Monday, June 28, 2021

अथ श्री कचौड़ी-जलेबी कथा (Kachaudi Jalebi Katha)

अथ श्री कचौड़ी-जलेबी कथा (Kachaudi Jalebi Katha)



बात पिछले साल की है। जेठ के तपते झुलसते महीने में एक दिन शाम के समय हम घर से निकलकर खेतों की तरफ जाकर एक छोटे से पुलिया पर बैठे हुए थे। गोधूलि बेला के इस समय में खेत में चरने गई गाय-भैंसे हरी और सूखी घास चरकर वापस अपने घर को आ रहे थे और उनके पीछे उनका मालिक भी कंधे पर लाठी और गमछा लिए हुए हो-हो, है-है, हे-हे करते हुए आ चले आ रहे थे और मैं ध्यानमग्न होकर उन दृश्यों को निहारे जा रहा था। उधर सूर्य देव भी दिन पर अपनी चमक बिखेरने के बाद अपनी बची हुई लालिमा को लेकर वापस अपने घर को जा रहे थे और उनकी इस लालिमा से चारों दिशाएं केसरिया रंग में रंग चुकी थी और हम इसी केसरिया रंगों में डूबे हुए कई साल पीछे के दृश्यों में तैर रहे थे।

हम इन दृश्यों में खोए हुए ही थे कि सहसा कुछ आवाज सुनाई पड़ी जिसके शब्द थे वो रहे बड़का पापा, और इस आवाज को सुनने के बाद हमने पीछे देखा तो देखा कि बेटा अपनी बहनों के साथ हमारी तरफ आ रहा था और पास आते ही उन बच्चों में से एक के शब्द थे कि बड़का पापा सातो की दुकान पर जलेबी बन रहा है और दादी बोली है जलेबी लाने के लिए। बच्चों की ये बातें सुनकर मेरे मन में भी गोल और टेढ़ी रसभरी जलेबियों घूमने लगी और घूमे भी क्यों नहीं क्योंकि वो होती है इतनी अच्छी, तभी तो किसी गीत के ये बोल किसी ने बनाए थे

काले कौअन के गजबे बहार हो गईल।
कि जलेबी रसगुल्ला में मार हो गईल।।

बच्चों की बातें सुनने के बाद हम वहीं से बच्चों के साथ जलेबी मिलने की आशा लिए हम जलेबी लाने के लिए चल पड़े पर वहां जाकर देखा कि आशा मैडम को निराशा मैडम ने मार-पीट कर भगा दिया है मतलब कि जलेबी खत्म हो चुकी है और अब जलेबी कल ही बनाया जाएगा। हमने सातो बाबू को कहा कि भैया तनि हमरो लगी थोड़े सा झिलेबिया बना देहो, ते उनखर जवाब मिललै कि ये भैवा अगर मैदा घोरल रहतो हल त बना देतियो हल पर अब मैदा ही खत्म हो गेलौ तक कैसे बनइयो। इतना कहने के साथ उनके आगे के शब्द थे कि ये भैवा अब कल बनैवो त सबसे पहले तोर घरे पहुंचा देवौ हल। अब उनके इस बात पर कुछ कहा या किया भी तो नहीं जा सकता था और हम बच्चों के साथ उदास मन से घर आ गए। और कल के जलेबी के स्वाद की कल्पना करने लगे।

फिर पता नहीं मन में क्या आया जो हमने मां से कहा कि मम्मी कल सुबह हमें सबसे पहले बस से बिहार शरीफ जाना है तो इस पर श्रीमती ने कहा कि कौन सा काम तो उनको कह दिया कि कुछ प्रखंड यानी ब्लाॅक का काम है और उसके बाद खाना खाकर सो गए और सोने से पहले न जाने कितनी बार जलेबी देवी को याद किया होगा ये पता नहीं और उस गिनती को कुछ इस तरह समझ लीजिए, जैसे आजकल लोग लाॅकडाउन लाॅकडाउन बोलने की गिनती नहीं कर पाते वैसे ही हम उस दिन जलेबी जलेबी बोलने की गिनती नहीं कर रहे थे।

खैर जैसे तैसे सुबह हुई और हम बिहार शरीफ जाने के लिए तैयार हो गए। सुबह 4.30 वाली बस पर बैठे और बस जी भी अपने समय पर बिहार शरीफ के लिए चल पड़े और हम जलेबी देवी के स्वाद का स्मरण करते हुए खिड़की से बाहर झांक रहे थे। अंधेरा जी जा चुके थे और प्रकाश जी आने के लिए आतुर हो रहे थे और ईधर बस जी भी गांव की सड़कों पर हिलते-डुलते चले जा रहे थे। ईधर बस ही चले जा रहे थे और उधर सूरज बाबा भी चारों दिशाअेां को केसरिया रंग में डूबा रहे थे मानो किसी के इंतजार में वो हर तरह रंग बिखरा रहे हों। कभी कभी वो ताड़ के पेड़ों पर से तो कभी शीशम और पीपल के पेड़ों से झांकते हुए बस बढ़ते ही चले जा रहे थे और हमारा ध्यान इन दृश्यों के साथ साथ जलेबी पर टिका हुआ था। समय बीतता रहा और बस चलती रही और करीब 1.30 घंटे के सफर के बाद 6.00 पर हम बिहार शरीफ पहुंच गए। बस यहां पहुंचने के बाद 45 मिनट रुकती है और यहां से वापस मेरे गांव के लिए यही बस 6.45 पर चलती है और ये े45 मिनट जलेबी और कचौरी खाने और घर लेकर जाने के लिए काफी था तो हम जिस सीट पर बैठकर आए थे उसी सीट पर अपना तौलिया रखा और कंडक्टर को बोल दिया कि ये मेरी सीट है और उसके उपरांत हम चले पड़े बाजार की तरफ।

बस स्टैंड से बाजार का रास्ता 5 से 7 मिनट का है और हम भी इतने समय में बाजार में दाखिल हो चुके थे। हर छोटे-बड़े खाने की दुकानों पर, ठेले पर, होटलों में जलेबी और कचौरियों की दुकानें सज चुकी थी और इन सजी धजी दुकानों को देखकर मेरे मुंह में पानी आने लगा था और पेट में सोए हुए चूहे भी जाग चुके थे कि लगता है कुछ स्वादिष्ट, पौष्टिक और सुपाच्य खाने के लिए मिलेगा। दो-चार मिनट इन जलेबी और कचौरियों को निहारने और कुछ दुकानों का मुआयना करने के पश्चात् हम एक दुकान में हौले हौले कदमों से प्रविष्ट हो गए।
दुकान में मेरे प्रविष्ट होते ही दुकानदार के सैनिक मेरे पास आ गए और बैठने के लिए ईशारा करने गले कि तो ओधिर बैठ जा और बैठते ही उनका सवाल था कि केतना के। उनके केतना का जवाब हमने यही दिया कि 50 रुपैया के। अब मेरे 50 रुपैया बोलते ही उन्होंने ऐसे देखा जैसे कि हमने उनसे उनकी दुकान ही मांग लिया और मेरे बोलने से वे ही बोल पड़े कि अकेले हैं कि 3-4 लोग। हमने कहा कि भाई अकेले हैं। तो उन्होंने कहा कि एक आदमी में 50 रुपैया के लेके कि करथीन। तो हमारा जवाब निकला कि त केतना के लियो। फिर महोदय ने कहा कि 20 रुपया के काफी हको। और फिर उन्होंने एक प्लेट में कचौड़ी, जलेबी और आलू की तरकारी लाकर हमारे सामने लाकर रख दिया और इसके साथ ही एक बड़े से गिलास में भर गिलास पानी। हमने भी करीब 15 मिनट में इन चीजों को उदरस्थ किया और फिर कहा कि 20 का तो हम खाइये लेलियो, और अब तो ऐसन करा कि 130 रुपया के बढि़या से पैक करके दे दा, और पैक ऐसन करिया कि घर तक पहुंच जाए काहे कि हमरा फलना गाम तक जायके हको।

मेरी बात पर ये जवाब मिला कि साहेब बस पांच मिनट में हम पैक करके दे देहिया और ठीक 5-7 मिनट में उन्होंने कचौरी-जलेबी और सब्जी को अच्छे पैक करके दे दिया और कहा कि तों अपन गांव तक यहां से लेके चल जा और फिर लेके यहां चल अैहा और फिर दुबाारा लेके चल जैहा हल तैयो ई नै गिरतो। फिर हमने भी उनके हाथ से अपनी अमानत को लिया और उनकी अमानत के 150 रुपये उनको दिया और बस स्टैंड की तरफ चल पड़े। हम बस स्टैंड पहुंचकर बस पर बैठे और कुछ मिनट बाद 6.45 पर बस गांव की तरफ जाने के लिए चल पड़ी और 7.45 पर गांव तक पहुंच गई और हम कचौरी-जलेबी-सब्जी के साथ घर पहुंच गए।

अब पहुंच तो गए घर तक लेकिन घर पहुंचते खरी-खोटी भी सुनने को मिला, आशीर्वाद भी सुनने को मिला और बच्चों के मुंह से ये सुनने को मिल रहा था कि पहले हमरा, पहले हमरा, हमारा ऐगो औ, कोई कचौरी मांग रहा था, कोई जलेबी तो कोई सब्जी और कुल मिलाकर कहा जाए तो सब खाने में व्यस्त थे और उन लोगों के साथ हम भी खाने में ही व्यस्त थे। अब आपही सोचिए जब हम खाने में व्यस्त है तो ये कथा अब आगे कैसे लिख सकते हैं, अभी खा लेते हैं तो पहली बार लौंगलत्ता खाने और फिर उसका नशा हो जाने की कथा लिखंेगे।

हम खाने का फोटो नहीं खींचते इसलिए यहां पर प्रयुक्त फोटो इंटरनेट से लिया गया है वो भी इसलएि कि इसे देखकर आप लोगों को भी खाने का मन हो जाए।

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