तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा के इस भाग में आइए हम आपको तुंगनाथ मंदिर से चद्रशिला की चोटी तक ले चलते हैं। जैसा कि पहले के आलेखों में आपने पढ़ा कि कैसे हम तुंगनाथ मंदिर पहुंचे फिर चंद्रशिला गए। जब चंद्रशिला जा रहे थे तो चंद्रशिला के रास्ते से भटककर गोपेश्वर के रास्ते पर चले गए और बहुत मुश्किल हालातों में उलझकर किसी तरह वापस आए। रास्ते में आने वाली दुश्वारियों ने हमारे चंद्रशिला तक पहुंचने के हौसले को तोड़ दिया था, पर उसी शाम तुंगनाथ मंदिर परिसर से प्रकृति के कुछ अद्भुत दृश्यों के दर्शन हुए और उन अद्भुत दृश्यों को देखकर एक उम्मीद जगी और फिर से चंदशिला जाने की योजना बनाई। चंद्रशिला समुद्र तल से लगभग 4000 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और तुंगनाथ जी का मंदिर लगभग 3600 मीटर की ऊंचाई पर है। दोनों स्थानों के बीच की दूरी करीब 1.5 किलोमीटर है। 1.5 किलोमीटर की दूरी में करीब 400 मीटर की ऊंचाई चढ़ने का मतलब ही है कि अपने आप में एक कठिन परीक्षा से होकर गुजरना। तुंगनाथ मंदिर के दर्शन करने के लिए आने वाले अधिकतर लोग मौसम की बेरुखी से परेशान होकर चंद्रशिला न जाकर मंदिर से ही वापस चले जाते हैं। यहां का मौसम हर पल बदलता है। इस बात का कोई पता नहीं कि कब यहां बरसात हो जाए और कब मौसम अच्छा हो जाए। जो लोग चंद्रशिला पहुंच भी जाते हैं तो इस बात की कोई उम्मीद नहीं होती कि वहां सब कुछ अच्छा ही दिखेगा। कभी कभी तो चंद्रशिला के पास जाने पर भी चंद्रशिला साफ नहीं दिख पाता। यदि किस्मत अच्छी हो और मौसम साफ हो तो चंद्रशिला से हिमालय का जो नजारा दिखता है कि उसके आगे सब कुछ छोटा लगने लगता है। मैं भी चंद्रशिला तो पहुंच गया पर मौसम की बेरुखी ने हमें उन अद्भुत दृश्यों को देखने से वंचित ही रखा, पर वहां तक पहुंच जाने की जो खुशी महसूस हुई वो भी कम नहीं थी।
आईए अब आज की यात्रा की बात करते हैं। रात में हम करीब दो बजे सोए और चार बजते-बजते हमारी नींद खुल गई। हमारे जागने की आहट मिलते ही बीरेंद्र भाई भी आंखें मलते हुए उठ गए। इस समय ठंड इतनी थी कि रजाई और कम्बल के अंदर अगर कहीं से हवा आती तो लगता कि ये ठंड हमारी जान ले लगी। फिर भी न चाहते हुए भी हमने कमरे से बाहर निकल कर देखा तो कुछ घंटे पहले शुरू हुई बरसात अभी भी जारी थी। पहले तो ऐसा लगा कि आज भी चंद्रशिला जाने का सपना अधूरा ही रह जाएगा। अब क्या होगा, आज भी चंद्रशिला जा पाएंगे या नहीं ऐसे ही सोचते-सोचते आधा घंटा बीत गया। फिर हम दोनों ने यही फैसला किया कि हम सब अपनी तरफ से तैयारी करके तैयार रहते हैं, अगर बरसात थोड़ी कम भी हुई तो हम सब निकल जाएंगे अन्यथा यहीं से भोलेनाथ का जलाभिषेक करके वापस चले जाएंगे, लेकिन आज हम लोग कल की तरह कोई जोखिम नहीं लेंगे। सब कुछ सोच विचार करने के बाद हम दोनों ने दूसरे कमरे में सो रहे अपने चारों साथियों को जगाया और जल्दी-जल्दी चलने की तैयारी करने के लिए बोलकर हम दोनों भी तैयार होने लगे। सबके तैयार होते-होते लगभग 5 बज गए। तैयार होकर कमरे से बाहर निकल कर देखा तो बरसात कुछ कम हो चुकी थी। बरसात की रफ्तार कम होती देख मन में उम्मीद जागने लगी कि लगता है कि हम चंद्रशिला पहुंच जाएंगे। हमने तो बरसात में ही निकलने की जिद करना शुरू कर दिया पर बीरेंद्र भाई ने कुछ देर और इंतजार करने की बात की जिसे हमने भी मान लिया। जैसे-जैसे समय बीत रहा था वैसे-वैसे बरसात भी कम होती जा रही थी और धीरे-धीरे बस बूंदा-बांदी ही रह गई।
अब तक साढ़े पांच बज चुके थे और बरसात भी बंद हो चुकी थी। जब हम सब निकलने के लिए तैयार हुए तो कल की तरह आज भी सुप्रिया जी ने वहां जाने से मना कर दिया तो हम पांच लोग (मैं, बीरेंद्र जी, सीमा जी, राकेश जी और धीरज जी) चंद्रशिला के लिए निकल गए। आज तो रास्ते का पता था इसलिए आज दुविधा की कोई बात ही नहीं कि किधर जाना है। करीब दस मिनट के सफर के बाद हम उस जगह पहुंच गए जहां से चंद्रशिला का रास्ता अलग होता है। कल जब हम रास्ता भटक जाने के बाद वापस आए थे तो मंदिर के पुजारियों से बात करने पर उन्होंने बताया था कि जहां से रास्ता अलग होता है वहां एक चंद्रशिला के रास्ते के बारे में जानकारी देने वाला बोर्ड लगा हुआ था पर शायद उस बोर्ड को कुछ शरारती लोगों ने बोर्ड को उखाड़ कर फेंक दिया होगा इसलिए वो बोर्ड हमें नहीं दिखा। यहां पहुंचकर हमने भी उस बोर्ड को खोजने की कोशिश की कहीं पड़ा मिल जाए तो उसे उठाकर किसी चट्टान के सहारे खड़ा कर देंगे तो बाद में आने वाले लोगों का रास्ता भटकना नहीं पड़ेगा। हमने बहुत कोशिश की पर हमें बोर्ड नहीं मिला तो हम फिर आगे बढ़ गए। यहां से आगे बढ़ते ही कुछ शरारती लोगों की करतूतों के निशान दिखने आरंभ हो गए। शराब और बीयर की बोतल जहां तहां फेंकी हुई मिलनी आरंभ हो गई। ऐसी जगहों पर आकर भी अगर कोई इस तरह की ओछी हरकत करे और प्रकृति से खिलवाड़ करे, शराब और बीयर की पार्टियों करे, तो ऐसे लोगों का तो कोई ईलाज ही नहीं हो सकता। खैर हम चलते रहे और कुछ आगे चले तो जंगली जानवरों में हिरण, कांकड़ और कुछ पक्षियों के झुंड दिखने लगे, बरसात के बादल इतने घने थे कि उनकी साफ तस्वीर ले पाना संभव नहीं हो सका। ऐसे ही तस्वीर लेते हुए हमारी नजरें जब ऊपर की ओर गई तो चंद्रशिला की चोटी पर लहराता ध्वज दिख गया जिसे मेरे साथ-साथ सभी साथियों ने देखा।
ध्वज दिखते ही हम लोगों में उत्साह जाग गया कि अब क्या अब तो चंद्रशिला पर पहुंच ही जाएंगे। हम सब आगे बढ़ते रहे और अपनी मंजिल के नजदीक पहुंचते रहे। जैसे जैसे आगे बढ़ते जा रहे थे वैसे-वैसे रास्ते भी खत्म होते जा रहे थे जो आगे चलकर बिल्कुल समाप्त ही हो गए। यहां से आगे का सफर हम लोगों को बिना रास्ते के ही तय करना था। चंद्रशिला की चोटी दिखने के कारण हम लोग भी रास्ता न होते हुए भी आगे बढ़ते रहे। चंद्रशिला दिखते रहने से आज रास्ते से भटकने का कोई सवाल ही नहीं था और हम लोग धीरे धीरे चलते रहे और करीब एक घंटे के सफर के बाद चंद्रशिला पर पहुंच गए। चंद्रशिला के ऊपर एक छोटा सा मंदिर बना है जिसके बारे में रात में पुजारियों ने बताया था कि लोग वहां बैठकर शराब आदि चीजों का सेवन न करें इस चीज से बचने के लिए वहां पर मंदिर का निर्माण किया गया है।
यहां पहुंचते ही ऐसा लगा जैसे हमने माउंट एवरेस्ट फतह कर लिया। हमारे लिए तो यहां तक पहुंचना ही काफी था और ये किसी माउंट एवरेस्ट से कम नहीं था। मौसम की इतनी बेरुखी और दुश्वारियों को झेलने के बाद यहां पहुंचने की खुशी हम सबके चेहरे पर साफ झलक रही थी। ये तो हमारा दुर्भाग्य था कि हमें यहां मौसम साफ नहीं मिला और अगर मौसम साफ होता तो जितनी खुशियां अभी हमारे चेहरे पर है उससे न जाने कितनी ज्यादा खुशी होती। अगर मौसम साफ रहता तो चंद्रशिला की चोटी से सूर्योदय के नजारे का आनंद लेते। सामने चैखंभा पर्वत पर जब सुबह की सुनहरी धूप पड़ती तो धूप पड़ने से बर्फ से ढंके पहाड़ जिस कदर चमकते उसी तरह हमारे चेहरे पर खुशी की एक अलग ही चमक होती, पर ऐसा हो नहीं सका। अब चाहे जो भी हो हम यहां तक पहुंच गए यही क्या कम है। यहां आकर सब कुछ शांत-शांत लग रहा था। सब कुछ नीरवता धारण किए हुए। हवा की सांय-सांय के अलावा और यहां किसी भी प्रकार की कोई हलचल नहीं थी। ऐसा लग रहा था जैसे हम किसी दुनिया में आ गए हैं। सब कुछ कहानियों में सुने परियों के देश जैसा अनुभव करा रहा था। काश! कुछ दिन यहां बिताया जाता तो कैसा शांति और शुकून मिलता। पर ऐसा हो नहीं सकता था। बस कुछ ही मिनटों में हमें यहां से वापस चले जाना होगा!!!!
यहां कुछ पल बिताने के बाद हम हम यहां से करीब 100 मीटर आगे तक गए और वहां जाकर चोटी के बिल्कुल किनारे पर एक चतुर्मुखी शिवलिंग के दर्शन हुए। अब शिवलिंग दिख जाए और उस पर जल न चढ़ाया जाए ऐसा कैसे हो सकता है। शिवलिंग पर जल चढ़ाने के लिए सोच ही रहे थे और ईधर-उधर नजरें दौड़ा रहे थे कि कुछ तो ऐसा चीज दिखे कि भोलेनाथ का जलाभिषेक किया जा सके। सहसा कुछ दूरी पर एक पीतल का बड़ा सा बर्तन दिखा और उसमें बरसात के कारण कुछ पानी भी जमा हो चुका था। हम सबने उसी बरतन में जमा पानी से भोलेनाथ का जलाभिषेक किया और यहां भी चोटी के किनारे पर बैठकर यादों को संजाने के लिए कुछ फोटो लिए। अब हमें यहां से वापस जाने का भी समय हो रहा था। घड़ी देखा तो पौने सात यानी 6ः45 बज चुके थे।
बूंदा-बांदी एक बार फिर से आरंभ हो चुकी थी जो धीरे-धीरे तेज होती जा रही थी और कुछ ही मिनटों में इसने अपनी रफ्तार पकड़ ली और झमाझम बारिश होने लगी। इतनी ऊंचाई पर पहुंचते ही फिर से कल की ही तरह जोर की बरसात होने पर हम सब थोड़ा घबराने लगे और जितनी जल्दी हो सके नीचे उतरने लगे। जल्दी जल्दी नीचे उतरने के चक्कर में एक जगह धीरज जी का पैर फिसला और वो कीचड़ में सन गए। अब हम कहां पीछे रहते। मैं खुद इस मामले में अनाड़ी व्यक्ति होते हुए भी उनको उतरने के लिए सही तरीका बताने लगे और मेरा भी पैर फिसल गया। ये तो गनीमत रही कि गिरते समय पहले हाथ जमीन पर आया वरना मैं भी कीचड़ से स्नान कर चुका होता। यहां के बाद हम सब संभल कर धीरे धीरे उतरने लगे। अब तक बरसात का पानी भी ऊपर से गिरते हुए हमारे साथ-साथ चलने लगा था। हम लोग धीरे-धीरे चलते हुए करीब 45 मिनट का सफर करके ठीक साढ़े सात बजे नीचे आ गए।
यहां आते ही सबसे पहले मंदिर के एक पुजारी से भेंट हुई। हम लोगों पर नजर पड़ते ही उन्होंने कहा कि मंदिर में आरती का समय हो रहा है और हम आप लोगों का ही इंतजार कर रहे हैं। अब आप लोग जल्दी से मंदिर में आ जाइए। हम सब उसी समय उनके पीछे हो लिए और मंदिर के पास पहुंच गए। मंदिर के पास पुजारियों के अलावा और कोई नहीं था। केवल हम छः लोग थे जो आज भोलेनाथ पर जलाभिषेक करने वाले थे। हम लोग वहीं मंदिर के पास रखे बड़े-बड़े पीतले के बर्तनों में पास में ही गिरती जलधारा से जल भर कर लाए और बड़े इत्मीनान से जलाभिषेक किया। हम लोगों के जलाभिषक करते करते आरती की तैयारी हो गई। जितने देर तक आरती हुई हम मंदिर के अंदर ही खड़े होकर आरती में सम्मिलित हुए। आज यहां आकर ऐसा लग रहा था जैसे हमने सब कुछ पा लिया हो। हमने न जाने कितने मंदिरों में दर्शन किए हैं, पर पंडे-पुजारियों ने वहां की ऐसी हालत बना रखी है कि वहां दुबारा जाने का मन नहीं करता। यहां हमसे किसी भी पुजारी ने किसी प्रकार की अभद्रता नहीं की। अगर नम्बर देने की बात आए तो यहां के पुजारियों को हम 100 में से 110 नम्बर देना चाहेंगे। आरती खत्म हाने के बाद हमने एक बार फिर शिवलिंग के समक्ष अपना शीश नवाया और बाहर निकल गए। बाहर निकलने के बाद पुजारी जी से प्रसाद ग्रहण किया और फिर अपने कमरे की तरफ चल पड़े।
हम सबने कमरे में पहुंचने के बाद अपना अपना सामान लिया और फिर मंदिर के आंगन से होते हुए खिचड़ी के पैसे देने के लिए दुकान की तरफ बढ़ गए। दुकान से थोड़ा पहले एक पुजारी जी खड़े मिले और उन्होंने कहा कि आप लोग गलत समय में आ गए और अगली बार अप्रैल या मई के महीने में आइएगा तो यहां का नजारा और भी खूबसूरत दिखेगा। पुजारी जी का धन्यवाद करते हुए हम चाय की दुकान पर आए और एक-एक चाय पिया और कल रात खाई खिचड़ी के पैसे दिए और वापस चोपता की तरफ चल पड़े। अब तक आठ बज चुके थे और हम जल्द से जल्द नीचे चोपता पहुंच जाना चाहते थे। जब हम दिल्ली से चले तो अकेले थे और हरिद्वार पहुंचकर हम छः लोग हो गए थे और आगे के सफर में जब हम रुद्रप्रयाग पहुंचे तो हम छः से सात हो गए थे। उसके बाद तुंगनाथ पहुंचने पर हमारी मुलाकात अपने आठवें साथी परेशानी जी से हुई थी, और शायद उनका साथ यहीं तक का था।
अपने आठवें साथी को अलविदा कहते हुए हम अपने सातवें साथी के साथ वापस चल पड़े। फिसलन भरे रास्ते पर उतरते हुए हमें दिक्कत ज्यादा हो रही थी तो हमने सैंडल खोलकर हाथ में लिया और खाली पांव ही उतरने लगा। कुछ ही दूर चला था कि ठंड के मारे पैर सुन्न होने लगे तो हमने फिर से सैंडल पहन लिया और सधे कदमों से चलते हुए धीरे धीरे डेढ़ घंटे के सफर के बाद ठीक साढ़े नौ बजे हम चोपता पहुंच गए। तुंगनाथ से चोपता आने में हमें पूरे डेढ़ घंटे लगे और इस दौरान चोपता से तुंगनाथ जाने वाले की संख्या केवल और 3 रही। कल रक्षाबंधन होने के कारण स्थानीय लोगों के कारण चोपता से तुंगनाथ का रास्ता जितना गुलजार लग रहा था आज उतना ही सूना नजर आ रहा था। बरसात का समय होने के कारण कुछ मेरे जैसे सनकी किस्म के लोग ही ईधर का रुख कर रहे थे। ये तो अच्छा था कि हमने जो योजना बनाई थी उसके अनुसार हम ऐसे दिन यहां पहुंचे जिस दिन यहां कुछ लोग दिखे वरना अगर हमारे यहां आने का दिन एक दिन पहले या बाद होता तो हम रास्ते पर भूले-भटके राही की तरह ही नजर आते।
चोपता पहुंचते ही हम सबने सबसे पहले कल से अपने गीले हुए कपड़ों को बदला और सूखे कपड़े पहने। उसके बाद सारा सामान पैक करके हम सब सीधे पास ही एक चाय की दुकान पर गए और गरम गरम चाय पिया और फिर वापस कमरे में आ गए। घड़ी देखा तो 10 बज चुके थे और हमें शाम तक हरिद्वार पहुंचना था। सार्वजनिक वाहन से दस बजे चोपता से शाम होने तक हरिद्वार पहुंचना भी अपने आप में एक बड़ा काम था। सबसे पहले तो हमें चोपता से उखीमठ पहुंचने की जद्दोजहद करनी थी। उखीमठ से ही हरिद्वार या रुद्रप्रयाग की गाड़ी मिलेगी। तो आईए आप ही हमारे साथ किसी ऐसे गाड़ी को खोजने में मदद कीजिए जो हमें जल्दी से जल्दी उखीमठ पहुंचा दे, जिससे समय रहते हम हरिद्वार पहुंच जाएं और फिर वहां से आगे अपने अपने घर की तरफ प्रस्थान करें। इस पोस्ट में बस इतना ही। चोपता से हरिद्वार तक का सफर भी हमारे लिए कम मुश्किलों वाला नहीं रहा। उत्तराखंड की परिवहन व्यवस्था के आगे कभी-कभी तो ऐसा प्रतीत हुआ कि हमारी ट्रेन छूट जाएगी पर ऐसा हुआ नहीं। चोपता से हरिद्वार तक के सफर का विवरण अगले पोस्ट में। अभी के लिए हम आपसे विदा लेते हैं। बस कल ही मिलते हैं इस यात्रा के अंतिम पोस्ट के साथ।
अब आज्ञा दीजिए। जय भोलेनाथ।
इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें
भाग 1: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 1) : दिल्ली से हरिद्वार
भाग 2 : तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी
भाग 2 : तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी
भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली
आइये अब इस यात्रा के कुछ फोटो देखते हैं :
तुंगनाथ मंदिर के पास गेस्ट हाउस के बाहर घास का मैदान |
चंद्रशिला जाने का रास्ता इस पत्थर के पास से ही अलग होता है |
नीचे से आने वाला रास्ता मंदिर की तरफ से आता है और ऊपर की तरफ जाने वाला चंद्रशिला की तरफ जाता है |
चंद्रशिला के रास्ते में बीरेंद्र जी और सीमा जी तथा राकेश और धीरज जी |
ऐसी जगहें भी इन बोतलों से नहीं बच पाई |
मौसम का मिजाज ठीक नहीं लग रहा |
चंद्रशिला जाने वाला रास्ता (क्या ये सच में रास्ता है) |
चंद्रशिला के रास्ते पर चलते हुए हमारे चारों साथी |
चंद्रशिला पहुंचने से पहले घास का मैदान |
चंद्रशिला पर बने मंदिर में लगी मूर्ति |
चंद्रशिला |
चंद्रशिला से थोड़ा पहले मैं |
चंद्रशिला से करीब 100 मीटर आगे स्थापित एक चतुर्मुखी शिवलिंग |
चतुर्मुखी शिवलिंग |
चंद्रशिला पर साथी धीरज, बीरेंद्र जी और मैं |
चंद्रशिला पर साथी राकेश जी |
चंद्रशिला बादलों की आगोश में |
चढ़ाई की थकान के बाद थोड़ा आराम करते हुए |
बीरेंद्र जी और मैं |
काकड़ (एक जंगली जानवर) |
इनको क्या कहेंगे |
तुंगनाथ मंदिर |
तुंगनाथ से चोपता के बीच एक दुकान |
मौसम ने फिर परेशान करना शुरू कर दिया |
ये बादल बिना बरसे मानेंगे नहीं |
हरियाली और बादल |
हरियाली, रास्ते और बादल |
आज भी बरसात ने खूब परेशान किया |
बरस जाऊं क्या |
पेड़ों के ऊपर बादल |
तुंगनाथ से चोपता के बीच झरना |
इस यात्रा के अन्य भाग भी अवश्य पढ़ें
भाग 1: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 1) : दिल्ली से हरिद्वार
भाग 2 : तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी
भाग 2 : तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग-2) : हरिद्वार से गुप्तकाशी
भाग 4: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 4) : कालीपीठ, उखीमठ
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली
भाग 5: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 5) : गुप्तकाशी से चोपता
भाग 6: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 6) : तुंगनाथ जी मंदिर
भाग 7: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्राा (भाग 7) : चंद्रशिला का अधूरा सफर
भाग 8: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 8) : चंद्रशिला फतह और चोपता वापसी
भाग 9: तुंगनाथ-चंद्रशिला यात्रा (भाग 9) : चोपता से दिल्ली
Dear Abhay,
ReplyDeleteWonderful journey very nicely told. Such ardous trekking is not my cup of tea! ;-)
Sushant Singhal
Very very thanks sir jee for deep of heart
Deleteबहुत ही बढिया जी।
ReplyDeleteवअस्तव में पुजारियों की बात बिल्कुल सही थी। हिमालय की कोई भी जगह हो, आपको सबसे बढ़िया नजारा april-may या september-october में मिलेगा जी।
मैं चंद्रशिला जाते वक्त shortcut लेता रहा, मेरा वास्ता इन रास्तों से नही पड़ा जी। पफ सुना था वहां कद लोगो से की एक रास्ता गोपेश्वर भी जाता है, आज देख भी लिया
बहुत बहुत धन्यवाद जी!
Deleteहां अप्रैल मई में अच्छा व्यू दिखता है, बरसात में बादल और धुंध के कारण कुछ नहीं दिख पाता!!
चंद्रशिला के रासते में कौन सा शाॅर्टकट दिखा जी, मंदिर से आगे चलकर जहां से चंद्रशिला का रास्ता अलग होता है वही रास्ता सीधा गोपेश्वर जाती है, पर अब नहीं ये पहले जाती थी, अब ये इलाका जंगली जानवरो का अड्डा है जी!!!!
बेमौसम आप लोग चले गए वरना तो बहुत खूबसूरत नजारे थे। समापन के नजदीक 👌
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद बुआ जी!!!
Deleteहां बुआ जी बिना मौसम के चले गए पर फिर भी कुछ ऐसे नजारे दिखे तो अच्छे मौसम में नहीं दिखते, जिसके फोटो मैंने इसके पहले वाले भाग 7 में लगाया है। अब यात्राा समापन की ओर है!!!
आखिर आप चंद्रशिला पहुंच ही गये ! बडा अच्छा लगा आपका व्रतांत पढकर
ReplyDeleteजी हां मौसम की बेरुखियों और दुश्वारियों का सामना करते हुए चंद्रशिला पहुंच ही गए। बहुत बहुत धन्यवाद आपका जो आपने अपना कीमती समय देकर मेरे आलेख को पढ़ा।
Deleteबेहद बढ़िया अभयानंद जी, किस्मत ने आपका साथ खूब दिया कि आप आखिर चन्द्रशिला ही गए... नही तो नाकामयाबी की टीस को मुझ से बेहतर कौन जान सकता है।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद विकास जी, हां भोलेनाथ की कृपा के कारण ही हम तुंगनाथ और चंद्रशिला तक पहुंच सके, वरना इस मौसम में तो एक पक्षी भी यहां नहीं था। अगली यात्रा में आपकी अधूरी यात्रा अवश्य पूरी ऐसी मेरी शुभकामनाएं हैं।
Deleteआज पढ़ पाया, जब खुद ही वहाँ से हो आया, सबकुछ जाना पहचाना सा लग रहा है। आपने विकट परिस्थितियों के बावजूद दो बार चंद्रशिला फतह कर लिया। यह निश्चय ही बहुत सराहनीय है। जय हो!!! 🙏🙏🙌🙌
ReplyDeleteआपने चाहे जब भी पढ़ा पढ़ लिया उसका खूब खूब धन्यवाद जी। हां आप तो उन चीजों को देखकर आ गए जी और आपके साथ हम भी रहे। बहुत बहुत धन्यवाद आपका।
Deleteअभय भाई बड़े किस्मत वाले हो चंद्रशिला पर दो बार आपका पाव फिसल गया है...देखो सम्हाल कर चला करो...आपको पता ही नही था कि आप नवंबर में फिर से यहां आने वाले हो...बहुत बढ़िया पोस्ट
ReplyDeleteजी हां सही कहा आपने पांव फिसलने वाली बात और एक बात दूसरी बार के चंद्रशिला यात्राा में भी हुई कि लगभग उसी स्थान पर फिर से गिरा जहां पहली बार गिरा था, और इस बार चोट गहरी लगी। जब पहली बार गया था तो यहां दुबारा आने के बारे नहीं पता था कि भोलेनाथ इस जीव को फिर से इतनी जल्दी यहां बुला लेंगे।
Deleteआखिर चंद्रशिला जीत ही लिया और तुंगनाथ में रह भी लिया.... खूब बैनर फहराया घुमक्कड़ी दिल से का ...... घुमक्कड़ी दिल से .... बारिश बारिश और बारिश .... इस बारिश ने आपका साथ खूब निभाया इस यात्रा में .... हमारे साथ इस बारिश ने गंगटोक में खूब साथ दिया था ....
ReplyDeleteवाह.. बढ़िया चित्र....
धन्यवाद भाई जी!!!
Deleteजय भोलेनाथ, आखिर चंद्रशिला फतह हो ही गया और महादेव की शरण में एक रात बिताने का मौका भी मिल गया।
बैनर तो उस रास्ते पर भी फहराने से बाज नहीं आए थे जब हम भटक गए थे। चंद्रशिला पर बैनर तो फिर से फहर जाएगा पर जहां हम भटक कर गए थे वहां दुबारा बैनर नहीं जा सकता था, सो वहां भी बैनर लहरा दिए थे। घुमक्कड़ी दिल से मिलेंगे फिर से।
Bahut khoobsoorat post.
DeleteKuch log bhor me hi Chandrashila pahuchne ki koshish karte hai taki sooryoday dekh sake.
Hum logo ne is bar Chandrashila ki choti par kareeb 1 ghanta bitaya tha.
Ek bar January ki barfbari me jaiye. Alag hi aanand h.
दो बार तो जा चुके हैं पहली बार अगस्त में तब बरसात का आनंद लिया और दूसरी बार नवम्बर में तब चंद्रशिला पर सूर्योदय और चोपता में सूर्यास्त का मजा लिया। पहली बार भी तुंगनाथ से सूर्यास्त का मजा लिया था। दोनों बार मौसम ने अलग-अलग रूप दिखाए। नवम्बर में जिस दिन हम गए थे उसी दिन से बर्फबारी आरंभ हुई थी। बहुत अच्छा रहा था।
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बहुत बहुत धन्यवाद आपको
ReplyDeleteशानदार प्रस्तुति
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपको
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