्यारण्य वर्ष 1977 में बनाया गया था। यह 249 वर्ग किमी के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह हरिद्वार से 10 किमी दूर गंगा नदी के किनारे स्थित है। वर्ष 1983 में इसे मोतीचूर एवं राजाजी अभ्यारण्यों के साथ मिलाकर राजाजी राष्ट्रीय उद्यान बनाया गया। चिल्ला वन्यजीव अभ्यारण्य में कई प्राणी है जैसे कि चीते, हाथी, भालू और छोटी बिल्लियाँ आदि। यहां से गुजरने पर कई तरह के सुंदर पक्षियों, तितलियों को देखने का सौभाग्य प्राप्त होता है। वैसे इस अभ्यारण्य में भ्रमण करने के लिए नवंबर से जून के बीच का समय सबसे अच्छा माना जाता है। हरिद्वार से ऋषिकेश और ऋषिकेश से हरिद्वार आने जाने वाली अधिकतर गाडि़यों दिन के समय इसी रास्ते से आती जाती है, पर रात में यहां से किसी भी प्रकार की गाडि़यों का गुजरना प्रतिबंधित है।

चिल्ला रेंज को पार करते ही यात्रा के रोमांच का अनुभव होना शुरू हो गया था। जगह जगह सड़कें पानी के बहाव के साथ बह गई थी और पानी सड़क के उपर से बह रहा था। ऐसे ही चलते हुए कुछ आगे पहुंचे तो एक जगह सड़क नाम की कोई चीज बची ही नहीं थी। सभी गाडि़यों कीचड़ युक्त तेज बहते हुए पानी से होकर पार हो रही थी। इस दृश्य को देखकर बचपन में गांव में धान के खेत में चलते हुए ट्रैक्टर की यादें ताजा हो गई। पानी की धार इतनी तेज थी कि पैदल पार होना मुश्किल काम था फिर भी लोग पार हो रहे थे। इस पानी को पार करने के बाद बस एक साफ सुथरी सड़क पर चलने लगी। हवा का ठंडा झोका खिड़की से अंदर आकर अठखेलियां करता और दूसरे तरफ से निकल जाता। बस अपनी मस्त गति से चली जा रही थी और हम भी अपनी ही मस्ती में खोए चले जा रहे थे। अब तक जो आसमान बिल्कुल साफ था, अब वहां काले-काले बादलों ने अपना डेरा जमाना आरंभ कर दिया था। सड़क के साथ बहते नहर में पानी की धारा को देखते हुए अपने सफर के रोमांच का अनुभव करते हुए आगे बढ़ रहे थे। कुछ ही देर में हम ऋषिकेश भी पहुंच गए। बस ऋषिकेश बस अड्डे पर रुकी और फिर आगे चल पड़ी। कुछ मिनटों के सफर के बाद हम ऋषिकेश बाजार को बाय बाय कहते हुए शहर से बाहर पहुंच चुके थे। बस चली जा रही थी और हम भी बस की सीट पर बैठे ख्यालों मे हुए चले जा रहे थे। कभी कभी बीच में साथियों से कुछ बातें कर लेते और फिर से नजरें खिड़की के बाहर चली जाती।

ऋषिकेश शहर के बाहर निकलते ही ऊंचे-ऊंचे पहाड़ के बहुत नजदीक से दर्शन होने लगे थे। दोनों तरफ ऊंचे-ऊंचे पहाड़, सड़क के साथ बहती पतित पावनी गंगा कल-कल ध्वनि के साथ बह रही थी। हमारी बस पहाड़ी और घुमावदार सड़क पर नागिन के जैसी बल खाती हुए सरपट भागी चली जा रही थी। सड़क के साथ चलते पहाड़ और नदियां सब पीछे छूट रहे थे। मन बिलकुल उन वादियों में खोया हुआ भावनाओं में बहा जा रहा था। सारा ध्यान केवल अपनी मंजिल पर पहुंच जाने के लिए आतुर था। हमारा मन हिरन के जैसे कुलांचे मारते हुए सपनों की दुनिया में सैर कर रहा था। गाड़ी में सवार सभी यात्री उन खूबसूरत नजारों से रु-ब-रु होते होते हुए निःशब्द बैठे हुए सफर का आनंद ले रहे थे। सड़क के साथ साथ बहती गंगा की कल-कल ध्वनि संगीत के धुन की तरह लग रही थी। बस की खिड़की से आती वो मदमस्त हवाएं हमें छेड़ने का काम कर रही थी। उन हवाओं के साथ आती मदमस्त खुशबू बिलकुल हमारे ऊपर छाई हुई थी। पर्वतराज हिमलाय अपने शीश उठाकर हवा के साथ अठखेलियां देखकर मुस्कुरा रहे थे। अचानक ही काली स्याह सड़क पर दौड़ती गाड़ी में अचानक ब्रेक लगता है और बस के रुकते ही हमारी तन्द्रा तन्द्रा टूट जाती है। मन बिल्कुल खिन्न हो जाता है। सपनों की दुनिया में सैर करता हुआ मन हकीकत की धरातल पर आ गिरता है। पहले तो यही लगा कि बस ऐसे ही कारण से रुकी होगी, पर आगे खड़ी गाडि़यों का काफिला देखते ही समझ में आ गया कि जाम की स्थिति के कारण ही बस रुकी है। कुछ ही देर में स्थिति का पता चल जाता है कि आगे भू-स्खलन हुआ है जिसके कारण रास्ता बंद है और आपदा विभाग की टीम रास्ते को साफ करके यातायात को सुचारू रूप से चलाने के काम में लगे हैं। अब और लोगों की तरह मैं भी बस से उतरकर स्थिति का जायजा लेने के लिए गया तो देखा कि जो पर्वतराज अभी हमारा स्वागत करते हुए अपना सीना ताने हमारे साथ-साथ चले जा रहे थे, वो सड़क पर पड़े कराह रहे थे। करीब एक घंटे की मशक्कत की बाद आपदा विभाग ने पहाड़ से गिरे मलबे को हटाकर गाडि़यों के आने जाने के लिए रास्ता बना दिया। कहीं-कहीं तो सड़क की हालत ऐसी थी कि गाड़ियां बहुत ही मुश्किल से पार हो रही थी। सड़क के नीचे की मिट्टी बह चुकी थी जो किसी भी समय किसी भी बड़ी दुर्घटना का कारण बन सकती थी। पहाड़ों में बरसात के मौसम में अक्सर ही ऐसी स्थितियां उत्पन्न हो जाया करती है। 

यहां से बस चली और करीब दो किलोमीटर चलने के बाद एक बार फिर वही व्यवधान फिर से हो गया। यहां भी पहले की तरह पहाड़ गिरने से मार्ग अवरुद्ध हुआ पड़ा था, लेकिन यहां ज्यादा देर इंतजार नहीं करना पड़ा। करीब 15 मिनट में ही यहां रास्ता खोल दिया गया। अब तक सड़क पर जाम की समस्या विकट हो चुकी थी और सभी गाडि़यों के साथ हमारी बस भी रेंगती हुई चलने लगी। कुछ दूर के सफर के बाद जाम से छुटकारा मिला और एक बार फिर से बस ने रफ्तार पकड़ ली। फिर से वही गगनचुंबी पहाड़, पहाड़ों के ऊपर हरे भरे पेड़, उसके भी ऊपर कहीं काले तो कहीं नीले बादल स्वागत करते हुए साथ साथ चल रहे थे। ऐसे ही सफर जारी रहा और कुछ ही देर में ब्यासी पहुंच गए, जहां ड्राइवर ने यात्रियों के खाने-पीने के लिए कुछ देर के लिए बस रोकी। साथ चल रहे साथियों में जब बीरेंद्र भाई ने खाने के लिए कहा तो हमने खाने से मना कर दिया कि मेरा कुछ भी खाने का मन नहीं है। ऐसा नहीं था कि मुझे भूख नहीं थी। भूख तो लग रही थी पर अगर खा लिया तो क्या पता पहाड़ी सड़क पर चलते हुए उल्टी होने लगे इसलिए मैंने खाना खाने से मना कर दिया, लेकिन उन लोगों ने जब दुबारा कहा था तो थोड़ा सा खाना खा लेना उचित समझा। ईधर जब तक होटल वाला हम लोगों के लिए खाना निकाल रहा था तो मैं होटल के के पीछे के भाग में चला गया तो वहां से गंगा का जो नजारा दिखा वो कभी न भूलने वाले दृश्यों में से एक था। यहां मैंने कुछ फोटो लिए क्योंकि यहां का दृश्य ही ऐसा था कि कोई न चाहते हुए भी यहां से फोटो लिए बिना जा ही नहीं सकता था। 

जब मैं फोटो ले रहा था तो ऐसा प्रतीत हुआ कि मां गंगा कह रही हो कि बेटा एक बार पहले भी तू ईधर आ चुका है और आज फिर से ईधर आ गया है। इस बार तेरी जम कर परीक्षा ली जाएगी कि तू बार बार आने वाला है या एक-दो बार में ही हताश होकर फिर ईधर आना ही नहीं चाहेगा। अब इस बात से मैं कैसे चुप रहता। मैंने भी कह दिया कि मां तू चाहे जितना परेशान कर ले मैं तो अब बार बार आउंगा। अगर सफर में परेशानी ही नहीं हुई तो वो सफर नहीं रह जाता। वैसे भी मां कभी बेटे को परेशान नहीं करती बस परीक्षा लेती है तो हे मां गंगे मैं आपकी हर परीक्षा में सफल होउंगा और बार बार ईधर से ही गुजरूंगा। ऐसी ही मां गंगा से साक्षात्कार कर ही रहा था कि होटल वाले ने हमारी तंद्रा यह कह कर भंग कर दी कि आपका खाना तैयार है पहले खाना खा लीजिए फिर इन दृश्यों को देखते रहिएगा। मैंने भी झट से उसे कहा कि अभी थोड़ा और देख लेने दो भाई क्योंकि खाना खा लेने के बाद बस वाले इतना समय नहीं देंगे कि हम फिर से इन दृश्यों को देख सकें। मेरी ये बातें सुनकर वो आपकी जैसी मर्जी कहकर अपने काम में व्यस्त हो गया। मैं भी समय बर्बाद न करते हुए खाने में व्यस्त हो गया। खाना खाते ही बस वाले ने जल्दी बैठिए, जल्दी बैठिए की रट लगा दी और सभी सवारियों के साथ हम भी बस में बैठ गए और बस आगे के सफर पर चल पड़ी। अभी कुछ ही दूर गए थे कि रास्ते में फिर से एक जगह लैंड-स्लाइड हुआ दिखा। यहां भी कुछ देर रुकना पड़ा। कुछ देर बाद जब यहां से आगे बढ़े और बस ने जब अपनी रफ्तार पकड़ी तो कुछ ही देर के सफर के बाद हम देवप्रयाग पहुंच गए। देवप्रयाग उत्तराखण्ड राज्य में टिहरी गढ़वाल जिले में स्थित एक प्रसिद्ध तीर्थ स्थान है। यह पंच प्रयागों में से एक है। अन्य चार प्रयाग रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और विष्णुप्रयाग है। यहां पवित्र अलकनंदा और भागीरथी नदियों का संगम हैं। इसी संगम स्थल के बाद से इन दोनों नदियों को को गंगा के नाम से जाना जाता है। इस स्थान का धार्मिक महत्व भी बहुत अधिक है। यहां कई प्राचीन मंदिर अवस्थित हैं जैसे रघुनाथ मंदिर, चंद्रवदनी मंदिर और दशरथशिला मंदिर आदि। यहां आने वाले यात्रियों के लिए मौसम की कोई बंदिश नहीं है लेकिन सर्दियों में यहां सर्दी बहुत अधिक होती है इसलिए पर्याप्त मात्रा में गर्म कपड़े लेकर ही आना उचित होता है।

देवप्रयाग में हमें रुकना नहीं था और न ही बस वाले ने यहां बस को रोकी। चलती हुई बस से ही अलकनंदा और भागीरथी नदी के संगम के दर्शन किए। दृश्य बहुत ही मनोहारी था। मन तो किया कुछ देर रुक कर इस पवित्र स्थल के दर्शन किया जाए पर ये अपने हाथ में नहीं था। ऐसा तभी हो सकता था जब हम अपनी गाड़ी से जा रहे हों। खैर मन को मनाया कि अभय इस बार न सही अगली बार केवल यहां के दर्शन करने आएंगे और तब बस से नहीं अपनी बाईक से आएंगे। खैर ये तो एक सोच है कब जाना होगा अपनी बाईक से कुछ पता नहीं। बस अपनी ही धुन में चली जा रही थी और हम भी अपने ही धुन में खोए हुए रास्ते को देखते जा रहे थे। यहां से आगे बढ़ने के बाद हल्की बूंदाबांदी शुरू हो गई जो धीरे धीरे तेज होती गई और करीब 20 मिनट तक ये बरसात होती रही। बरसात हो रही थी और बस चली जा रही थी। इस बरसात को देखकर मेरी पिछली केदरानाथ यात्रा की याद आ गई। उस बार भी देवप्रयाग से आगे बढ़ने पर बरसात हुई थी और इस बार भी। खैर कुछ ही देर में बरसात बंद हो गई और मौसम साफ हो गया। सफर जारी रहा और हम श्रीनगर पहुंच गए। 

श्रीनगर में बस कुछ देर रुकी और फिर आगे के सफर के लिए चल पड़ी। श्रीनगर से कुछ दूर आगे जाने पर नदी के बीच धारी देवी मंदिर के दर्शन हुए। बस पर बैठे बैठे हमने देवी को नमन किया। धारी देवी मंदिर को चारों धामों का रक्षक माना जाता है। कहा जाता है साल 2013 में इसी मंदिर में स्थापित मूर्ति को यहां से हटाकर दूसरी जगह रखा गया था और उसके अगले दिन ही केदरानथ में आपदा आई जिसमें न जाने कितने हजार लोग मौत के आगोश में चले गए। इसी तरह चलते हुए करीब साढ़े पांच बजे हम रुद्रप्रयाग पहुंच गए। रुद्रप्रयाग भी पांच प्रयागों में से एक है। यहां बदरीनाथ से आने वाली अलकनंदा और केदारनाथ से आने वाली मंदाकिनी नदी का संगम है। ऋषिकेष से आने वाली सड़क यहां से दो भागों में बंट जाती है, जिसमें से एक रास्ता केदारनाथ और दूसरा बदरीनाथ के लिए चली जाती है। रुद्रप्रयाग पहुंचते ही पता चला कि उखीमठ जाने वाली अंतिम बस अभी बस पांच मिनट पहले ही चली गई और अब आज उखीमठ के लिए कोई गाड़ी उपलब्ध नहीं हैं। अब रुद्रप्रयाग से उखीामठ पहुंचने का एकमात्र सहारा रिवर्ज जीप थी। अब या तो रात्रि विश्राम रुद्रप्रयाग में किया जाए या फिर मुंहमांगे दाम देकर आज ही उखीमठ पहुंचा जाए। बहुत मान-मनौव्वल के बाद एक जीप वाला 1200 रुपए में उखीमठ जाने के लिए तैयार हो गया। हम सब जीप में बैठते उससे पहले ही उसने 2 और लोगों को बैठा लिया और कहा कि ये लोग आगे उतर जाएंगे। अब हमने जब जीप रिजर्व की तो किसी और के बैठने का कोई सवाल ही नहीं था। हमने जीप वाले से साफ कह दिया कि हम उस व्यक्ति से पैसे ले लेते हैं और आपको 1200 रुपए ही देंगे या फिर आप जितने पैसे उनसे लोगे उतने पैसे हम आपको काट कर देंगे। मेरी इस बात को सुनते ही जीप वाले ने उनको जीप से उतार दिया। अब तक शाम के 6 बज चुके थे और अंधेरा होना आरंभ हो चुका था। हम ज्यादा रात होने से पहले उखीामठ पहुंच जाना चाहते थे। हम जीप में बैठे और उखीमठ की तरफ चल पड़े। रुद्रप्रयाग बाजार को पार करने के बाद मंदाकिनी नदी को पार करके केदारनाथ जाने वाली सड़क पर अभी करीब एक किलोमीटर भी नहीं गए होंगे कि जोरदार बारिश आरंभ हो गई। बरसात देखकर तो हमने यही सोचा कि घंटे दो घंटे की बरसात होगी पर नहीं ये बरसात पूरे 3 दिन लगातार बिना रुके होती रही और हम सबकी ये पूरी यात्रा बरसात में ही पूरी हुई। बरसात होती रही और जीप आगे बढ़ती रही। इसी दौरान हमने जीप के ड्राइवर से आगे के रास्ते और रूट के बारे में जानना चाहा। जीप के ड्राइवर और हम लोगों के बीच हुए संवाद के कुछ अंश :

मैं  : आप मुझे ये बताइए कि मुझे पहले तुंगनाथ जाना है उसके बाद कार्तिकस्वामी जाना है तो कैसे जाना होगा?
ड्राइवर  : तुंगनाथ और कार्तिकस्वामी दोनों अलग-अलग रूट में हैं और गाडि़यों की भी बहुत दिक्कत है।
मैं  : तो फिर कैसे जाया जाए और मेरे पास दो दिन का समय है?
ड्राइवर  : जब तक अपनी गाड़ी नहीं हो तो दो दिन में दोनों जगह संभव नहीं है।
मैं  : तो क्या किया जा सकता है?
ड्राइवर  : आप ऐसा कीजिए कि आज आप उखीमठ न जाकर गुप्तकाशी चलिए और रात में गुप्तकशी में रुकिए।
बीरेंद्र  : क्या गुप्तकाशी से तुंगनाथ और कार्तिकस्वामी हो जाएगा?
ड्राइवर  : नहीं, कल सुबह आप पहले गुप्तकशी में काशी विश्वनाथ के दर्शन कीजिएगा उसके बाद कालीपीठ चले जाइएगा।
मैं  : फिर उसके बाद?
ड्राइवर  : उसके बाद आप वहां से चोपटा चले जाइएगा और फिर तुंगनाथ।
बीरेंद्र  : और कार्तिकस्वामी का क्या होगा?
ड्राइवर  : वो इस बार नहीं हो पाएगा क्योंकि मौसम भी आजकल खराब रहता है और गाडि़यों की भी बहुत दिक्कत हो जाएगी।
मैं  : अच्छा गुप्तकशी तक पहुंचाने का कितना पैसा लीजिएगा?
ड्राइवर  : आप उखीमठ चलिए या गुप्तकाशी पैसे तो वही लगेंगे क्योंकि दूरी बिल्कुल बराबर है।
मैं  : वहां से फिर वापस भी तो आना पड़ेगा तुंगनाथ जाने के लिए।
ड्राइवर  : तो क्या हुआ जी, अगर आप इस समय उखीमठ जाएंगे तो आपको कमरे बहुत महंगे मिलेंगे और गुप्तकाशी में कम कीमत में अच्छे कमरे मिल जाएंगे और साथ ही कल सावन की पूर्णिमा है आप पूर्णिमा के दिन पहले गुप्तकाशी में भोलेनाथ के दर्शन करेंगे, उसके बाद कालीपीठ भी हो जाएगा आपका और कल पूर्णिमा के दिन ही तुंगनाथ भी पहुंच जाएंगे।
बीरेंद्र  : ठीक है फिर आप हमें गुप्तकशी ही ले चलिए।
मैं  : हां ठीक है हम लोग गुप्तकाशी ही चलते हैं।
ड्राइवर  : आप इस मौसम में कहां आ गए, इस समय बहुत कम इक्का-दुक्का लोग आते हैं।
मैं  : मुझे तो बस यात्राएं करनी है मौसम की परवाह मैं नहीं करता।
ड्राइवर : ठीक है चलिए तो हम आपको गुप्तकाशी ही पहुंचा देते हैं और वहां आपको अच्छा रहने का साधन भी मिल जाएगा।
मैं  : ठीक है।

हम लोग बातें करते हुए जा रहे थे और बरसात तेज होती जा रही थी। धीरे धीरे रास्ते दिखने बंद होते जा रहे थे। एक तो रात, दूसरे पहाड़ी इलाका और उसके ऊपर से खूब जोरों की बरसात हो रही थी और हालत ये थी कि कोई भी गाड़ी या कोई भी आदमी सड़क पर दिख नहीं रहा था। रास्ते बिल्कुल सुनसान हो चुके थे। ड्राइवर हम लोगों को रास्ते के बारे में बताता जा रहा था और साथ ही ये भी कह रहा था कि अगर आप बीस मिनट बाद आते तो आज आपको रुद्रप्रयाग में ही रहना पड़ता क्योंकि जितनी तेज बरसात हो रही है उतने तेज बरसात में कोई भी जीप वाला रात में जाने के लिए तैयार नहीं होता। ये तो अच्छा था कि आप लोगों को वहां से चलने के कुछ देर बाद बरसात आरंभ हुई। ऐसे ही बातें करते हुए सफर जारी रहा और कुछ देर में हम कुण्ड पहुंच गए। कुण्ड से ही उखीमठ का और गुप्तकाशी का रास्ता अलग होता है। कुण्ड से बिना नदी पार किए सात किलोमीटर चलने पर उखीमठ आता है और मंदाकिनी नदी को पार करके 7 किलोमीटर चलने के बाद गुप्तकाशी आता है। कुण्ड से उखीमठ और गुप्तकाशी की दूरी बराबर है। दोनों ही जगह एक दूसरे के बिल्कुल आमने-सामने है। अगर रास्ता पहाड़ी न होकर मैदानी रास्ता होता तो दोनों जगहों की आपस में दूरी 2 से 3 किलोमीटर से ज्यादा नहीं होती। ये तो पहाड़ी रास्ते हैं तो इस छोटी सी दूरी को तय करने के लिए 14 किलोमीटर का सफर करना पड़ता है। कुण्ड पहुंचकर ड्राइवर ने हम लोगों से एक बार फिर पूछा कि एक बार आप लोग सोच कर बता दीजिए कि आप लोग उखीमठ चलेंगे या गुप्तकाशी। हम लोग भी दुविधा में फंसे थे कि कहां जाएं कहां न जाएं और ऐसे ही आधे मन से विचार करते हुए हम लोगों ने भी गुप्तकाशी चलने का ही विचार बना लिया और ड्राइवर से गुप्तकाशी ही चलने को कहा। अब हमारी जीप कुण्ड से गुप्तकाशी की तरफ मुड़ गई। नदी पार करने तक तो ठीक रहा। नदी पार करने के बाद बरसात ने भी अपना रूप बदल लिया और जोरों की जो बरसात थी वो घनघोर बरसात में बदल गई। सड़क पर फिसलन इतनी हो गई थी कि ड्राइवर को गाड़ी चलाने भी दिक्कत महसूस हो रही है। इसी तरह चलते हुए करीब आठ बजे हम गुप्तकाशी पहुंच गए। गुप्तकाशी पहुंचे तो देखा कि यहां कि 90 प्रतिशत दुकानें बंद हो चुकी है। यहां पहुंचते ही हम गाड़ी से उतरे और एक खुली हुई दुकान के सामने सामान रखा और गाड़ी वाले को पैसे देकर कमरे की तलाश करना आरंभ कर दिए। एक गेस्ट हाउस में गए तो 1600 रुपए में कमरा देने के लिए तैयार हो गया जिसमें भी तीन आदमी से ज्यादा रहने देने के लिए तैयार नहीं था। इस हिसाब से हमें 6 आदमी के 3200 रुपए देने पड़ते तो हमने मना कर दिया कि नहीं चाहिए भाई इतना महंगा कमरा। ऐसे ही किसी ने बताया कि दीपक लाॅज में चले जाइए वहां अच्छा और साफ-सुथरा कमरा बहुत कम पैसे में मिल जाएगा और कोई दिक्कत नहीं है। दीपक लाॅज पहुंचने पर वहां के मालिक (चाचा) को देखते ही सबसे पहले तो हमारे साथी बीरेंद्र भाई ने उनको नमस्ते किया और यही नमस्ते काम कर गया।

बीरेंद्र : नमस्ते अंकल जी!
चाचा  : नमस्ते जी, कौन?
बीरेंद्र  : अंकल जी हम दो महीने पहले आए थे तो आपके यहां ही ठहरे थे और फिर से एक बार आपके मेहमान बनने आ गए।
चाचा  : अच्छा आप हो। कितने लोग हैं आप लोग?
बीरेंद्र  : 6 लोग, जिसमें 4 पुरुष और दो महिलाएं हैं।
चाचा  : अच्छा तो हम आपको एक बड़ा कमरा दे देते हैं जिसमें सभी पुरुष और एक छोटा कमरा देते हैं जिसमें दोनों महिलाओं के रहने के लिए हो जाएगा।
बीरेंद्र  : अंकल जी पैसे कितने लेंगे ये भी बता दीजिए।
चाचा  : बड़े कमरे का 400 रुपए और छोटे कमरे का 200 रुपए दे देना आप।
बीरेंद्र  : मतलब कुल 600 रुपए।
चाचा  : हां आप छह लोग हो और 600 रुपए ज्यादा नहीं हैं, लेकिन पहले कमरा तो देख लो।
बीरेंद्र  : अरे नहीं अंकल जी कमरा तो पिछले बार यहीं रहा तो देखा ही था।
चाचा  : ठीक है।

इतना कहकर उन्होंने कमरे की चाबी ली और हमें कमरे तक पहुंचा दिया और कहा कि अगर भोजन करना है तो आप लोग जल्दी से हाथ मुंह धोकर बगल वाले होटल पर भोजन कर आओ फिर होटल बंद हो जाएगा क्योंकि आजकल यात्रियों के आने का समय नहीं है। कमरा बहुत अच्छा और साफ सुथरा था। चाचा के जाते ही हमने बीरेंद्र भाई से पूछा कि क्या आप पिछली बार इसी में रुके थे तो उन्होंने कहा कि अरे नहीं भाई जी वो तो बस ऐसे ही बोल दिया उनको और हमारे इतने बोलने से आपने देखा न कैसे वो महंगा कमरा भी हमें कम पैसे में दे दिए। कभी कभी नमस्ते करना इतना काम आ जाता है कि एक अनजान आदमी कुछ देर के लिए आपका हो जाता है। 

शाम से शुरू हुई बारिश अभी तक हो रही थी और बारिश बंद होने के आसार भी नजर नहीं आ रहे थे। कुछ मिनट आराम करने क बाद हम लोग खाना खाने के लिए नीचे बगल के होटल में गए। होटल वाले ने खाने की कीमत 70 रुपए प्रति व्यक्ति बताया। जब तक होटल वाले ने खाना बनाया तब तक हम लोगों ने एक एक कप चाय पिया। चाय खत्म होते-होते खाना भी बन गया। खाना खाने के बाद हम लोग फिर से कमरे पर आ गए और कल की प्लानिंग के बाद सोने की तैयारी करने लगे। मेरी घुमक्कड़ी में एक चीज होती है कि चाहे हम पूरे दिन कहीं भी रहें कोई बात नहीं पर सोने से पहले घर के सदस्यों से एक बार बात करना जरूरी है जिससे उनको मेरी स्थिति का और मुझे उन लोगों की स्थिति का पता लगता रहे। हम घर फोन करने की सोच ही रहे थे कि पत्नी का फोन आ गया। पत्नी को जब मैंने बताया कि ईधर बहुत भारी बरसात हो रही है तो उसने झट ही जवाब दिया कि अभी हम लोग न्यूज ही देख रहे हैं और ईधर न्यूज वाले दिखा रहे हैं कि उत्तराखंड पर 72 घंटे भारी। मतलब साफ था कि 3 दिन तक बारिश से बचने के कोई आसार नहीं थे और हुआ भी यही बारिश ने हमें इस पूरी यात्रा में परेशान करके ही रखा। अब यात्रा में परेशानी न हो वो यात्रा ही कैसी। इस यात्रा में 6 लोग थे और अच्छी बात ये थी कि सब के सब मेरे जैसे मनमौजी थे। किन्हीं को भी मौसम की कोई परवाह नहीं थी कि मौसम कैसा है या कैसा रहेगा, सबका बस इतना ही कहना था कि महादेव के दर्शन को निकले हैं तो बस सब ठीक ही होगा। यात्रा में अगर साथी भिन्न-भिन्न विचारधारा के मिल जाते हैं तो यात्रा का आनंद नहीं आ पाता पर यहां हमारे सभी साथी एक ही मत के थे इसलिए यात्रा में हमें कुछ ज्यादा सोचने की जरूरत ही नहीं थी। अब तक 10 बजने वाले थे और हम सबने अपने अपने मोबाइल और कैमरे का चार्ज होने के लिए लगा कर सोने की तैयारी करने लगे। पूरे दिन के सफर की थकान के कारण कब नींद आ गई पता ही नहीं चला। आज के लिए बस इतना ही, इससे आगे का वृत्तांत अगले पोस्ट में तब तक के लिए आज्ञा दीजिए। बस जल्दी ही मिलते हैं अगले भाग के साथ, जिसमें हम चलेंगे काशी विश्वनाथ मंदिर और कालीपीठ के दर्शन के लिए।

गुप्तकाशी कैसे जाएं : गुप्तकाशी जाने के लिए पहले तो हरिद्वार या ऋषिकेश आना होता है। उसके बाद यहां बहुत आसानी से बसें मिल जाती हैं। कुछ बसें तो सीधे गुप्तकाशी आती है और अगर गुप्तकाशी की बस नहीं भी मिले तो गोपेश्वर जाने वाली बस से रुद्रप्रयाग तक आएं। उसके बाद वहां से गुप्तकाशी के लिए जीप या दूसरी बस बहुत आसानी से मिल जाती है। ज्यादा देर हो जाने पर यहां बसे या जीपें भी नहीं मिलती और जीप वाले रिजर्व करके ले जाने की बात करते हैं। इसलिए इधर के मार्गों पर यात्रा करने के लिए आप अपने आवास या होटल से सुबह जल्दी निकलें जिससे शाम होने से पहले अपनी मंजिल पर पहुंच जाएं।

गुप्तकाशी में कहां ठहरें : यहां ठहरने के लिए होटलों और गेस्ट हाउसों की कोई कमी नहीं है। हर बजट के लोगों के लिए यहां अच्छी कीमत पर कमरा मिल जाता है। यात्रा सीजन अप्रैल से जून और सितंबर-अक्टूबर में यहां कमरे दोगुने दाम पर मिलते हैं पर इसके अलावा यहां बहुत ही सस्ती दरों पर कमरा मिल जाता है। वैसे सर्दियों के मौसम में ईधर गिनती के ही लोग आते हैं तो इस मौसम में 200 रुपए में अच्छा और साफ-सुथरा कमरा मिल जाता है। अगर ज्यादा जरूरी न हो और रोमांच के शौकीन न हो तो जुलाई और अगस्त के महीने में इधर न आएं क्योंकि इस मौसम में आने से आप जितना सोच कर आएंगे उससे बहुत घूम पाएंगे क्योंकि इस दौरान ईधर बरसात बहुत होती है जिससे भू-स्खलन हो जाता है और रास्ते बंद हो जाते हैं। वैसे गुप्तकाशी में ठहरने के लिए गढ़वाल मण्डल विकास निगम के पर्यटन आवास गृह बहुत ही बढि़या विकल्प है जिसकी आॅनलाइन बुकिंग http://www.gmvnl.in/ भी पर किया जा सकता है।



इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली




आइये अब इस यात्रा के कुछ फोटो देखते हैं :




हरिद्वार से ऋषिकेश के रास्ते में सड़क का हाल

ऋषिकेश शहर से बाहर निकलने पर सड़क का हाल 

पहाड़ और उमके ऊपर पेड़ और बादल 

पेड़ों की हरियाली से ढंके पहाड़ 

पेड़ों की हरियाली से ढंके पहाड़

बरसात से ख़राब हुई सड़क 

पहाड़ के साथ बहती गंगा 

पहाड़ों के बीच बहती गंगा

हरे पहाड़ के ऊपर नीले और सफ़ेद बादल

हरे पहाड़ के ऊपर नीले और सफ़ेद बादल

हरे पहाड़ के ऊपर नीले और सफ़ेद बादल 

पहाड़ के ऊपर हरियाली 

खूबसूरत नज़ारे 

खूबसूरत नज़ारे 

पहाड़ से गिरता पानी 

भूस्खलन से बंद हुई सड़क से मलबा हटाता जेसीबी मशीन 

मार्ग खुलने के इंतज़ार में गाड़ियां 

पहाड़ों के ऊपर बरसात के बादल 

पहाड़ों के ऊपर बरसात के बादल

पहाड़ों के ऊपर बरसात के बादल

पहाड़ के ऊपर साफ आसमान 

पहाड़ के ऊपर साफ आसमान

पहाड़ों के ऊपर बरसात के बादल

भूखलन के कुछ निशान 

गंगा का एक दृश्य 

पहाड़ों के बीच गंगा 

पहाड़ों के ऊपर बरसात के बादल

डरावने बादल 

गंगा का एक और दृश्य 

ब्यासी के होटल के गंगा का मनोहारी दृश्य 

देवप्रयाग से श्रीनगर के बीच  कहीं 

देवप्रयाग से श्रीनगर के बीच  कहीं 

गंगा का एक दृश्य और साथ में सड़क 

सड़क पर बहते पानी से पार गाड़ी 

खुली सड़क 

काश ऐसा ट्रैफिक दिल्ली में होता 

रात के समय गुप्तकाशी दिखाई देता उखीमठ 

इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें

भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली





19 comments:

  1. शानदार यात्रा विवरण । खूबसूरत फोटी । उस पर गजब की बरसात। "जिंदगी भर न भूलोगे वो बरसात की रात"वैसे बरसात में पहाड़ो पर घूमना मुझे पसंद नही है।
    " जो पहाड़ अभी सीना ताने खड़ा था अब नीचे पड़ा कराह रहा था। चुममेश्वरी कथन ☺

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    1. बहुत बहुत मीठा मीठा धन्यवाद बुआ जी। इस पूरी यात्रा में बरसात इतना परेशान किया कि कुछ कह नहीं सकते बुआ जी। पर इस बरसात के कारण ही पहाड़ों की जो खूबसूरती देखने के लिए मिला वो पूरी जिंदगी के लिए यादगार रहेगी बुआ जी। एक बार घूम कर देखिए बुआ पहाड़ों में बरसात के समय में। इस मौसम में पहाड़ों में भूस्खलन की समस्या से थोड़ी दिक्कत तो होती ही है।

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  2. क्या शानदार नजारे है

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद जितेन्द्र जी।

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  3. बहुत बढ़िया सिन्हा जी

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अनिल भाई जी।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद भाई जी।

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  5. आपके कमरे की bargaining की ट्रिक देख कर मुझे मेरी याद आ गयी...बिल्कुल ऐसे ही और कई और तरीको से में होटल में bargain करता हु...जाना था जापान पहुच गए चीन कोई बात नही गुप्तकाशी ही सही...बारिश के जैसे आसार है वैसे तो लगता है दो दिन बहुत ज्यादा मजा आने वाला है आपको.... आगे की कड़ी की प्रतीक्षा रहेगी

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    1. पहले तो बहुत सारा धन्यवाद आपको। सुबह से ही इंतजार था आपका। नमस्ते करने भर से ही महंगा कमरा सस्ते में मिल गया और अंजान लोगों को भी नमस्ते करना कभी कभी लाभदायक हो जाता है। चले थे उखीमठ और पहुंच गए गुप्तकाशी। हां बारिश तो पूरे यात्रा में एक साथी की तरह ही चलता रहा। अगली कड़ी जल्दी ही आपके सामने होगी

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  6. अभ्यानन्द भाई, एकदम ठीक कहा,सफर में एकमत से चलना काफी मजा देता है । हरिद्वार से चले तो छह ही थे पर रूद्रप्रयाग से सात हो गए। भई, इंद्रदेव ने हमारा साथ यात्रा पूर्ण होने के बाद ही छोड़ाथा। गुप्तकाशी तो इसलिए चले गए कि पूर्णिमा को भोलेनाथ के दर्शन के बाद कालीमठ में माता के दर्शन भी हो जायेंगें और कार्तिकेय स्वामी के बदले कालीमठ की यात्रा पूरी हो जायेगी । आपके साथ लगा ही नहीं कि हमलोग पहली बार मिले और साथ साथ घुमक्कड़ी कर रहे हैं । यादगार यात्रा,पिक्चर अभी बाकी है....

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    1. जी भाई जी, जब तक एक मत न हो सफर में मजा नहीं आता। पर इस यात्राा में एक साथी तो हमारा नया बना था तो हमारे मत का नहीं था, वो तो बिल्कुल ही अलग मत का था, वही बरसात जो केवल हम लोगों को परेशान करने ही आया था। और जो होता है अच्छे के लिए होता है, कुछ भी होता है उसमें कुछ कारण जरूर होता है, कार्तिक स्वामी न जाने का मलाल ही रज जाता अगर विश्वनाथ मंदिर और कालीपीठ के दर्शन न करते तो। हमें भी आप से और सब लोगों से मिलकर ये एक पल के लिए प्रतीत नहीं हुआ कि हम पहली ही बार मिल रहे हैं। पिक्चर तो अभी पूरी बाकी है, बस दस दिन के अंदर ही पूरी यात्राा लिखनी है।

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  7. बहुत बढ़िया वर्णन सर जी। आप बरसातों में ही घूम आये। मेरा भी 5 साल से प्लान है फूलों की घाटी जाने का, अगस्त में फूल खिलने का समय होता है। परंतु बरसात की वजह से हर बार प्लान चौपट। इस बार लगता है आपसे प्रेरणा ले के हम भी कर ही आएंगे फूलों की घाटी की सैर।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपका विकास जी!!!!
      तो इस बार चले जाइएगा बरसात में, आप तो वैसे भी बाइकर किंग है, जब चाहे जा सकते हैं। बरसात में पहाड़ों की खूबसूरती कई गुना बढ़ जाती है और उसका सौंदर्य देखते ही बनता है। हर जगह झरने, हरियाली, खिले-खिले फूल मनोहारी लगते हैं। शुभकामनाएं आपको आने वालाी यात्राा के लिए।

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  8. अभय जी.... बढ़िया विवरण... उखीमठ की जगह गुप्तकाशी पहुँच गये ... बरसात में परेशानी तो बहुत आती है पर हरियाली भी भरपूर मिलती है .... वैसे बरसातो में कम ही जाना चाहिए पहाड़ो पर.

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    1. धन्यवाद जी!!
      चले तो थे उखीमठ के लिए ही पर पहुंच गए गुप्तकाशी। शायद महादेव की यही मर्जी थी कि मैं उनके पास आऊं, श्रावण पूर्णिमा, दिन सोमवार को उनके दर्शन का लाभ लूं। बरसात में नहीं ही जाना चाहिए पर जाकर भी बहुत कुछ हासिल हुआ। एक तो भीड़भाड़ नहीं मिली, प्रकृति का खिला-खिला सौंदर्य देखने के लिए मिला, अब तो फिर से जाएंगे बरसात में।

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