Monday, November 25, 2019

बदरीनाथ यात्रा-2 : वो 30 मिनट और गंगा स्नान (Wo 30 minutes aur Ganga Snan)

दरीनाथ यात्रा-2 : वो 30 मिनट और गंगा स्नान (Wo 30 Minutes aur Ganga Snan)





बदरीनाथ यात्रा के दूसरे भाग में आइए हम आपको हरिद्वार से आगे के सफर पर ले चलते हैं। आगे चलने से पहले हम आपको थोड़ा बीते हुए लम्हों में एक बार फिर से ले जाना चाहते हैं। अभी तक आपने देखा कि कैसे हम हरिद्वार पहुंचे और कैसे केदारनाथ की बस मिली लेकिन पीछे की सीट मिलने के कारण हमने उस बस को छोड़ दिया और उसके बाद बदरीनाथ जाने वाली बस पर मनपसंद सीट मिलने पर उसी सीट पर अपना कब्जा जमाया और सीट अपने नाम कर लिया। अब सीट तो हमने हथिया लिया था पर अभी भी ये तय नहीं था कि हम बदरीनाथ पहुंचेंगे या फिर रुद्रप्रयाग उतरकर केदारनाथ चले जाएंगे; या चमोली उतरकर रुद्रनाथ चले जाएंगे। खैर वो बातें आगे होगी अभी हम पिछले आलेख में किए गए वादे के अनुसार आपको गंगा स्नान के लिए ले चलते हैं।

जैसा कि आपने पढ़ा कि बस पर सीट रखने के बाद हमने बस के कर्मचारियों से पूछा तो उन्होंने बताया कि बस 4.50 पर यहां से चलेगी और अभी 4.10 बजे थे मतलब कि 40 मिनट का समय बचा था तो इतने समय में हम गंगा स्नान तो कर ही सकते हैं। और अगर हम गंगा स्नान के लिए चले गए तो हमारे जाने के बाद कंडक्टर ये सीट किसी और को न दे दे इसलिए हमने उनको पैसे दे दिए, जिससे कि सीट पर मेरा कब्जा बरकरार रहे। वैसे तो किराया उन लोगों ने 460 रुपया बताया था लेकिन हमने उनको एक 500 का नोट दिया और ये कहा कि मैं गंगा स्नान करने जा रहा हूं और समय पर आ जाऊंगा और अगर नहीं आ पाया तो फिर ये सीट किसी को दे दीजिएगा और उसके बाद हम बस से उतर गए। बस से उतरकर एक ई-रिक्शा वाले को कहा कि मुझे आप विष्णु घाट तक ले चलो और आप कुछ देर वहीं इंतजार करना और मेरे स्नान करने के पश्चात फिर आप मुझे वहां से वापस यहीं पहुंचा देना।

रिक्शे वाले ने तो पहले रात होने के नाम 100 रुपया मांगा, पर जब हमने उसे कहा कि हमें रात से दिक्कत नहीं है। हम रात को 12 बजे भी अकेले वहां तक पैदल जाकर आ सकते हैं, वो क्या है कि हमें जाने में 20 मिनट लग जाएगा और आने में बीस मिनट लग जाएगा और मेरे पास बस इतना ही समय है, इसलिए आपको चलने कह रहे हैं। आप यहां बैठे ही रहेंगे सवारियों के इंतजार में उससे अच्छा चल लीजिए, आपका काम भी हो जाएगा और मेरा भी, पर रिक्शा महोदय 100 से कम में जाने को तैयार ही नहीं हुए तो हमने भी कह दिया कि अगर 50 में चलना तो चलिए, वरना कोई बात नहीं, अब स्नान बदरीनाथ या जहां पहुंचेंगे वहां पहुंचकर ही होगा और बस की तरफ जाने लगे तो रिक्शे वाले की आवाज कानों में गूंजने लगी कि अरे सर चलिए, 50 नहीं आप 60 दे दीजिए तो हम आपको ले चलते हैं और लेकर आ भी जाएंगे। फिर हमने भी उसके 60 रुपए वाली बात को सहर्ष स्वीकार किया और आगे की सीट पर अपना बैग रखा और पीछे की सीट पर महाराजाधिराज की तरह बैठ गए।

रिक्शे पर बैठते ही रिक्शे वाला मुझे विष्णु घाट की तरफ ले चला। विष्णु घाट स्टेशन से हरकी पैड़ी की तरफ कुछ दूर जाने पर जहां एक नाले को पार करने के बाद एक तिराहा आता है, वहीं से गली से होकर जाते हैं। तिराहे पर दाएं मुड़ने पर ऋषिकेश वाली रोड की तरफ जाते हैं और बिना मुड़े सीधे चले जाने पर हरकी पैड़ी और तिराहा पार करके दाईं ओर गली में चले जाने पर विष्णु घाट पहुंच जाता है। बस स्टेशन से विष्णु घाट का रास्ता रिक्शे वाले ने पांच मिनट मंे तय कर लिया और वहां पहुंचते ही हम जल्दी से रिक्शे से उतर घाट की तरफ दौड़ पड़े और मेरे कदम घाट की तरफ बढ़ते देख रिक्शा वाला चिल्लाया था कि सर पैसे तो देते जाओ। तब जवाब में हमने भी वैसे ही चिल्ला कर बोला था कि बात तो वापस ले जाने की भी हुई न और अगर हम अभी पैसे दे दिए तो फिर आप यहां से पधार गए मतलब चले चले गए तो मेरी बस छूट जाएगी तो न हम बस स्टैंड के रह जाएंगे न गंगा घाट के इसलिए आप इंतजार कीजिए।

रिक्शे वाला हमें पांच मिनट में यहां ले आया था और दो-चार मिनट उससे बात करने में स्टैंड के पास समय लगा था मतलब कि कुल 10 मिनट के करीब हुए थे, मतलब कि हम अपने जमा पूंजी 40 मिनट में से 10 मिनट खर्च चुके थे और अभी 30 मिनट मेरे पास बचा हुआ था। अब 30 मिनट में से पांच-सात मिनट स्टैंड तक जाने का और पांच मिनट पहले पहुंचना भी जरूरी है तो 30 में से करीब 15 मिनट घटा लेने के बाद भी मेरे पास 15 मिनट बच रहे थे और उन 15 मिनट में हमंे 5 मिनट नहाने में खर्च करना था और बाकी के 10 मिनट घाट की सीढि़यां पर बैठकर उस निःशब्द शांति का आभास करना था। वैसे तो इतनी जल्दी मुझे कभी होती नहीं है, पर आज स्थितियां अलग थी इसलिए आज जल्दी ही सब कुछ निपटना था।

घाट पर पहुंचते ही हमने बैग एक तरफ रखा और गंगा में डुबकी लगाने चल पड़ा। सबसे नीचे की सीढ़ी पर जहां पर पानी था, वहां पहुंचकर उस निःशब्द और मौन रात्रि में चुपचाप बैठ गया और किनारे पर जलते बल्बों की रोशनी को गंगा के बहते हुए पानी में उसके हिलते डुलते रोशनी को देखने लगा और खुद से ही सवाल करने लगा कि आज मुझे इतनी जल्दी क्यों हैं। काश कि कुछ समय होता तो कुछ देर यहीं निःशब्द बैठा रहता। हर तरफ रात अंधेरे की चादर ओढ़कर पसरी हुई थी, दूर दूर तक कहीं कोई इंसान नहीं दिख रहा था, बस एक दो श्वान थे जो बैठकर अपना मुंह अपने ही शरीर में छुपा रखे थे, जो कभी कभी छुपाए हुए मुंह को बाहर निकालकर चारों तरफ देखने के बाद फिर से यथास्थिति अपने मुंह को छुपा लेते। उधर श्वान महाराज खुद में ही मुंह छुपा के बैठै हुए थे और ईधर हम घाट की सीढि़यों पर अकेले बैठै गंगा की लहरों को अंधेरे में देख रहे थे। पानी की तेज धारा सीढि़यों से टकराकर एक नई तरह की संगीत का आभास करा रहा था और हम धारा के बहने को देखने के साथ साथ उस संगीत का आनंद ले रहे थे और बस यही सोच रहे थे कि काश कुछ और समय होता। ऐसे ही देखते, सुनते और सोचते हुए पांच मिनट ही गुजरें होंगे कि रिक्शे वाले की आवाज आई कि सर नहा लिए या नहीं, आपको बस पकड़नी है या नहीं।

कुछ मिनटों में ही हम न जाने कौन से खयाल में खो गए थे कि ये सुध ही नहीं रहा था कि मुझे अभी तुरंत ही नहा कर जाना हैै वरना बस छूट जाएगी। अगर रिक्शे वाला आवाज न देता तो कम से कम कुछ मिनट तो ऐसे ही बेसुध हो गंगा का दीदार करता रहता और उस शांति को महसूस करता रहता, पर रिक्शे वाले के आवाज ने मेरी तन्द्रा को भंग कर दिया। अब तन्द्रा भंग होते ही मुझे भी ध्यान आया तो हमने भी जल्दी से नहा लेने का सोचा और एक सीढ़ी उतरकर हाथ से पानी छूकर देखा तो ऐसा लगा कि जैसे इस पानी में नहा पाना संभव नहीं है, पर अपनी आदत इतनी खराब है कि चाहे कितना भी ठंडा पानी हो, कितना भी ठंडा मौसम हो हम डुबकी लगा ही लेते हैं। ये तो हरिद्वार ही है तो यहां नहाना तो मेरे लिए तो बस कुछ कदम चलने जैसा ही हुआ, जब केदारनाथ में सुबह चार बजे न आव देखा था न ताव देखा था और मंदाकिनी में डुबकी लगा लिया था, गौरीकुंड में शरीर में चुभ जाने वाली ठंड में सुबह तीन बजे ही नहाकर ऐसे ही सर्द हवा में नदी किनारे से बिना कपड़े पहने होटल तक आ गया था तो ये क्या, ये तो हरिद्वार है, यहां तो डुबकी लगाना बिल्कुल ही आसान है।

ईधर अभी हाथ से पानी के ठंड का अंदाजा लगा ही रहे थे कि उधर से एक बार फिर रिक्शे वाले की कर्णभेदी आवाज कानों में सुनाई पड़ी। सर जी आपको बस पकड़नी है या नहीं। उसके इस कर्णभेदी आवाज का जवाब भी हमने भी कर्णभेदी शब्दों में ही दिया। भाई इतनी जल्दी क्यों है आपको, हमने आपको 30 मिनट कह कर लाया है और 30 मिनट से जितना ज्यादा होगा उसका पैसा आप हमसे ले लेना, और बस छूट जाएगी तो मेरी छूटेगी, आप क्यों परेशान हो रहे हैं। अब हमारी कौअे जैसी कांव-कांव वाली आवाज रिक्शे वाले को पता नहीं ठीक लगी या नहीं पर आसपास मुंह छुपाए श्वान महाराज में से एक को चुभ गई और एक लंबी गुर्रऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ वाली आवाज किए और फिर उठकर टहलने लगे और ईधर हम भी नहाने में मगन हो गए।

सुबह चार बजे का समय, अक्टूबर का सर्द महीना, ठंडी हवा का झोंका, गंगा का ठंडा ठंडा पानी, रिक्शे वाले की कांव कांव और श्वान जी का भों-भों और साथ ही बिल्कुल जल्दी से जल्दी नहाना भी था और इन सबके संयोजन से कुल मिलाकर माहौल बड़ा भयानक बन चुका था। उधर रिक्शे वाला कांव कांव कर रहा था और ईधर हम गंगा में डुबकी लगाने जा रहे थे। सीढि़यों पर गड़े हुए लोहे के पाइप को पकड़कर एक सीढ़ी नीचे उतरा और फिर दूसरी सीढ़ी की तलाश करने लगा जो जल्दी ही मिल गई। इसके बाद पाइप से लटके हुए सीकड़ (लोहे की जंजीर) के सहारे एक सीढ़ी और नीचे उतरने का प्रयास किया जिसमें भी सफलता हाथ लगी। ईधर उधर देखा तो दूर दूर कोई नहीं और अगर कुछ था तो केवल अंधेरा और उसी अंधेरे में खंभों पर जलते बल्ब की रोशनी में बहती हुई गंगा की विशाल जलधारा। मतलब यही कि जंजीर से हाथ छूटा तो सीधा मुरादनगर से होते दिल्ली के सोनिया विहार जल संयत्र में पहुंचकर ही रुकना होगा वो भी नाॅनस्टाॅप और अगर ऐसा हो गया तो बस वाले को दिए गए मेरे 500 रुपए बर्बाद हो जाएंगे, रिक्शे वाले को भी 50 रुपए का नुकसान हो जाएगा और मेरा बैग, पैसे, मोबाइल और कैमरा पता नहीं किसके हाथ लगेगा और इन सबसे ज्यादा चिंता मुझे घर से मिले उस 8 सेब की थी जो मुझे खाने के लिए मिली थी और इन सेबों के सहारे ही मुझे बदरीनाथ यात्रा पूरी करनी थी।

अब जो भी हो नहाना तो था ही तो भोलेनाथ का नाम लिया और जंजीर पकड़े पकड़े चार-पांच डुबकी लगाया और फिर जल्दी से जल्दी बाहर निकल आया। एक तो ऐसे ही ठंड थी और उसके ऊपर से ठंडा पानी और ठंडी ठंडी हवा। नहाने के पहले जो ठंडी ठंडी हवा शीतलता प्रदान कर रही थी अब वहीं हवा नहाने के बाद तीर चुभा रही थी और तीर भी ऐसे ऐसे कि उसके सामने अर्जुन और भीष्म के तीर की धार मंद पड़ जाए लेकिन इस कातिल ठंडी हवा के तीर और नुकीले होते जा रहे थे। इन नुकीले तीरों से बचने के लिए हमने जल्दी जल्दी कपड़े पहने फिर भी ऐसा लग रहा था कि जैसे ये तीर आज घायल करके ही छोड़ेंगे और घायल होने से बचने के लिए स्वेटर की जरूरत थी जो बैग के तहखाने में पड़ा हुआ था और अंधेरे में बैग से स्वेटर निकालना भी कोई आसान काम नहीं था, क्या पता स्वेटर के साथ साथ कुछ और सामान साथ में निकल जाए और पता भी नहीं लगे तो वैसे ही बैग उठाया और रिक्शे की तरफ दौड़ पड़ा। और ईधर जैसे ही हमने दौड़ लगाया उधर एक श्वान भी भों-भों करते हुए मेरे पीछे दौड़ गया, पर मेरे पास समय की इतनी ज्यादा कमी थी कि उसे कुछ भी खाने के लिए देना संभव नहीं था और उस श्वान को नजरअंदाज करते हुए हम दौड़ते हुए रिक्शे तक पहुंचे और बैग रखकर जल्दी से रिक्शे पर छलांग लगा दिया। रिक्शे पर बैठते ही हमने रिक्शे वाले से विनती स्वरूप आदेश दिया कि भैया जल्दी चलो वरना बस छूट जाएगी और अगर बस छूट गई तो हम कहीं के नहीं रह जाएंगे, क्योंकि फिर मेरा गंतव्य बदल जाएगा, उसे बाद पता नहीं कहां की बस मिलेगी और हम कहां जाएंगे ये भी नहीं पता।

रिक्शे पर बैठने से पहले अभी श्वान गुर्रा रहा था और रिक्शे पर बैठते ही रिक्शे वाले की गुर्राहट शुरू हो गई और विष्णु घाट से लेकर बस स्टैंड के गेट तक पता नहीं क्या बड़बड़ता और गुर्राता रहा। जल्दी चलो, जल्दी चलो, जल्दी चलो के अलावा हमने उसके एक भी बात का जवाब नहीं दिया क्योंकि ठंड के कारण जो मेरी हालत हुई थी कि हम कुछ बोल ही नहीं पा रहे थे, बस दांत कटकटाए हुए बैठे थे। खैर जैसे तैसे करके हम 4.50 से दो-तीन मिनट पहले बस स्टैंड पहुंच गए। रिक्शे से उतरते ही हमने रिक्शे वाले को उसका 60 रुपए दिया और बैग उठाकर बस की तरफ दौड़ पड़े। पर ये क्या बस तो वहां थी ही नहीं, मतलब कि बस वाला मेरे आने से पहले ही निकल लिया। अब इससे बचपन में अंग्रेजी अनुवाद का एक वाक्य याद आने लगा कि मेरे स्टेशन पहुंचने से पहले गाड़ी खुल चुकी थी।

पर अब क्या अब कुछ नहीं बस तो चली गई और मेरे 500 रुपए भी गए और अब बस भी दूसरी देखनी पड़ेगी, फिर सीट मिलेगी या न मिलेगी या बस कहां की मिलेगी या नहीं ही मिलेगी कुछ पता नहीं। फिर भी पता नहीं मन क्यों नहीं मान रहा था कि बदरीनाथ जी मुझे बुलाने के बाद यही क्यों छोड़ दिया और ऐसे ही आधे मन से वहीं दूसरे बस वाले से पूछा कि 4.50 वाली बस चली गई तो जवाब मिला कि नहीं वो उस तरफ खड़ी है। उस व्यक्ति के इस बात ने मुझे बिल्कुल संजीवनी बूटी मिलने जैसा अहसास प्रदान किया और हम दौड़कर सड़क के उस पार गए और बस के पास पहुंचे और जैसे ही दरवाजे पर पैर रखे तो दरवाजे पर खड़े एक व्यक्ति ने मना कर दिया कि अब कोई सीट खाली नहीं है, सारी सीटें भर चुकी हैं। हमने कांपते बदन और किटकिटाते हुए दांतों के साथ लड़खड़ाते हुए शब्दों से उसे बताया कि भाई मैं अभी 500 रुपए देकर अपनी सीट रखकर गंगा स्नान के लिए गया था और आप ऐसे कैसे सीट किसी को दे सकते हैं, अगर हम पैसे देकर नहीं जाते तो सीट पर मेरा अधिकार नहीं पर हम पैसे देकर गए हैं और मुझे पैसे वापस भी नहीं चाहिए मुझे तो सीट ही चाहिए। इस पर उस व्यक्ति ने किसी का नाम लेकर आवाज लगाया कि ऐसी ऐसी बात है तो उधर से आवाज आई कि हां 21 नम्बर की सीट है और वो नहाने के लिए गए थे।

इसके बाद हम बड़े शान से किसी महाराजा की तरह बस में दाखिल हुए अपनी सीट तक पहुंचे तो देखा कि जिस 21 नम्बर की सीट पर हम अपना पानी का बोतल रखकर गए थे वो 22 नम्बर पर रखा हुआ है और 21 नम्बर की सीट पर एक साहब जी पूरी तरह स्थापित हो चुके हैं। थोड़ी मेहनत करके किसी तरह उन महोदय को 21 नम्बर की सीट से विस्थापित करके 22 नम्बर की सीट पर स्थापित कर दिया और उसके बाद हम 21 नम्बर की सीट पर कुंडली मारके बैठ गए और सोचा कि अब तो समय हो ही गया तो अब बस यहां से चलेगी पर पता लगा कि कल की बुकिंग वाली 2 सवारियां जो 23 और 24 नम्बर की सीट पर स्थापित होने वाले थे अभी तक विस्थापित ही हैं।

खैर दो-चार मिनट बाद वो दोनों विस्थापित महोदय ऐसे आए जैसे वो दोनों कोई नेता हों और बाकी सवारियां उनका भाषण सुनने के लिए मंच के इर्द-गिर्द खड़े हों। अब नेता जैसे आए थे तो नेता जैसा आचरण भी तो जरूरी ही था तो उन्होंने ऐसा किया कि अपनी सीट के पास पहुंचे और सीट पर सामान रखने के बाद विचार-विमर्श किया कि एक सीट तो खिड़की वाली है और दूसरी भी खिड़की वाली मिल जाती तो बहुत अच्छा होता। फिर उन्होंने खिड़की वाली सीट के लिए किसी दूसरे सवारी को झिड़की दिया कि भाई आप मेरे साथ बैठ जाइए और अपनी खिड़की वाली सीट मुझे दे दीजिए। अब खिड़की वाले भाई साहब इस मधुर झिड़की को सुनते ही बिल्कुल रसगुल्ले की तरह फट गए और कहने लगे कि वाह क्या अदा है आपकी। एक तो आप देर से आए और अपनी सीट छोड़कर दूसरे की सीट मांग रहे हो। कहने लगे कि आपके लिए खिड़की वाली सीट क्या चीज है, हम आपके लिए सीट ही छोड़ देते हैं और पीछे सामान रखने वाली डिक्की में बैठ जाते हैं फिर आप आराम से कभी इस सीट पर कभी उस सीट पर बैठते हुए चले जाइएगा। बस इतना ही सुनना था कि अब तक कूल डूड बने दोनों महाशय जी साॅरी कहकर पल्ला झाड़ा और अपनी सीट पर विराजमान हुए।

अब उनके अपनी सीट पर विराजते ही गाड़ी का कर्मचारी भी चालक महोदय को कहा कि चल भाई चल, देर हो रही, गाड़ी आगे बढ़ा। बस जी तो पहले से ही चलने के लिए तैयार खड़े थे और कुछ ठंड के कारण और कुछ इंजन चालू रहने के कारण थर थर कांप रहे थे और उधर चालक महोदय ने बे्रक से पैर हटाकर एक्सीलरेटर दबाया और बस जी धीरे धीरे ठुमकते हुए ठीक 5.00 बजे आगे बढ़ने लगे। उधर बस जी जैसे ही आगे बढ़े तो बस में बैठे सभी सवारियों ने एक स्वर में यात्रा सकुशल पूरी कराने के लिए जय बदरी विशाल, जय काली कमली वाले बाबा की और बदरीनारायण की जय जैसे शब्दों का उद्घोष किया और उसके बाद बस में कुछ देर के लिए शांति छा गई और बस जी धीरे धीरे ठुमकते हुए आगे बढ़ते चले जा रहे थे। बस के चलने के बाद हमें केवल इतना ही याद है कि जिधर हरकी पैड़ी जाते हैं उधर को ही बस जा रही थी और आगे तिराहे से ऋषिकेश बाईपास की तरफ मुड़कर गंगा की धारा को पार किया था और उसके बाद कब मेरी पलकें बंद हो गई पता नहीं। और पलकें बंद नहीं भी होती तो भी होना क्या था, बाहर तो अंधेरे का साम्राज्य व्याप्त था और कुछ दिखता तो अंधेरा ही इसलिए हमने भी थोड़ी देर अपनी आंखों को आराम देते हुए नींद में डूबने की कोशिश करने लगे।

और नींद में डूबने से पहले एक और जरूरी काम जो करना था वो था घर पर ये बताना कि हम बदरीनाथ की बस पर बैठे हैं तो मोबाइल निकाला और स्पीड डायल से 4 डायल कर दिया सीधा और सीधा घर पर रखे फोन में घंटी बजने लगी और सामने से वही रोज रोज वाली जानी पहचानी आवाज आई तो हमने बता दिया कि बदरीनाथ की बस पर बैठा हूं, पर आगे रुद्रप्रयाग में उतर जाऊंगा या चमोली तक जाऊंगा या फिर बदरीनाथ ही पहुंचूंगा ये बाद में बताऊंगा। पर उधर से ये हिदायत मिली कि बैग में सेब दे दी हूं उसे खा लीजिएगा। अच्छा ठीक है कहकर बात खत्म हुई पर बेचारे सेब जी को इतनी आसानी से थोड़े ही खाएंगे, अभी उनको दिन भर का सफर पूरा करवाएंगे फिर उनको उदरस्थ करेंगे।

अब जब तक हम थोड़ा सा नींद लेते हैं और बाहर उजाले की सत्ता स्थापित होती है तब तक के लिए आज्ञा दीजिए और साथ ही माफी भी क्योंकि लेख के आरंभ में हमने कहा था कि आइए अब आपको हरिद्वार से आगे ले चलते हैं लेकिन हम आपको उस 30 मिनट के चक्कर में बस यहीं बस स्टैंड से विष्णु घाट और फिर वापस बस स्टैंड तक ही घुमाते रह गए। अभी के लिए इतना ही बाकी बातें अगले आलेख में, तब तक के लिए आज्ञा दीजिए और प्रेम से बोलिए काली कमली वाले बाबा की जय।







रात में हरिद्वार की सुनसान सड़क

बल्बों की रोशनी से जगमगाता गंगा का पानी

बल्बों की रोशनी से जगमगाता गंगा का पानी

बल्बों की रोशनी से जगमगाता गंगा का पानी

अंधेरे का साम्राज्य और गंगा के किनारे खम्भों पर जलते बल्ब







4 comments:

  1. अनिश्चितता का भी अपना अलग आनंद है

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको।
      इतने से थोड़े समय में भाग दौड़ का आनंद यात्रा को यादगार बना देता है कि कैसे हमने बस केवल इतने समय में ये कर लिया।

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  2. Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको।

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