Saturday, June 26, 2021

उस रात के अंधेरे में.... (In the darkness of that night...)

उस रात के अंधेरे में.... (In the darkness of that night...)



ये बात 20 साल पूर्व उस समय की है जब हम नवादा के कन्हाई लाल साहू महाविद्यालय में प्रवेशिका (इंटरमीडिएट) में पढ़ते थे। मार्च के महीने हमारी की परीक्षा चल रही थी। इन परीक्षाओं के बीच में ही हमें रविवार के दिन दानापुर छावनी में सेना भर्ती के लिए कुछ जरूरी प्रकियाओं के लिए दानापुर भी जाना था। शनिवार को दोपहर 1.30 बजे परीक्षा खत्म होने के बाद हम अपने कमरे पर गए और वहां से बैग उठाकर बस स्टेशन आ गए। वैसे तो नवादा से पटना के लिए हर दस मिनट में बसें मिल जाती थी लेकिन उस समय चारा वाले मुख्यमंत्री जी की कोई रैली निकलने वाली थी इसलिए बसों की संख्या कम हो गई थी, फिर भी हमें बस जल्दी ही मिल गई और रात होते होते हम पटना पहुंच गए और समयानुसार कहें तो 8 से ज्यादा बच चुके थे।


पटना में उस समय मीठापुर बस स्टैंड नहीं था। उस समय सभी बसें हार्डिंग पार्क बस स्टैंड जाती थी। बस से उतरने के पश्चात हम हार्डिंग पार्क से जंक्शन तक पैदल ही आए और वहां से टेम्पू से गांधी मैदान पहुंच गए क्योंकि वहीं पर पास में बड़का बाबूजी (बड़े पापा) रहते थे। डेरा पर पहुंचे तो देखा कि दरवाजा बंद है और ताला लगा हुआ है। पड़ोस वाली आंटी से पूछा तो उन्होंने बताया कि वे तो आज सुबह ही गांव चले गए। उनकी इस बात से मुझे अचानक ही 11000 वोल्ट के बिजली के करंट जैसा झटका लगा कि अब 9 बजे रात को मैं कहां जाऊंगा और कहीं चला भी गया तो क्या पता वहां भी ताला लटका हुआ मिले तो फिर कहां जाऊंगा।

अब हम कहीं न जाकर सीधे जंक्शन पहुंचे और एक अखबार खरीदकर वहीं बिछाया और सो गए। अब ये भी नहीं कह सकते कि सो गया क्योंकि ठंड के कारण नींद नहीं आ रही थी। कभी सोते, कभी बैठते ही ऐसे ही किसी तरह हमने रात गुजार दिया। फिर सुबह विन्देशवरी पाठक जी द्वारा दिए गए सुविधाओं का लाभ लेते हुए स्नान ध्यान के पश्चात चाय पीया और नगर बस सेवा से दानापुर पहुंच गए। वहां की सारी प्रक्रियाओं में दोपहर के 2 से ज्यादा बज गए और फिर वहां से निकलकर सीधा हम हार्डिंग पार्क आ गए।

अब तक शाम के 4 बज चुके थे। पटना का हार्डिंग पार्क बस स्टैंड जो अनगिनत बसों से भरा हुआ होता था, आज एक भी बसें वहां नहीं थी। और जो एक-दो बसें दिख भी रही थी उसके मालिक ने उसके चक्के खोलकर हटा दिए थे। बहुत दौड़ने भागने के बाद यही मालूम हुआ कि सारी बसें चारा बाबू की रैली के लिए जा चुकी है और अभी दो दिन कोई भी बस नहीं मिलेगी। जिस स्टेशन से हरेक एक मिनट पर बसें निकला करती थी वो अभी वीरान पड़ा हुआ था। जहां से पूरे राज्य के सभी शहरों (तब बिहार और झारखंड) के लिए बसें मिला करती थी वहां से आज किसी भी जगह जाने के लिए एक भी बस उपलब्ध नहीं थी।

अब क्या क्या जाए कुछ समझ नहीं आ रहा था। अगर हम आज रात तक नवादा नहीं पहुंचे तो मेरी परीक्षा छूट जाएगी। बड़े पापा यहां होते तो हम साइकिल का भी इंतजाम कर लेते और साइकिल से चले जाते पर वो भी संभव नहीं था। ऐसे कभी ईधर कभी उधर करते हुए लगभग 5 बजे चुके थे और हमें कोई रास्ता नहीं दिख रहा था। पटना से नवादा के लिए कोई ट्रेन भी नहीं थी कि ट्रेन से वहां चले जाएं। उसके लिए एक उपाय ये था कि पटना से पहले गया तक ट्रेन से जाएं और फिर वहां से नवादा दूसरे ट्रेन से तो वो भी संभव नहीं था क्योंकि पटना से गया के लिए तो ट्रेन हर समय मिल जाती है पर गया से नवादा के लिए ट्रेन हमें सुबह 7 बजे मिलेगी जो नवादा 9 से 10 बजे के बीच पहुंचती थी और परीक्षा 9 बजे शुरू हो जाती थी।

अब दूसरा उपाय ये कि पटना से बिहार शरीफ तक ट्रेन से जाया जाए और फिर वहां से किसी तरह नवादा पहुंचा जाए। घड़ी की सूइयां भी 5 बजने का ईशारा कर रही थी और ट्रेन 5.30 बजे थी और अगर किसी तरह हम इस ट्रेन को पकड़ लिए तो ठीक है और अगर नहीं पकड़ पाए तो कोई उड़न तश्तरी, उड़ने वाला कालीन, अलाउद्ीन का जादुई चिराग भी मुझे वहां तक नहीं पहुंचा सकता था। आसपास कोई टेम्पू या रिक्शा वाला भी नहीं था कि हमें जल्दी से जंक्शन पहुंचा दे तो वहीं एक पान की गुमटी वाले ने एक रास्ता बताया जिससे हम जल्दी से जंक्शन पहुंच गए और वहां पहुंचते ही उद्घोषणाओं ने कान में भोंपू बजाया कि आरा से चलकर बख्तियारपुर के रास्ते राजगीर जाने वाली गाड़ी प्लेटफाॅर्म संख्या 4 से खुलने के लिए तैयार है।

अब जब रेल जी खुलने के लिए तैयार खड़े हैं तो हम भी बिना टिकट लिए ही जाकर एक डिब्बे में बैठ गए और कुछ ही मिनटों में ट्रेन खुल गई। अभी तक उस डिब्बे में हम बिल्कुल अकेले थे और आनंद से खिड़की से बाहर देखते हुए जा रहे थे। जंक्शन के बाद ट्रेन राजेन्द्र नगर रुकी वहां तीन विषखोपड़ा टाइप का आदमी उस डिब्बे में सवार हुआ। हमें पता नहीं क्यों उन विषखोपड़ों को देखकर कुछ भय सा प्रतीत हुआ कि कहीं ये मेरे पैसे और सामान छीन न ले लेकिन ट्रेन खुल चुकी थी तो हम वहां से उठकर दूसरी तरफ चले गए और गुलजारबाग स्टेशन पर ट्रेन से उतरकर दूसरे डिब्बे में चले गए। अब दूसरे डिब्बे में चले तो गए लेकिन इस डिब्बे में एक भी लाइट नहीं जल रही थी तो हम दरवाजे पर ही खड़े रहे और पटना सिटी स्टेशन पर फिर दूसरे डिब्बे में चले गए, जहां मुझे चार-पांच अच्छे अंकल जी दिख गए तो हम उन लोगों के पास ही बैठ गए।


ट्रेन चलती रही, रुकती रही, ट्रेन देर होती रही और देर होती रही, स्टेशन आते-जाते रहे और लोग चढ़ते रहे व उतरते रहे। कुला मिलाकर कहें तो हर दिन भरकर चलने वाली ट्रेन में आज 10 प्रतिशत लोग भी नहीं थे। ट्रेन रुकते-चलते, देर होते होते अपने समय से 7.30 बजे से 2 देर यानी कि 9.30 बजे बख्तियारपुर पहुंची। बख्तियारपुर आते ही वो सभी अच्छे अंकल जी लोग ट्रेन से उतर गए और उस कूपे में हम अकेले रह गए। खैर यहां से भी ट्रेन चली और हावड़ा मेन लाइन को छोड़ते हुए राजगीर की तरफ मुड़ गई। यहां से भी ट्रेन को बिहार शरीफ पहुंचने में करीब एक घंटे का समय लगता है और हमने यही सोचा ट्रेन सही से चलती चली गई तो 10.30 बजे बिहार शरीफ पहुंच जाएगी। ईधर अभी एक घंटे का सफर बाकी था तो हमें लगा कि काहे नै थोड़ा आंखों को भी आराम देते हैं क्योंकि रात में भी सो नहीं पाए थे। यही सोचकर हम खिड़की में सिर टिकाकर सोने की कोशिश करने लगे और धीरे धीरे पूरे सीट पर पसर कर सो गए। नींद इतनी गहरी आई कि हम पूरी तरह उसमें डूब गए क्योंकि तैरना तो आता नहीं था।


हम नींद की गहराई में डूबे हुए थे और ट्रेन का इंजन अंधेरे में अपने इकलौते बड़े आंख से देखते हुए पटरी पर दौड़ती चली जा रही थी और इंजन के पीछे पीछे उसके डिब्बे भी खींचे चले जा रहे थे। खैर हम तो नींद में थे और ट्रेन कहां रुकी, कहां से चली ये पता नहीं था पर जैसे ही नींद की गहराई से बाहर आए और घड़ी देखा तो पता चला कि 11.00 बजे चुके हैं और ट्रेन रुकी हुई है। 11 का समय देखते ही हमने अपना बैग उठाया और जल्दी से ट्रेन से उतर गए। उतरते ही स्टेशन के बोर्ड पर नजर गई तो देखा कि जिस स्टेशन पर ट्रेन रुकी है उसका नाम है वेना। अब ये वेना स्टेशन है तो बिहार शरीफ पहुंचने में अभी आधे घंटे और लगेंगे यानी कि अब तक ट्रेन 3 घंटे देर हो चुकी थी। खैर वेना से ट्रेन खुली और यहां से खुलने के बाद रहुई रोड पर रुकी और उसके बाद फिर सोहसराय हाॅल्ट पर रुकी (पर अब सोहसराय हाॅल्ट का प्रमोशन हो चुका है और ये सोहसराय जंक्शन बन गया है)। सोहसराय से ट्रेन चली और पांच मिनट बाद करीब 11.40 बजे बिहार शरीफ (अब बिहार शरीफ जंक्शन) पहुंच गई।


एक बार को हम यहां ट्रेन से उतर गए फिर यही सोचा कि 12 बजने वाले हैं और न टेम्पो मिलेगा न कोई आदमी और पूरे बिहार शरीफ को पार करके रामचंद्रपुर बस स्टैंड जाना इतनी रात को अकेले ठीक नहीं है तो ट्रेन से ही चलते हैं और पावापुरी रोड पर उतरकर हाईवे पर कोई न कोई बस मिल जाएगी जिससे हम नवादा पहुंच जाएंगे। यही सोचकर हम फिर से ट्रेन में बैठ गए। कुछ ही देर में ट्रेन यहां से राजगीर की तरफ चल पड़ी और 12 बजे रात को ट्रेन पावापुरी रोड पहुंच गई। यहां तो मन हां कहे या ना कहे पर उतरना तो था ही तो हम भी उतर गए। हाॅल्ट स्टेशन (पर अब हाॅल्ट नहीं स्टेशन है) था तो ट्रेन कब आई, कब रुकी और कब चली गई पता भी नहीं चला। ट्रेन के यहां से जाते ही घुप्प अंधेरा दिखने लगा। दूर दूर तक कोई आदमी नहीं दिख रहा था। हाईवे भी करीब 500 मीटर था तो किसी तरह चांद की रोशनी में हाईवे तक पहुंचे। चांद भी पूरा उगा हुआ था क्योंकि दो दिन बाद ही पूर्णिमा का दिन था।


खैर कैसे भी करके हाईवे पर पहुंच तो गए पर यहां आकर भी वही ढाक के तीन नहीं पांच पात वाली कहानी हुई। करीब आधा घंटा इंतजार किया पर एक भी बस नहीं दिखी जो कि या तो बिहार शरीफ या नवादा की तरफ आ या जा रही हो। केवल ट्रक ही थे जो आपाधापी एक दूसरे से आगे निकलने की होड़ में गुजर रहे थे, हमने दो-चार ट्रक को हाथ के ईशारे से रुकने के लिए कहा पर एक भी नहीं रुकी। अब स्थिति ऐसी थी कि हम कहीं जा नहीं सकते थे इस वीराने में कहीं रुक भी नहीं सकते थे। ये वो दौर था जब घर से दो चार लोग अकेले नहीं निकलते थे और मैं अकेला आधी रात को वीराने में भटक रहा था।


अब कोई उपाय सूझता न देख हमने यही फैसला किया कि चलो बिहार शरीफ चलते हैं क्या पता रामचंद्रपुर बस स्टैंड से लंबी दूरी वाली बसें भी मिल जाए तो पूरा किराया देकर नवादा में उतर जाएंगे पर होना वही था जो अब तक होता आ रहा था। पावापुरी रोड से बिहार शरीफ बस स्टैंड तक पांच किमोमीटर का सफर उस आधी रात में गुजरते हुए ट्रकों की रोशनी में हमने डेढ़ घंटे में पूरा किया और करीब 2.00 बजे बस स्टैंड पहुंच गया। यहां पहुंचा तो देखा कि बस स्टैंड में भी सन्नाटा पसरा था। जिस स्टेशन से पूरी रात रांची, कलकत्ता, धनबाद, बोकारो, चाइबासा आदि शहरों के लिए बसें मिलती थी वो स्टेशन वीरान पड़ा है। जब यहां भी कुछ नहीं मिला तो कहीं न जाकर वहीं एक बेंच पर ऐसे ही सो गए, पर मच्छर भाइयों ने मुझे एक मिनट भी सोने नहीं दिया तो ऐसे ही हाथ-पांव मारते हुए छटपटाते हुए वहीं ईधर का उधर और उधर का ईधर करते रहे। करीब 3 बजने वाले तो ठक ठक की आवाज सुनाई दिया देखा तो एक पुलिस अंकल अपना डंडा पटकते हुए मेरी तरफ चले आ रहे थे और देखते ही देखते वो मेरे पास पहुंचकर रौबदार आवाज में बोले कि यहां क्या कर रहा है तो फिर हमने उनको सब कुछ बताया तो सहानुभूति प्रकट करने के बजाय वो मुझ पर पता नहीं क्यों गुस्सा होने लगे कि इतनी रात को वहां से यहां तक आया है, यहां भी अकेले बैठा हुआ है।


खैर गुस्सा शांत होने पर पुलिस अंकल मुझे ये हिदायत देकर वहां से चले गए कि सुबह होने तक यहां से कहीं जाना नहीं पर मेरे बेचैन मन में अभी कोई ज्ञान नहीं घुस रहा था और और उनके जाते ही हमने भी वहां से उठकर सरकारी बस स्टैंड जाने का फैसला किया कि प्राइवेट बसें नहीं चल रही है तो सरकारी बसें तो मिल ही जाएगी और बीच शहर में स्थित भरावपर स्थित सरकारी बस स्टैंड पहुंचे तो यहां भी कुछ नहीं मिला और मिला भी तो एक कुत्ता जो मुझे देखकर भौंकने लगा।


अब यहां रुकने का मतलब था कि हमें उसका भों-भों सहना पड़ेगा और हम नहीं चाहते थे कि हम उसका भों-भों सुने क्योंकि उसका भों-भों सुनकर कोई भी यहां आ सकता था और फिर मेरे लिए मुसीबत बन सकता था पर जाएं तो कहां जाएं। खैर अब कोई उपाय नहीं था तो चल पड़े गढ़पर रहने वाले चाचा जी के यहां और अंधरा रहते ही वहां पहुंच भी गए। पर इतनी हिम्मत नहीं हो रही थी कि दरवाजे की कुंडी बजाएं, पर यहां आकर हम निश्चिंत थे कि हमें अब कोई खतरा नहीं है और वहीं दरवाजे की सीढि़यां पर बैग रखकर दीवार के सहारे सिर टिकाकर सो गए।
सुबह नींद तब खुली जब चाची ने घर का दरवाजा खोला और मुझे देखते ही कहने लगी कि यहां क्या कर रहा है, कब आया, किसलिए आया, किसके साथ आया, कहां से आया, क्यों आया, किस चीज से आया। एक साथ उनके इतने सवालों का हम क्या जवाब देते। वो बस सवाल पूछती जा रही थीं और मैं चुपचाप आंखों से आंसू की धारा बहाते हुए खड़ा था, इतने में चाचाजी भी बाहर आए और उनका भी वही सवाल और मेरे जवाब के रूप में केवल मेरे आंसू। दोनों मुझे पकड़कर अंदर ले गए फिर थोड़ा सामान्य होने के बाद हमने सब कुछ बताया और कहा कि मेरी परीक्षा छूट जाएगी। मेरे इस बात पर चाचाजी ने कहा कि तुम नहा-धोकर जल्दी से तैयार हो जाओ तुम्हारे लिए अभी साइकिल का इंतजाम करते हैं।


इतना कहकर वो बाहर निकल गए और मैं नहाने चला गया, तब तक चाचीजी भी रोटी भूंजिया बनाने लगीं। कुछ देर में चाचाजी कहीं से एक साइकिल लेकर आ गए और ईधर मेरे लिए रोटियां भी बन चुकी थी। चाची ने एक टिफिन बाॅक्स में रोटी पैक किया और हम उसे बैग में रख निकलने की तैयारी करने लगे। दरवाजे पर आते ही चाचाजी ने पूछा कि वापस कब आओगे तो हमने कहा कि आज शाम को वापस आ जाऊंगा, क्योंकि परसो होली है तो कल घर चला जाऊंगा और एक विषय की परीक्षा होली के बाद है। इस बात पर चाचाजी ने जवाब दिया कि यहां मत आना और साइकिल से सीधा घर ही पहुंच जाना क्योंकि हम लोग भी आज दोपहर तक घर चले जाएंगे। इसके बाद हम उनके चरणस्पर्श के पश्चात् साइकिल की टुनटुनिया बजाते हुए ठीक 7 बजे नवादा की तरफ चल पड़े और 36 और 2 और 1 यानी 39 किलोमीटर का सफर करीब डेढ़ घंटे में पूरा करके ठीक 8.35 बजे हम नवादा में अपने रूम के पास पहुंच गए।


वहां पहुंचकर रूम का ताला खोलकर बैग रखा, एडमिट कार्ड और कलम लेकर साइकिल से ही परीक्षा केन्द्र गांधी इंटर काॅलेज पहुंच गए। परीक्षा देने के बाद वहां से फिर अपने कमरे पर जाकर रोटी भूजिया को उदरस्थ किया और घर जाने की तैयारी करने लगा। सब कुछ करते करते लगभग 3 बज गए और एक बार फिर मेरी साइकिल टुनटुनिया बजाते हुए घर जाने के लिए चल पड़ी थी। इस बार हम करीब 3 घंटे में 44 किलोमीटर साइकिल चलाया और बिहार शरीफ न जाकर पावापुरी से ही रास्ता बदलकर अपने घर पहुंच गया। हमारे घर पहुंचने से पहले ही हमारे कारनामों की खबर गांव में होली के रंग की तरह उड़ रहा था। गांव की सीमा से घर पहुंचने तक लोग हमें ऐसे देख रहे थे जैसे कि हम किसी दूसरे ग्रह के वासी है। सबकी नजरों के तीर की चुभन को सहते हुए हम घर पहुंचे और पता नहीं क्यों बड़े पापा से लिपट कर रोने लगे, और न जाने कितना रोया होगा ये भी नहीं पता। पर अंत भला तो सब भला वाली बात है कि सब अच्छा हुआ वरना हो तो कुछ भी सकता था।


No comments:

Post a Comment