Thursday, January 3, 2019

एक अधूरा सफर (An unfinished journey)

एक अधूरा सफर (A unfinished journey)



बहुत दिनों से मन में था कि दीपावली का दिन बदरीनाथ में ठाकुर जी के चरणों में बिताऊंगा और उसी पर अमल करते हुए हम झोला लेकर निकल पड़े थे ठाकुर जी से मिलने। निकल तो पड़े थे लेकिन या तो ठाकुर जी मुझसे मिलना नहीं चाहते थे या फिर मेरी परीक्षा ले रहे थे कि कर्म और पूजा में मैं किसे प्राथमिकता देता हूं। अपनी बनाई योजना के अनुसार रात नौ बजे (5 नवम्बर 2018) घर से निकले और करीब 40 मिनट के छोटे से सफर के बाद हम पहुंच गए कश्मीरी गेट बस अड्डे। वहां जाते ही बस अड्डे के बाहर एक हरिद्वार जाने वाली यूपी रोडवेज की बस मिल गई। लेकिन बस जी पहले से ही सवारियों से सजे-धजे भरे हुए थे, केवल पीछे की दो-तीन सीटें खाली थी, इसलिए हमने उनको बाय-बाय कर दिया और बस अड्डे के अंदर चले गए। वहां कई सारी बसें थी जो अपने गंतव्य पर जाने के लिए सवारियों के इंतजार में खड़ी थी। हम भी एक देर न करते हुए एक हरिद्वार जाने वाली बस में समाहित हो गए और एक सीट पर अपना कब्जा जमा लिया।

बस में बैठने के बाद एक बार हमने घर पर सूचित भी कर दिया कि बस मिल गई है और मैं एक सीट पर कब्जा कर लिया हूं। कुछ ही मिनट बाद बस जी ठुमकते हुए बस अड्डे से बाहर आए और तांडव करते हुए रिंग रोड पर भागने लगे। फ्लाईओवर पर घूम-घूम कर चढ़ने के बाद बस जी यमुना पुल पर आ गए और देखते ही देखते शास्त्री पार्क को पीछे छोड़ते हुए सीलमपुर, शाहदरा फ्लाईओवर, सीमापुरी आदि जगहों को बाय-बाय करते हुए अपनी ही धुन में रमे हुए जल्दी ही मोहन नगर पहुंच गए। पहली बार बस से दिल्ली से हरिद्वार जा रहा था और खिड़की से अंधेरे को देख रहा था। अब उसे अंधेरा भी नहीं कह सकते क्योंकि क्योंकि बिजली वाले जुगनुओं (सड़क के डिवाइडर पर खंभे पर लगे बल्ब, सड़क किनारे के मकानों-दुकानों में जल्ते हुए बल्ब) की रोशनी से अंधेरे का तो केवल नाम भर था। मौसम में भी हल्की-हल्की ठंड थी और खिड़की से ठंडी ठंडी हवा आ रही थी जिस कारण हमने खिड़की के शीशे लगा दिए और सिर शीशे पर टिकाकर सोने की असफल कोशिश करते रहे।

हमने तो शीशे बंद कर दिए थे लेकिन आगे की सीटों पर बैठे लोगों ने शीशे बंद नहीं किए थे जिस कारण उन खिड़कियों से आने वाली ठंडी-ठंडी हवा अभी भी बस में बैठे मुसाफिरों का दिल बहला रही थी। मेरे जल्दी सोने के समय के हिसाब से सफर के रोमांच पर नींद हावी हो चुका था और नींद माता ने हमें अपने आंचल में छुपा लिया था। हालांकि बस के हिलने-डुलने से कभी कभी आंखें खुल जाती फिर भी हम वैसे ही शीशे से सिर टिकाए पड़े रहे। बस जी कभी ठुमकते (धीरे चलते हुए) तो कभी तांडव करते हुए (तेज चलते हुए) चल रहे थे और मुरादनगर भी पहुंच गए, लेकिन हम तो उसी सीट पर वहीं के वहीं बैठे हुए थे। मुरादनगर पहुंचने पर पहले तो हमने घर फोन करने का सोचा फिर छोड़ दिया कि बच्चे लोग सो गए होंगे तो जगाने का कोई फायदा नहीं क्योंकि समय भी करीब साढ़े बारह हो चुका था।

बस जी चले जा रहे थे और उनके चलने की गति से मेरे मन में भी एक विचार आ और जा रहा था कि मोबाइल बंद करें या रहने दें, क्योंकि इतनी रात को अब किसी को क्या जरूरत पड़ेगी मुझसे बात करने की और इन्हीं वैचारिक द्वंद्व के बीच बस जी कब मोदीनगर पहुंच गए पता ही नहीं चला। अचानक ही पाॅकेट में एक जोर का कंपन होने लगा, मतलब कि किसी ने याद किया था। पहले तो मन में आया कि आदित्या ने फोन किया होगा और हमने मोबाइल पाॅकेट से निकाला तो कुछ और ही दिखा। जिस नम्बर से फोन आ रहा था वो नाम हमारे सर मनोज सर का था। यहां सर का थोड़ा सा परिचय दे देता हूं, मेरे आॅफिस में दो डायरेक्टर हैं एक संजय सर दूसरा मनोज सर। संजय सर हर दिन आॅफिस आते हैं, लेकिन मनोज सर 10-15 दिन में एक बार आॅफिस का चक्कर लगा जाते हैं और आॅफिस के लोगों की छुट्टियों के बारे में उनको ज्यादा पता नहीं रहता कि कौन छुट्टी पर है और कौन नहीं, खैर संजय सर से उनको पता लग गया था कि हम छुट्टी पर हैं और कहीं जाने वाले हैं। कई बार तो ऐसा भी हुआ है हम गांव में रहते हैं और फोन आता है कि अभय कहां हो जरा कुछ देर के लिए आॅफिस आ जाओ, तब बड़े ही मायूसी के साथ बताना पड़ता है कि हम तो पटना आए हुए हैं।

इस समय उनका फोन देखकर कुछ अनहोनी की आशंका से मेरे मन में बहुत ही घबराहट हुई। ऐसे तो मुझे कभी फोन नहीं करते, लेकिन जरूरत पड़ने पर होली-दीवाली-दशहरे पर भी आॅफिस बुला लेते हैं। कुछ डर और कुछ संशय के साथ हमने फोन रिसीव करके पहले तो उनको प्रणाम किया। कुशल-क्षेम की बात होने के बाद उनका सवाल था कि संजय जी से बात हुई तो बता रहे थे कि तुम कहीं जाने वाले हो तो निकल गए या कल निकलोगे। मैंने उनको जो सच था वो बता दिया कि हम बदरीनाथ जा रहे हैं और अभी मुरादनगर पहुंचे हैं। फिर उनका कथन था कि अगर तुम इस स्थिति में हो कि वापस आ सकते हो तो आ जाओ, क्योंकि कुछ ऐसा काम है जो तुम्हारे बिना हो नहीं सकता। हमने केवल उनको इतना ही कहा कि आॅफिस में दीपावली की दो छुट्टियां थी तो एक छुट्टी लेकर हम निकल गए हैं। फिर उनकी तरफ से जवाब मिला कि तुम इसके बदले जब चाहो तीन क्या पांच छुट्टी ले लेना, पर हम चाहते हैं कि इस काम को कल अंतिम रूप दे दिया जाए, बाकी तुम देख लो अगर वापसी की गुंजाइश है तो आ जाओ, नहीं तो फिर अगले सप्ताह तक ये काम टल जाएगा। उनको हमने केवल इतना ही कहा कि ठीक है देखता हूं और उसके बाद दोनों तरफ से बात खत्म हो गई।

अब यहां से हमारे काम की जिम्मेदारी और ठाकुर जी के प्रति प्रेम के बीच द्वंद्व युद्ध आरंभ हो गया। कभी मन में आता कि चलो रहने दो, इतनी दूर आने के बाद वापसी नहीं करना, फिर मन में आता कि अरे नहीं अभय जिस आॅफिस के कारण तुम आज यहां तक पहुंचे हो, सुख-चैन से समय काट रहे, घुमक्कड़ी भी कर रहे हो, तो उसका नुकसान मत करो। और वैसे भी आॅफिस में समस्या ऐसी थी कि पिछले ही महीने 70 लोगों में बहुत से 41 लोगों को हटा दिया गया है क्योंकि कोचिंग क्लास बैंक की वैकेन्सी नहीं आने के कारण कोचिंग बंद हो गई। बाकी 29 लोगों में एक तुम भी हो जो केवल अपने काम के प्रति जिम्मेदारी के कारण ही इस प्रतिस्पर्धा में बचे रह गए हो। इतना कुछ मन में चलते हुए भी हमने यही सोचा कि जो होगा सो देखा जाएगा, पहले बदरीनाथ चलते हैं क्योंकि काम तो पूरे साल होता रहता है और होता रहेगा, इसके बाद हमने मोबाइल को बंद कर दिया कि अब कोई फोन नहीं आए।

पता नहीं ऐसे ही विचारों का द्वंद्व दिमाग में चलता रहा, कभी काम की जिम्मेदारी ऊपर आ जाती तो कभी बदरीनाथ यात्रा। एक तरफ काली नागिन सी काली स्याह सड़क पर बस भागी जा रही थी और दूसरी तरफ मेरे मन के अंदर बने सड़क पर हमारे मन में चल विचार भी लुका-छिपी का खेल खेलते हुए भागे जा रहे थे और हम परेशान होते रहे थे। इसी उधेड़बुन में बस कब मेरठ से गुजर गई कुछ पता नहीं चला। अंत में मैंने यही फैसला कि जो होगा सो होगा, चलो चलते हैं बदरीधाम और उनका ही आशीर्वाद लेंगे और खिड़की से सिर टिकाकर सो गए। अचानक बस कंडक्टर के आवाज लगाने पर नींद खुली। बस कंडक्टर कह रहा था कि जिनको भी चाय-नाश्ता करना है वो यहां कर लें, क्योंकि बस यहां पर करीब आधे घंटे रुकेगी।

बस में बैठे अधिकतर यात्री बस से नीचे उतर चुके थे और मेरे मन में फिर वहीं द्वंद्व चलने लगा कि क्या करूं, क्या न करूं। सोचा कंचन को फोन करता हूं फिर नहीं किया क्योंकि उसका भी वही जवाब रहता कि काम के लिए आप परिवार को पीछे छोड़ देते हैं तो ये तो एक सफर है और आप वापस आ जाइए। हमने भी मन में पूरी तरह सोच लिया था कि बदरीनाथ ही जाएंगे और हम चाय पीने के लिए भी नहीं उतरे। समय बीता और धीरे धीरे सभी सवारियां बस में आ गई। चालक महोदय भी आए और बस को स्टार्ट किया और होटल की तरफ से बस को घुमाकर सड़क पर लाए।

सहसा पता नहीं मेरे मन में क्या हुआ कि हमने अचानक ही बोल दिया बस रोको, बस रोको। मेरे इतना कहते ही सभी यात्री हमें ऐसे देखने लगे जैसे हम कोई दूसरे ग्रह से आए हुए परग्रही हैं। तभी सहसा कंडक्टर ने पूछा कि क्या हुआ, कुछ छूट गया क्या? हमने उनको बताया कि नहीं कुछ नहीं छूटा, हम तो बस से उतरे ही नहीं तो छूटता कैसे, अभी अभी घर से फोन आ गया किसी की तबियत बहुत खराब है और मुझे यहीं से वापस जाना होगा। कंडक्टर ने बस रुकवाया और कहा कि वहीं होटल के पास आप चले जाओ आपको वहीं से दिल्ली के लिए कोई गाड़ी मिल जाएगी और उसके बाद मैं बस से उतर गया। मोबाइल ऑन किया और समय देखा तो तीन बजने में कुछ समय बाकी था। हम वापस उसी होटल के पास आए और खड़े हो गए। दो चार मिनट बाद हमने होटल वाले को अपनी समस्या से अवगत कराया तो उसने बताया कि इंतजार कीजिए, यहीं पर बस मिल जाएगी जिससे आप दिल्ली पहुंच जाएंगे। उसकी बात भी सच साबित हुई, कुछ ही मिनटों बाद एक बस हरिद्वार की तरफ से आई जो दिल्ली की तरफ जा रही थी।

बस के रुकते ही हमने कंडक्टर से बात की तो उसने बताया कि हां सीटें तो बहुत सारी खाली है और आप बैठ जाओ। हम कुछ खुशी और कुछ गम लिए बस में सवार हो गए। देखा तो अधिकतर लोग चादर तान कर हाथ-पैर समेट कर सीटों पर सोए पड़े हैं। हमने भी सबसे पीछे से आगे वाली सीट तीन सीटों पर कब्जा कर लिया और बैग से चादर निकालकर ओढ़कर बैठ गए। कुछ देर में बस चली और हम भी अन्य यात्रियों की तरह उसी सीट पर किसी तरह सोने की कोशिश करने लगे पर नींद हमारी आंखों से बहुत दूर जा चुका था और हम सोच रहे थे कि सफर में कौन जीता—मैं, काम के प्रति मेरी जिम्मेदारी, ठाकुर जी के प्रति मेरा प्रेम या मेरी घुमक्कड़ी।

इसका जवाब तो हमें नहीं मिल पाया लेकिन यही सोचते सोचते आंख लग गई और कभी सोते तो कभी जागते हुए सुबह भी हो गया और करीब 7 बजे हम मोहन नगर तिराहे पर पहुंच गए। वैसे तो बस कश्मीरी गेट जा रही थी लेकिन जितने देर में बस कश्मीरी गेट पहुंचेगी उससे पहले हम यहां से अपने घर पहुंच जाएंगे और यही सोचकर हम मोहन नगर में उतर गए। मोहन नगर से आॅटो से आनंद विहार आ गए। आनंद विहार से बस संख्या 85 से गणेश नगर आकर मेरा ये अधूरा सफर खत्म हो गया। घर पहुंचकर जब बच्चे लोगों ने अचानक ही मुझे वापस आया देखा तो उन लोगों ने भी सवालों की झड़ी लगा दी। हमने उनके सवालों का तो जवाब दे दिया पर मेरा खुद का खुद से जो सवाल था उसका जवाब मुझे नहीं मिल पाया। रास्ते का मेरा सफर तो पूरा हुआ लेकिन मेरे सवालों का सफर पूरा नहीं हो सका कि आखिर इस सफर में जीत किसकी हुई। जय हो बदरीनाथ की, अब अगले साल देखता हूं कि जा पाता हूं या नहीं, लेकिन दीपावली के दिन बदरीनाथ जाने का सपना अधूरा रह गया।

यात्रा की तिथि : 5 नवम्बर की शाम से 6 नवम्बर की सुबह तक

नोट : इस लेख में लगे हुए फोटो इस यात्रा से कोई संबंध नहीं है, बस प्रतीकात्मक तौर पर इसका प्रयोग किया गया है।

17 comments:

  1. मुझे लगा कोई रेल का मज़ेदार सफर होगा और आपने नोट भी लास्ट में लिखा हैं। घुम्मकड़ी भले बचपन से ही हो हमारे पास लेकिन जीवन में पैसो और रिस्तो का महत्व बहुत जायदा है। इनके बिना घुम्मकड़ी संभव नहीं या फिर आप पूरी तरह से संत ही बन जाये। पैसे जिससे हमारी ज़िन्दगी चलती हैं और रिश्ते जो अपने ऑफिस से बन जाते है उनको नकारना आसान नहीं होता। अंत में यही कहूँगा की आपने सही फैलसा लिया। ऑफिस और घुम्मकड़ी से संतुलन बहुत जरुरी है और इसी में जीवन का आनंद है।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको। रेल का फोटो तो इसलिए लगाया कि लगे कोई यात्रा का है। बिल्कुल सही कहा पहले परिवार और नौकरी फिर घुमक्कड़ी। परिवार और नौकरी सलामत तो सारी खुशियां साथ-साथ चलेगी। आॅफिस के कारण ही परिवार खुशहाल रहता है और काम का नुकसान करके हमसे या किसी से घुमक्कड़ी नहीं हो सकती। एक बार पुनः धन्यवाद आपको।

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  2. सही किया अभय भाई .... आपने अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए सही फैसला लिया.... यदि वापिस न आते तो ओफ़िस में किस तरह का व्यवहार होता उसका तो पता नहीं पर जब लौट कर काम पर वापिस आये तभी ही आपकी एक अलग सीरत ऑफिस के लोगो के दिलो पर खिच गयी होगी ...

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको। हां काम और विश्वास के कारण ही आज हम आॅफिस में अभी भी बने हुए हैं, बाकी सारी परिस्थितियों तो आपको बताया ही था कि आॅफिस में क्या समस्या है। नौकरी रहेगी तो घुमक्कड़ी चलती रहेगी और उस समय वापस आने का ही परिणाम रहा कि चोट लगने के बाद इतने दिन हमने छुट्टी किया और उसे उन छुट्टियों में गिनती नहीं की गई।

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  3. कई बार आपके हाथ मे कुछ नही होता...उस वक़्त आपको वक़्त के साथ बह जाना ही होता है....

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको भाई जी।

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  4. मैं इसे एक अच्छा और सराहनीय कदम कहूंगा क्यूंकि आपने काम को वरीयता दी

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको भाई जी।

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  5. बहुत ही दिलचस्प यात्रा रही आपकी या कह लो अधूरी यात्रा.... लेकिन आपकी इस अधूरी यात्रा ने भी सभी का मन जीत लिया। जब धर्म और कर्म के बीच द्वन्द्व चल रहा हो तब बड़ा मुश्किल होता है निर्णय लेना... लेकिन आपने कर्म चुनकर जो अपने कार्य के प्रति निष्ठा दिखाई है। उसके लिए मैं ह्दय से आपको कोटि कोटि नमन करता हूं वर्ना आजकल व्यक्ति सिर्फ अपना स्वार्थ देखता है।
    वैसे सर जी यदि आप उचित समझे तो मैं जानना चाहता था कि आप किस विभाग में अपनी सेवाएं प्रदान कर रहे हैं।

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    1. यात्रा तो अधूरी रह गई लेकिन बहुत कुछ सीखने के लिए दे गया। एक पूर्ण हुई यात्रा की तरह इस छोटी सी अधूरी यात्रा में भी बहुत ही यादें लिपट गई। आज भी बस कुछ घंटों की इस यात्रा को याद करके एकसुखद अहसास मिलता है। बिल्कुल कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वापस जाएं या आगे चलते जाएं और अंततः अचानक ही हमने वापसी का फैसला कर लिया।
      एक एक पब्लिशिंग कम्पनी में डीटीपी आॅपरेटर का कार्य करते हैं। पब्लिशिंग हाउस के साथ-साथ हमारे यहां बैंकिंग की कोचिंग क्लास भी चलती है। आॅफिस का नाम है बैंकिंग सर्विसेज क्राॅनिकल या शाॅर्ट में बीएससी। प्रतियोगिता परीक्षा की किताबें और पत्रिकाएं प्रकाशित होती है। हो सकता है आपने बीएससी मैगजीन देखा भी होगा।

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    2. जी हाँ सर जी । मैंने इस नाम की परीक्षा प्रतियोगिता की किताब तथा पत्रिका शायद अपने शिक्षक जी के पास देखी थी और मैं उनसे पढने के लिए लेकर आया भी था । इस बात को काफी समय हो गया इसलिए सही से याद नहीं आ रहा है।

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    3. हां जरूर देखा होगा और पढ़ा भी होगा आपने क्योंकि बैंकिंग, रेलवे एसएससी की तैयारी करने वाला हर छात्र ये किताबें पढ़ता ही है। कुछ किताबोें का नाम मैं बताता हूं जैसे क्विकर मैथ्स (एम टायरा), इंगलिश इज इजी (चेतनानंद सिंह) और भी बहुत सारी किताबें।

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    4. धन्यवाद सर जी। मुझे याद दिलाने के लिए आपने कुछ किताबों के नाम लिए। मुझे अच्छी तरह से याद आया गया है मैं जब बैंक क्लर्क के लिए तैयारी कर रहा था तभी मैंने अपने सर जी से क्विकर मैथ्स नाम की पत्रिका से प्रतियोगिता की तैयारी की थी।

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    5. धन्यवाद अर्जुन जी।

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  6. अपनी जिम्मेदारी को निभाना पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। पर वस्तुस्थिति यही होती है सभी निजी संस्थानों के, वहाँ छुट्टियों के नाम पर मात्र खानापूर्ति करते हैं। नियोक्ता द्वारा कर्मचारियों की स्थितियों का आंकलन वो अपनी शर्तो पर करते हैं। जिस वक्त आपने छुट्टियों के लिये अर्जी दी होगी वो एक दिन पहले तो ना दी होगी, पर बनाबनाया कार्यक्रम अक्सर वो चौपट कर देते हैं।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको। जिम्मेदारी तो हर व्यक्ति की पहली प्राथमिकता होती है। हम अपनी छुट्टियों का क्या कहें, पूरे साल भर में गिनती की दस-बीस छुट्टियां मिलती है उसपे भी ऐसी आफत। हम छुट्टी लेनी होती है तो 15 से 30 दिन पहले कभी कभी तो टिकट कटते ही बता देते हैं कि इतने दिन की छुट्टी चाहिए फिर भी ऐसी हालत।

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