Tuesday, July 24, 2018

नदी : एक शीतल अहसास (Nadi: Ek Sheetal Ehsas)

नदी : एक शीतल अहसास (Nadi: Ek Sheetal Ehsas)


हर इंसान की जिंदगी को कुछ न कुछ चीजें प्रभावित करती हैं। कुछ चीजों के प्रति उसका जुनून और पागलपन हमेशा उसके साथ रहता हैं। कुछ शब्द, कुछ वस्तुएं, शहर, गांव, नदियां, खेत, जानवर, पक्षी आदि बहुत सी चीजें हैं जिनसे इंसान प्रभावित होता है और किसी खास चीज से इंसान का खास लगाव भी रहता है। कुछ चीजें किसी खास इंसान को बहुत हद तक आकर्षित करती है। वैसे ही और लागों की तरह हमें भी बहुत सी देखी-अनदेखी चीजों ने आकर्षित किया है, जैसे पहाड़, समुद्र, नदी, झरने, सड़कें, बाढ़, हरे-भरे खेत आदि और भी न जाने ऐसी कितनी चीजें हैं जिसके प्रति सदा ही मेरा आकर्षण रहा है। पहाड़ के प्रति मेरे लगाव, जुनून और पागलपन को आपने पहले पढ़ा ही होगा। आइए अब अपने नदी के प्रति उस लगाव के बारे में बताते हैं, जहां पहुंचकर हमें एक बहुत ही शीतलता का आभास होता था।


हमारा गांव एक ऐसे नदी के किनारे पर बसा है जिसमें कब पानी आ जाए कुछ पता नहीं। नदी की हालत ऐसी थी कि अगर घुटने तक भी पानी हो तो लोग अकेले पार होने से घबराते थे। दक्षिण की तरफ थोड़ी बरसात हुई नहीं और पानी पहुंच जाता था। इस नदी ने हमारे गांव कोे तीन तरफ से घेर रखा था और बचा एक तरफ तो वहां भी उसी नदी से निकाली हुई नहर गुजरती थी जो आगे चलकर फिर से उसी नदी में मिल जाती थी। बरसात के दिनों में पानी के अलावा हमें कुछ और देखने को नहीं मिलता था। बरसात का महीना शुरू होने से लेकर बरसात खत्म होने तक पानी गांव की गली-गली में पहुंच जाता था। खेत और फसलें डूब जाती थी। गांव का संपर्क बाकी जगहों से कट जाता था। नदी के तेज बहाव में नाव भी चलाना मुश्किल होता था। मेरे दादाजी के अनुसार एक बार इतना पानी आया था कि 19 दिन तक लोग गांव से बाहर नहीं निकल पाए थे। मेरा बचपन भी इस नदी के किनारे और नदी से आने वाली बाढ़ के साथ ही बीता। मैं भी नदी के पानी को गांव में आने का इंतजार करता था कि कब घर तक पानी पहुंचे और मैं उसमें छप-छप करते हुए खेलूं। बाढ़ का पानी हम बच्चों के लिए तो खुशियां लेके आता था पर बड़ों के लिए मुसीबत। फसलें बह जाती, रोजमर्रा के काम रुक जाते थे पर हमारे बालमन को इन चीजों का क्या पता कि जो चीजें मुझे इतनी खुशियां दे रही हैं उससे ही मेरे घर के बड़े परेशान हैं।

दिन गुजरते गए और समय के साथ मैं भी बड़ा होता गया। नदी के किनारे पर आलू की भरपूर खेती होती थी और एक बार खेत देखने के लिए हम भी बड़े पापा के साथ खेतों की तरफ गए। नदी में बहुत ही कम पानी था जिसमें डीजल इंजन लगाकर आलू की पटवनी हो रही थी। तब हमने पहली बार नदी से खेतों तक पानी लाने का तरीका देखा था और साथ में नदी भी देखा और घर से नदी तक पहुंचने के रास्ते को भी देख लिया। नदी तक पहुंचने का रास्ता देखना मेरे परिवर के लिए हर दिन की परेशानी देने लगा। हर सुबह हम स्कूल चले जाते और शाम को 3 बजे स्कूल से आते ही किताबें रखते और नदी के रास्ते की ओर चल पड़ते। कभी चैथाई तो कभी आधी दूरी से मुझे कोई न कोई गांव का आदमी पकड़कर वापस घर पहुंचा देता और नदी तक पहुंचने की तमन्ना अधूरी रह जाती।

गरमी के दिन आ गए थे और शादी-विवाह का समय शुरू हो गया था। पापा और बड़े पापा दोनों ही किसी शादी में बाहर गए हुए थे। मां और बड़ी मां दोनों ही घर के कामों में व्यस्त थे। मेरे लिए नदी तक जाने का इससे अच्छा मौका नहीं हो सकता था। पर उस समय हमें ये नहीं पता था कि नदी तक अकेले जाना मेरे लिए खतरा भी बन सकता है। हम घर से निकल गए और चल दिए नदी के तरफ। धीरे धीरे चलते हुए कि कोई जाते हुए देख न ले और मुझे पकड़कर वो घर पहुंचा दे इसलिए छुप-छुप कर चलते हुए नदी के किनारे तक पहुंच गया। नदी में एक बूंद भी कहीं पानी नहीं था। बहुत देर तक हम नदी में बालुओं के साथ खेलते रहे। बालू को जमा करते फिर बिखरा देते। न जाने इसी तरह खेलते हुए कितने घंटे बीत गए। मैं बहुत बार पास-पड़ोस के घरों में जाकर बहुत समय गुजार देता था इसलिए पहले तो मम्मी और बड़ी मम्मी ने भी इस तरफ ध्यान नहीं दिया कि मैं कहा हूं। उनके मन में तो यही उम्मीद थी कि मैं किसी के घर चला गया होऊंगा और जिनके घर में भी होऊंंगा ठीक से ही होऊंंगा। जब तीन-चार घंटे बीत गए और भाइयों ने मेरी खोज आरंभ कर दी तो मां और बड़ी मां को भी मेरी चिंता सताने लगी। आस-पास के घरों में पूछने पर भी मेरा पता नहीं चला। पापा और बड़े पापा भी गांव से बाहर गए हुए थे। दादाजी भी बुजुर्ग थे और आंखों की परेशानी के कारण दादाजी ज्यादा दूर तक देख नहीं सकते थे, अतः वो भी ज्यादा दूर तक खोजने नहीं जा सकते थे और गांव के बाहर आसपास ही खोज रहे थे। धीरे-धीरे बात पूरे गांव में फैल गई कि रामानुग्रह जी का भतीजा गायब हो गया है और कहीं नहीं मिल रहा है। सब लोगों ने अपने तरफ से मुझे खोजना आरंभ कर दिया था।

ईधर मैं अपनी ही मस्ती में नदी में दौड़-भाग में लगा हुआ था। धीरे-धीरे सूर्य की तपिश भी बढ़ने लगी थी। बालू गर्म होने लगा था और पैर जलने लगा था। अब मुझे छाया की जरूरत महसूस होने लगी थी जो नदी के दूसरे तरफ थी। हम बीच नदी में खेल रहे थे लेकिन गर्मी के कारण अब नदी पार करके दूसरी तरफ पेड़ की छांव में जाकर खेलने लगे। अकेला और चंचल बालमन इस बात से मीलों दूर था कि घर में लोग मुझे खोज रहे होंगे। मन में तो उत्साह ही बना हुआ था कि मुझे खोजेगा कौन पापा और बड़े पापा बाहर गए हुए हैं, मम्मी और बड़ी मम्मी भी अपने काम में व्यस्त होंगी। भाई भी अपने दोस्तों के साथ खेल रहा होगा। सब चिंताओं से दूर अपने आप में ही खोए हुए वहीं पेड़ की छांव में खेल रहे थे। समय बीत रहा था और लगभग दुपहरिया ने दस्तक दे दी थी। अब उस इकलौते पेड़ की छाया में भी मुझे गर्मी महसूस होने लगी थी। भूख का तो अहसास नहीं था पर प्यास का अहसास होने लगा था, पर यहां पानी कहीं भी नहीं था। प्यास ज्यादा लगते देख हमने घर की तरफ रुख किया। उस भरी दुपहरिया में बालू वाली नदी को पार करना मेरे वश में नहीं रह गया था, पर घर तो पहुंचना ही था, अतः घर की तरफ चल दिया। न जाने नदी को हमने कितनी दूर पार किया होगा ये तो पता नहीं, बस इतना ही महसूस हुआ कि मुझे बहुत गर्मी लग रही है और उसके बाद का कुछ पता नहीं। जब होश आया तो खुद को नदी के किनारे पर बसे कुछ लोगों के घरों में से एक घर में पाया और ऐसी स्थिति में कि लोग मेरे ऊपर बाल्टी से भर भर कर पानी डाल रहे थे।

गांव के लोग भी अब तक नदी के किनारे तक मुझे खोजने के लिए आ चुके थे। वहां पहुंचकर उन लोगों को पता चला कि मैं नदी में लू के कारण बेहोश होकर गिर गया था और ताड़ से ताड़ी उतारने वाले एक व्यक्ति ने ताड़ के पेड़ के ऊपर से ही मुझे नदी में तिलमिलाकर गिरते हुए देखा था और उसने ही अन्य लोगों की मदद से मुझे यहां तक उठाकर लाया था अगर वो नहीं होता तो मैं भी नहीं होता। मेरे इस हालत की सूचना मां और बड़ी मां को भी मिल चुकी थी। गांव के बहुत सारे लोगों के साथ वो दोनों भी यहां आ पहुंचे थे। मेरी हालत ऐसी थी कि लोग मुझे धूप में एक मिनट के लिए भी नहीं ले जाना चाह रहे थे। पूरा शरीर काला पड़ चुका था। मां और बड़ी मां को देखते ही मेरे आंखों से आंसुओं की धारा बहने लगी थी। पूरे दिन हमें वहीं पर रखा गया था। पिताजी तो दूर गए थे लेकिन बड़े पापा नजदीक के ही किसी गांव में गए थे, अतः उन तक भी मेरे बारे में खबर पहुंच चुकी थी। खबर मिलते ही शाम तक वह भी आ गए। शाम के बात जब रात हुई और गरम हवा में थोड़ी शीतलता आई तब मुझे यहां से अपने घर ले जाया गया और उसके बाद कई दिनों तक हमारी स्थिति के अनुसार घर से बाहर नहीं निकलने दिया गया था। आज भी वो घटना याद आती है तो मेरे आंख से आंसू आ जाते हैं। सबसे बड़ा अहसान उस आदमी का है मेरे जीवन पर जिसने मेरी जान बचाई। अब वो भी अपने उम्र के आखिरी पड़ाव पर हैं पर उनके बच्चों से मेरा अपने भाइयों जैसा ही संबंध है। उनकी एक पुकार पर हम सब कुछ छोड़कर उनके पास जाने के लिए हर समय तैयार बैठे रहते हैं।

नदी के प्रति मेरा जुनून इतने पर भी नहीं रुका। इस घटना के 15-20 दिनों की बात है। रविवार का दिन था और मैं अपने साथियों के साथ खेल रहा था। तभी नदी की तरफ से आते हुए कुछ लोगों के मुंह से सुना कि नदी में थोड़ा-थोड़ा पानी आ गया है। उनकी इस बात ने मेरे मन में आग में घी डालने का काम किया और मैं दोस्तों से बहाना बनाकर नदी की तरफ चल दिया। नदी पर पहुंचा तो देखा कि नदी में थोड़ा सा पानी है। कुछ लोग नदी में पार हो रहे थे तो हम भी उनके साथ नदी के पार चले गए और खेलने लगे। नदी में पानी धीरे-धीरे बढ़ रहा था। मैं बालू में लकड़ी गाड़ देता या कोई लाइन खींच देता और उस तक पानी पहुंचने का इंतजार करता और जब पानी उस लाइन को डुबा देती तो फिर से कुछ देर एक और लाइन खींचता फिर पानी उस लाइन को डुबो देती। हम पागलों की तरह यही करते रहे और यही करते करते दो घंटे का समय बीत गया। पानी बढ़ता रहा, बढ़ता रहा और बढ़ता रहा और इतना बढ़ा कि उसमें मैं तो क्या कोई अच्छे से अच्छा तैराक भी पार नहीं हो सकता था। पानी बढ़ने की चिंता से दूर मैं ऐसे ही लाइन खींचने में व्यस्त रहा और नदी में इतना पानी हो गया कि नदी के दोनों किनारों पर पानी पानी पहुंच गया। नदी के उस तरफ मैं बिल्कुल अकेला था और पानी बढ़ता जा रहा था। अब तक मुझे घर की याद सताने लगी थी। घर की याद आते ही हमने वापस जाने का सोचा पर पानी का रौद्र देखकर हम घबरा गए और जोर-जोर से रोने चिल्लाने लगे। मेरा रोना-चिल्लाना केवल मेरे तक ही सीमित था क्योंकि उस वीराने में कोई मेरी चीख-पुकार सुनने वाला नहीं था। 

धीरे-धीरे समय बीत रहा था और सूर्य देवता भी अपनेे घर वापस लौट रहे थे। घंटे भर में रात होने वाली थी और मेरी घबराहट बढ़ रही थी, पर हम ऐसी जगह पहुंच गए थे जहां मेरी घबराहट को समझने वाला कोई नहीं था। नदी अपने रौद्र रूप में बहती जा रही थी। जैसे जैसे समय बीत रहा था मेरा चीखना-चिल्लाना बढ़ता जा रहा था पर नदी के शोर के आगे मेरी आवाज कहीं दबी जा रही थी। समय बीतता जा रहा था और मैं अकेला चिल्ला रहा था। अब मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा था अब मैं क्या करूं। अंत में थक हार कर मैं ऐसे ही बैठ गया। अब तक इतना रो लिया था कि अब रोया भी नहीं जा रहा था। सहसा दोनों तरफ चमत्कार हुआ। नदी के जिस तरफ मैं था उस तरफ के गांव के कुछ लोग शाम को टहलते हुए नदी किनारे आए और मुझे अकेला देख उनमें से किसी ने मेरे पिताजी का नाम पूछा। इतने में ही उन लोगों में से ही किसी ने कहा कि अरे ये तो रामानुग्रह जी का भतीजा है। उसके बाद उन लोगों में से ही किसी ने कहा कि कौन रामानुग्रह जी, तो उस व्यक्ति ने कहा कि परोहा गांव वाले रामानुग्रह जी। उसके बाद उन लोगों ने मुझे कहा कि तू यहां कैसे आया, तो हमने सारी कहानी रोते-रोते बता उनको बता दिया। अब वो लोग मुझे धैर्य बंधाने लगे कि अब मत रोओ, कुछ नहीं होगा तुमको। आज ही हम लोग कैसे भी हो तुमको घर पहुंचवा देंगे।

अब नदी के उस तरफ की बात। मेरे घर के लोग भी मुझे खोजते हुए अब तक नदी तक आ चुके थे। दोनों तरफ से इशारे इशारे में बातें होने लगी, क्योंकि आवाज तो नदी के शोर में दब जा रही थी। उन इशारों वाली बातोंा से सबको ये यकीन हो गया कि मैं ठीक-ठाक हूं उसके बाद मुझे नदी को पार करने की जद्दोजहद शुरू किया गया। इस मौसम में पहला पानी आया था इसलिए नाव भी गांव के पास के तालाब में रखा हुआ था और मुझे नदी पार करवाना जरूरी था। नदी के उस पार अपने पापा और बड़े पापा तथा भाइयों को देखते ही मैंने फिर से रोना शुरू फिर से शुरू कर दिया था। उधर पापा लोग भी मुझे नदी पार करवा करके आज ही घर ले जाना चाह रहे थे। नदी पार करने का एकमात्र साधन नदी के किनारे पर बसे बस्ती के कुछ लोग थे जो मुझे नदी पार करवा सकते थे। उनके अलावा किन्हीं की हिम्मत नहीं कि नदी में पार हो सकें। इतने में हमने देखा कि कुछ लोग बड़े-बड़े तसले के सहारे नदी के उस तरफ से इस तरफ आने लगे। कुछ ही मिनटों में वो तसलों के सहारे नदी पार कर गए। उसके बाद उन लोगांे ने मुझे उस बड़े तसले में बैठाया और नदी के उस पार ले गए। नदी के पार जाते ही तसले से निकल हम तेजी से दौड़ते हुए बड़े पापा के पैरों से लिपट गया और जोर जोर से रोने लगा। मेरे छोटे भाई और मेरे दोस्त लोग भी मेरे पास आकर खड़े थे। मैं रो रहा था और मेरे दोस्त लोग मेरे भाइयों के साथ खामोश खड़े थे। उसके बाद मैं सबके साथ घर गया तो देखा कि घर के आगे पूरे गांव की भीड़ जुटी है। घर पहुंचते ही मैं जल्दी से मां के आंचल में छुप गया और फिर रोने लगा। कुछ लोग हंस रहे थे तो कुछ लोग हाय-हाय कर रहे थे। कुछ मुझे बदमाश तो कुछ पागल भी कह रहे थे और मैं केवल लोगों को देख-देख कर रो रहा था। धीरे धीरे लोग अपने-अपने घर जाने लगे और कुछ देर में सब लोग अपने अपने घर चले गए पर मेरा रोना बंद नहीं हुआ था। रोते-रोते ही कब मैं भूखे-प्यासे सो गया मुझे इसका भी पता नहीं चला। अगले दिन नींद खुली और घर से बाहर आया तो देखा कि दोस्त लोग मेरे इंतजार में घर के बाहर बैठे हुए हैं। उस दिन के बाद से मैं कभी अकेले नदी की तरफ नहीं गया। 

तो ये थो मेरा नदी के प्रति जुनून और पागलपन जिसमें हमारी जान पर बन आई थी। अगर आगे कभी किसी और चीज के प्रति अपने पागलपन के बारे में लिखने का मौका मिला तो समुद्र के ऊपर लिखेंगे।

6 comments:

  1. वाह सर
    बालसुलभ कार्य बहुत किये आपने😊👌
    बहुत ही रोचक आपबीती

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद महेश भाई जी। आपने अपना समय देकर पढ़ा और सुंदर टिप्पणी से लेख का मान बढ़ाया।

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  2. बहुत ही रोचक रही आपकी नदी प्रेम गाथा....सबक भी मिल गया आपको...

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    1. ब्लाॅग पर आने के लिए और मनोबल बढ़ाने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद जी। हां सबक तो मिला, उस दिन के बाद से अकेले कभी नदी की तरफ नहीं गया था।

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  3. वाह !! सर जी आपने तो अपने बचपन में घर वालो को क्या पूरे गांव वालों को परेशान करके रख दिया था। लेकिन बचपन तो बचपन होता है जिसमें ना किसी बात की चिंता ना ही किसी बात का ख्याल।
    काफी मनोरंजक और काफी पागलपन वाला जुनून रहा आपका। खैर आखिरकार अंत में आपको काफी अच्छा सबक मिला नदी से।
    काफी समय बाद आपका लेख पढ़ने को मिला मजा आ गया उसके लिए आपको दिल से धन्यवाद।

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    1. बहुत सारा धन्यवाद अर्जुन जी। हांा थोड़े बावले किस्म के हम थे और शायद अभी भी वैसे ही आदत है, पैर टिकते ही नहीं कहीं एक जगह। और मेरा क्या सबका बचपन ऐसे ही बीता है। हां नदी से सबक भी मिला, उस दिन के बाद से कभी अकेले नहीं गए थे नदी के किनारे। अब आते रहेंगे लगातार पोस्ट ब्लाॅग पर। कुछ दिन के लिए ब्लाॅग से दूरी बना लिया था पर अब ज्यादा इंतजार नहीं करना पड़ेगा।

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