Monday, January 14, 2019

रास्ता (Way)

रास्ता (Way)



जब हम कहीं किसी सफर पर निकलते हैं तो बस दो चीजें ही ध्यान में रहती है कि कहां से चलना है और कहां जाना है। यहां से वहां तक और फिर वहां से वहां तक। पर कुछ दीवाने हमारे और आप जैसे भी होते हैं जिनका ध्यान यहां से वहां तक बहुत कम होता है। उनको ध्यान तो यहां से वहां के बीच पड़ने वाले रास्ते पर होता है। जो रोमांच रास्तों को देखकर होता है वो मंजिल पर पहुंचकर नहीं। मंजिल तक पहुंचकर तो सफर समाप्त हो जाता है। रास्ते तो बस चलते रहते हैं जो कभी खत्म नहीं होता। जो खूबसूरती किसी सफर में रास्ते में दिखाई देती है वो मंजिल पर पहुंचकर नहीं। मंजिल तो बस एक विश्रामस्थल है जहां कुछ देर रुकना फिर आगे चल पड़ना है।


रास्ता एक ऐसा शब्द जिससे होकर गुजरना सबको होता है पर इसे पसंद करने वाले लोग बहुत कम हैं। सफर के दौरान सबसे ज्यादा परेशानी का सामना रास्ते में ही करना पड़ता है पर मुझे तो रास्ते बहुत प्यारे लगते हैं क्योंकि रास्ता ही वो चीज है सफर में हमें वो रंग दिखाते हैं जो हर रंग से गहरा होता है। उन रास्तों पर चलते हुए मंजिल तक पहुंचने का रोमांच तन और मन पर हावी रहता है। रास्ते में चलते हुए रुकना और ईधर-उधर देखना और मन ही मन रोमांचित होना कि काश ये रास्ते कभी खत्म न हो। वो कहावत तो आपने सुना ही होगा कि ‘‘राहों से राहें ............ मिलके भी मिलती नहीं’’। जब हम काॅलेज में पढ़ते थे तो जब भी गांव आना होता था तो बस का रास्ता होते हुए भी नहर के किनारे तो कभी नदियों के किनारे किनारे पैदल ही आते थे और वो भी पैदल ऐसे-वैसे नहीं आते थे। दो घंटे का सफर रुक-रुक कर चलते हुए पांच से छः घंटे लगाते थे। कुछ दूर आने के बाद कुछ दूर वापस जाते थे फिर रुक कर देखना कि वहां से यहां आया। फिर मन ही मन दुखी होना कि अब तक तो हम घर पहुंच चुके होते।

बस और गाडि़यों में सफर को छोड़कर रास्तों में पैदल चलने का काम हमने बहुत पहले शुरू किया है जो आज भी बदस्तूर जारी है। ऑफिस से घर और घर से आॅफिस आज भी हम जान बूझ कर हिलते-डुलते पैदल ही आते-जाते हैं। सुबह ऑफिस का रास्ता 15 मिनट में पूरा करते हैं और शाम को वही रास्ता तय करने में मुझे 30 मिनट लगते हैंं। दस कदम चलना फिर ईधर-उधर पागलों की भांति देखना और फिर अपने रास्ते चल देना। हर दिन पत्नी से ये सुनना कि सुबह में तो आपको 15 मिनट लगते हैं पर अभी वापसी में 30 मिनट कैसे लगाते हैं। अब इस बात का मेरे पास कोई जवाब ही नहीं होता है। रास्तों की खूबसूरती को निहारने के चक्कर में हम अपने साथियों से हर जगह पीछे हो जाते हैं। अगर आप हमारे साथ पैदल चलें तो आप दो किलोमीटर चलेंगे तो हम डेढ़ किलोमीटर में अटक जाएंगे तो इसका ये कारण नहीं कि हम धीरे चलते हैं, उसका कारण है मेरा रास्तों से प्यार। रुक कर रास्तों से बातें करना मुझे बहुत पसंद है। अगर रास्ते ही नहीं तो मंजिल तक कैसे पहुंचेंगे। इसलिए मंजिल से कम रास्ते से ज्यादा प्यार है मुझे।

मंजिल तो आपका कुछ पल साथ देती है पर रास्ते सदैव साथ बने रहते हैं और साथ कभी नहीं छोडते हैं। कुछ रास्ते तो ऐसे होते हैं जिनके सामने मंजिल तक पहुंचने की चमक फीकी लगती है। रास्ते की खूबसूरती तन-मन में ऐसे बस जाती है कि मंजिल पर पहुंचकर रास्ते से बिछड़ने का गम सताने लगता है। रास्ते में चलते हुए आप सपनों की हसीन दुनिया में खोए हुए होते हैं कि मंजिल पर पहुंचकर ये करेंगे, वो करेंगे पर होता क्या है कुछ नहीं। मंजिल पर पहुंचे नहीं कि बस यही आह निकलती है कि उफ्फ थक गया चलते चलते, पर जब तक रास्ते में रहते हैं तो मंजिल तक पहुंचने की जल्दी होती है और मंजिल पर पहुंचकर लोग रास्ते को भूल जाते हैं, इसलिए प्यार रास्ते से करिए मंजिल से नहीं क्योंकि मंजिल का साथ तो कुछ देर में छूट जाएगा और फिर चलना आपको रास्ते पर ही पड़ेगा।

सभी फोटो तुंगनाथ से चोपता वापसी के समय 12 नवम्बर 2017 के हैं।







4 comments:

  1. बिलकुल सही कहा आपने। मैं आपकी बात से तथा ब्लॉग के शीर्षक से पूर्णतः सहमत हूँ । अक्सर व्यक्ति अपनी मंजिल तक पहुंचने की भागदौड़ में लगा रहता है । वह कभी यह नहीं सोचता कि मंजिल तक तो पहुंच ही जायेंगे मगर मंजिल तक जाने वाले रास्ते की खूबसूरती को निहारते हुए और महसूस करते हुए जाने का भी फायदा हैं, एक तो थकान नहीं होती और मंजिल तक कब पहुंच जाते हैं पता ही नहीं चलता।
    मैं भी रोज आफिस पैदल ही आता जाता हूँ। मैं घर से आफिस के लिए जल्दी निकलता हूं तथा टहलते टहलते आफिस पहुंचता हूं और इसी क्रम से वापस घर आता हूँ।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद अर्जुन जी।
      जो आनंद रास्ते चलते हुए आता है वो मंजिल पर पहुंचकर नहीं क्योंकि मंजिल पर पहुंचकर सफर समाप्त हो जाता है या वापसी शुरू हो जाता है।

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