उस रात की यादें (Memories of that night)
वैसे तो रात को अंधेरे के लिए जाना जाता है लेकिन कभी-कभी जीवन में कुछ ऐसा घटित होता है जिसके कारण रात अंधेरी न होकर सुनहरी हो जाती है। यह घटना तब की है जब हमारी आयु केवल 15 वर्ष थी। मैट्रिक की परीक्षा का अंतिम दिन था। सभी विषयों की परीक्षा समाप्त हो चुकी थी और अंतिम दिन केवल एक विषय बचा हुआ था। हर साल की तरह इस साल भी हमारे स्कूल का परीक्षा केन्द्र करीब 40 किलोमीटर दूर था। परीक्षा के अंतिम दिन सुबह पिताजी सारा सामान लेकर गांव की तरफ प्रस्थान कर चुके थे और हम स्कूल की तरफ। एक बजे परीक्षा समाप्त हुई और अंतिम बार स्कूल के साथियों से मुलाकात करते करते और बातें करते करते कब दो घंटे बीत गए पता नहीं चला।
बातें करते करते अचानक ही घड़ी पर नजर डाला था हमने और देखा कि तीन से कुछ ज्यादा बज चुके थे। साढ़े तीन बजे वहां से बिहार शरीफ की ट्रेन थी। हम सभी साथी दौड़ते-दौड़ते, हांफते-हांफते स्टेशन पहुंचे थे। वहां जाकर पता लगा कि अभी ट्रेन आधे घंटे की देरी से चलेगी। कुछ साथियों ने टिकट लेने की बात की पर हमने किसी को भी टिकट नहीं लेने दिया। टिकट न लेने का भी दो कारण था एक तो उस टिकट के बचे पैसे से प्रतियोगित किरण मैगजीन खरीदना था और दूसरा बिना टिकट बिहारशरीफ से कलकत्ता, बनारस, रांची, भागलपुर, गया आदि जगहों पर पहले ही घूम चुका था इसलिए डर भी नहीं था किसी चीज का।
करीब चार बजे ट्रेन चली और एक घंटे के सफर के बाद करीब पांच बजे हम बिहार शरीफ पहुंच गए। वहां से पहले बाजार में जाकर हम सबने एक एक प्रतियोगिता किरण पत्रिका खरीदा था। पत्रिका लेकर हम लोग बस स्टेशन पहुंचे। यहां सभी जगह की गाडि़यां लगी थी। हमारे गांव में स्कूल न होने के कारण हम अपने बुआ के यहां रहकर पढ़ाई करते थे और हमारे सभी साथी उसी गांव के थे। सभी साथी बस में बैठ गए और हमें भी बैठने के लिए कहा कि तुम भी वहीं चलो और कल सुबह या फिर एक दो दिन बाद अपने गांव चले जाना, पर हम नहीं माने और अपने ही गांव जाने की जिद पर अड़े रहे। अपनी तरफ से उन सभी ने पूरी कोशिश कर लिया कि हम उनके साथ चलें क्योंकि शाम हो चुकी थी और हमारे गांव कोई गाड़ी तो जाती नहीं थी। हमें अपने गांव जाने के लिए पहले तो 12 किलोमीटर बस से सफर करना था उसके बाद 9 किलोमीटर का सफर पैदल ही करना था।
सभी साथियों के समझाने के बाद भी हम नहीं माने और कहा कि तुम लोग अपने गांव जाओ और हम भी अपने घर ही जाएंगे और प्रैक्टिकल परीक्षा में मिलेंगे। उन लोगों की बस चली गई उसके बाद हम भी एक टाटा 407 पर बैठ गए। अब तक सूर्य देवता भी थक कर अपने घर जा चुके थे और हल्का हल्का अंधेरा होने लगा था। गाड़ी चली और करीब आधे घंटे में हम उस जगह पहुंच गए जहां हमें उतरना था। बस नदी के पुल पर रुकी और हमारे उतरने से पहले कंडक्टर ने पूछ लिया कि किस गांव के हो। हमने जब गांव का नाम बताया तो वो उतरने देने के लिए तैयार नहीं हुआ कि इतनी रात में तुम अकेले नदी के किनारे किनारे कैसे जा सकते हो, इसलिए गाड़ी में ही बैठे रहो और रात में जैसे हम सब गाड़ी में ही सोते हैं सो जाना और सुबह वापसी में हम यहीं उतार देंगे।
हमने उसकी बात को भी बीच में काट दिया कि हम अपने गांव तक नहीं जाएंगे बगल के गांव में हमारी एक बुआ रहती हैं उनके यहां ही रह जाएंगे और सुबह चले जाएंगे। फिर भी उसने अपनी तरफ से समझाने का पूरा प्रयास किया ये अंतिम गाड़ी अब इस गाड़ी के बाद दोनों तरफ में से किसी भी तरफ जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं मिलेगी, लेकिन हम उसकी कोई बात मानने को तैयार नहीं हुए। अंततः हारकर उसने हमसे किराए की जो दो अठन्नियां लिया था वो भी मुझे उसने वापस कर दिया और अंतिम हिदायत दिया कि देखो किसी हाल में अपने गांव मत जाना और बुआ के यहां रह जाना क्योंकि समय बहुत खराब है और ऊपर से रात और नदी के किनारे किनारे उतना दूर जाना तुम्हारे अकेले के लिए ठीक नहीं है।
वो अपनी जिद पर अड़ा रहा और मैं अपनी जिद पर और अंततः मैं गाड़ी से उतर गया और गाड़ी मुझे अकेला छोड़कर अपने रास्ते चली गई। उतरते समय तो हम बड़े ही मजे से उतर गए थे लेकिन जैसे ही गाड़ी गई तो गाड़ी के जाने के बाद मुझे अंधेरे का अहसास हुआ। दूर दूर तक किसी लालटेन जलने की टिमटिमाती रोशनी भी नहीं थी। उतरने को तो हम गाड़ी से उतर गए थे लेकिन अब हमें अपनी गलती का अहसास हुआ था, पर अब कुछ कर नहीं सकते थे। अब दो ही रास्ते थे कि रात भर यहीं बैठे रहें या फिर अंधेरी रात में अपने घर की तरफ चलें। अंधेरे को देखकर मेरी हिम्मत नहीं हो रही थी कि हम आगे जाएं पर और कोई रास्ता नहीं था। एक दो दुकान जो वहां पर थी, उसके मालिक भी उसे बंद करके अपने घर को जा चुके थे।
अब मेरे साथ मरता क्या न करता वाली बात थी। यहां भी रुक नहीं सकते थे और न चाहते हुए भी मुझे जाना ही होगा। अब तक सुबह से बीती सारी बातें मुझे याद आ रही थी। सुबह जाते समय पापा कह गए थे कि शाम हो जाए तो बिहार शरीफ में किसी के यहां भी जाकर रह जाना और घर कल आ जाना, पर अपने संकोची स्वभाव के कारण वो मुझे मंजूर न हुआ था। दोस्तों ने भी बहुत कहा था कि चल न आखिरी सफर है हम लोगों के साथ और फिर हम लोग एक साथ कब सफर करेंगे या कभी नहीं करेंगे कुछ पता नहीं, पर हमने उन सबकी बात भी नहीं माना। अंत में बस के कंडक्टर ने भी बहुत समझाया था और हम उसकी बाद को भी दरकिनार करके यहां अंधेरे और वीराने में उतर चुके थे।
खैर अब जो हो गया वो वापस तो आता नहीं। अब इस अंधेरे-वीराने में ऐसे ही अकेले जाना था। बहुत डरते डरते हमने अपना पहला कदम बढ़ाया था। चारों तरफ बिल्कुल घना अंधेरा, मार्च का ठंडा महीना, रात का मौसम, नदी के वीरान किनारे पर अकेले चलना बिल्कुल डरावनी फिल्मों वाला दृश्य था हमारे लिए। फिर भी हम धीरे-धीरे चले जा रहे थे। सौ कदम चलते थे और फिर खड़े होकर हनुमान जी को आवाज लगाते थे कि हे बजरंगवली हमको किसी तरह घर पहुंचा दीजिए, हम आपको कल पेड़ा चढ़ाएंगे, अगले सौ कदम के बाद महादेव को याद करते थे कि किसी तरह घर पहुंच जाएं तो हम आपको कल बताशा चढ़ाएंगे, फिर देवी मां को याद करते कि हे मां घर पहुंचा दो हम कल आपका आंगन साफ कर देंगे, फिर विष्णु भगवान को याद करते कि अगले रविवार को आपके ऊपर दूध चढ़ाएंगे। न जाने कितनी मन्नतें हमने उस दिन मांगा था ये तो गिनती याद नहीं। जितने भी देवी-देवता हैं उस दिन हमने सबको पुकारा था।
ऐसे ही देवी देवताओं को आवाज लगाते हुए वीराने में हौले हौले कदम रखते हुए चले जा रहे थे, कभी कभी तो अपने चप्पल की आवाज से डर जाते कि लगता है कोई पीछे से आ रहा है। कुछ दूर जाने के बाद हमने चप्पल भी खोलकर हाथ में लिया कि जिससे की कोई आवाज नहीं हो, लेकिन फिर रात में कीट-पतंगों का भी डर कि कहीं से बिच्छू अपना डंक न मार दे, तो फिर चप्पल फिर से पैर में। हम ऐसे ही देवताओं को पुकारते हुए चले जा रहे थे कि सहसा ऐसा महसूस हुआ कोई है जो मेरे पीछे आ रहा है। हमने पीछे देखा तो कोई दिखाई तो नहीं दिया लेकिन लाठियों की खट-खट, ठक-ठक की आवाज सुनाई पड़ रही थी। अब तक सभी देवताओं को पुकारने वाले मन में अचानक ही देवताओं से सारा का सारा विश्वास उठ गया कि अभय आज हो गया तेरा काम, तू बहुत जिद्दी है न अब देख अपने जिद का फल।
अब हमारे पास कहीं छिपने या भागने के लिए कोई जगह नहीं थी। हम ठहरे बच्चे निहत्थे और वो कोई बड़ा आदमी और साथ में लाठी भी। हमने आखिरी बार देवताओं को आवाज लगाया था कि भगवान अगर तुम सच में कहीं हो तो बचा लो, पर भगवान जी कहां सुनने वाले थे मेरे मन की आवाज का। हम डरे सहमे ऐसे ही एक ताड़ के पेड़ के पीछे छिप गए थे लेकिन उसे भी ये अहसास हो गया था कि कोई है जो उसके आगे आगे चल रहा है। सहसा उसने आवाज दिया था कि कौन है? उसकी आवाज सुनते ही हमने सांस भी रोक लिया था कि उसे पता न चले। कोई जवाब न पाकर उसने दुबारा थोड़ा जोर से बोला था कि कौन है? तब हमने पेड़ के पीछे निकलकर कहा था कि,
मैं हूं।
कहां जाना है?
परोहा (गांव का नाम)।
किसके लड़के हो।
श्री नवल प्रसाद के।
कौन से नवल जी का।
वो रामानुग्रह जी का भतीजा हूं।
घर से झगड़ा करके भाग रहा है क्या?
नहीं।
तो कहां से आ रहा है?
आज परीक्षा खत्म हुआ है न तो ट्रेन थोड़ी देर हो गई इसलिए रात हो गई।
तो बाजार में ही काहे नहीं रुका।
वो मुझे अच्छा नहीं लगता है किसी के यहां जाना।
किसी के यहां जाना अच्छा नहीं लगता, और इतनी रात को इस तरह अकेले जा रहे हो, कोई मार देगा तो।
अब इसके उस बात का कोई जवाब मेरे पास नहीं था, मैं बिल्कुल चुप था। फिर उसने ही बोला था कि इतनी रात को अकेले जा रहे हो, ये सुनसान रास्ता और तुम अकेले इस रास्ते को पार भी कर लोगे तो फिर नदी के पास जाकर कैसे पार होओगे, जहां इतने सारे सियार हैं, तुमको नोच कर मार डालेंगे वो लोग। मैं चुपचाप सुन रहा था पर जवाब नहीं दे रहा था, क्योंकि मुझे पता था कि अब मेरा आखिरी समय है। मेरी चुप्पी वो भी सह नही सका था और अब तक चिल्ला कर बोलने के रुख को बदलते हुए बड़े प्यार से बोला था कि चलो मैं बेलछी गांव तक तुम्हारे साथ हूं, तुम डरना नहीं। वहां रात में तुम मेरे घर रहना और सुबह चले जाना। मैंने बहुत धीमी आवाज में कहा था कि ठीक है और फिर उसके पीछे-पीछे चलने लगा था।
अभी कुछ दूर ही गए होंगे कि सहसा मेरे मन में क्या आया और मुझे लगा कि नहीं इसके साथ हम नहीं जाएंगे। वरना ये मुझे अपने घर ले जाकर मारेगा तो क्या करूंगा और मैं रुक गया था। फिर वही रौबदार आवाज, क्या हुआ, हमने कहा था कि कुछ नहीं चप्पल का फीता निकल गया, आप चलो मैं आ रहा हूं और उसके कुछ कदम आगे बढ़ते ही हम नदी में उतर गए थे। वो भी करीब दो सौ कदम से ज्यादा चला गया था और मेरे कदमों की आहत न पाकर उसे महसूस हो गया था कि मैं पीछे नहीं आ रहा हूं तो उसने आवाज दिया था कि ओय कहां गया तू, कहां छिप गया, कहां रुक गया। फिर वो मुझे खोजने के लिए उल्टे पांव पीछे की ओर आया था और आवाज लगाया था कि तुम जहां भी छिपे हो निकल जाओ, मैं तुमको कुछ नहीं करूंगा। तुम मुझे नहीं पहचानते लेकिन तुम्हारे पापा के नाम के कारण मैं तुमको पहचान रहा हूं। जहां भी हो बाहर निकल आओ। उसके इन प्यार भरी बातों से अभिभूत होकर मैं नदी से बाहर आया था तब उसने कहा था कि अब तु आगे आगे चलो वरना तुम मुझे पागल कर दोगे। उसके बाद मैं आगे आगे चल रहा था और वो पीछे पीछे। इसी तरह चलते हुए आखिरकार हम उसके गांव पहुंच गए थे।
गांव पहुंचकर गलियों से गुजरते हुए आखिरकार हम उसके घर के पास पहुंचे थे। उसने घर पहुंचते ही अपनी पत्नी को आवाज लगाया था। दरवाजा उनकी बूढ़ी मां ने खोला था और मुझे देखते ही कहा था कि ये लड़का कौन है। फिर उस आदमी ने अपनी मां और पत्नी को मेरे बारे में बताया था कि ये नदी पार वाले गांव का लड़का है अकेला आ रहा था तो लेते आया था। तब उसकी मां ने कहा था कि ठीक किया जो लेते आए वरना अकेले जाने पर जानवरों का खतरा था। उनके घर पहुंचकर भी मेरी हालत कुछ नहीं थी, हमें वहां भी डर लग रहा था तो माता जी ने कहा था कि डरो मत, कुछ नहीं होगा। अभी खाना खाकर सो जाओ और सुबह अपने घर चले जाना। मेरे खाने के लिए मना करने के बाद भी एक बड़े से कटोरे में दूध और चार बड़ी बड़ी रोटियां दी गई खाने के लिए। मैं बड़ी मुश्किल से दो रोटी ही खा पाया। वो सज्जन भी मेरे बगल में ही बैठकर खाना खा रहे थे और कहे जा रहे थे सारी रोटियां निपटा दो, पर अपने छोटे से पेट में जगह ही न बची थी कि रोटियों को निपटाते और मैने कहा कि अब नहीं तो जवाब मिला था कि चलो दूध तो पी जाओ, फिर मैंने किसी तरह दूध को उदरस्थ किया था।
पहली बार किसी अनजान आदमी से इतना स्नेह और प्यार मिला था लेकिन हम कुछ कह या बोल नहीं पा रहे थे। खाना खा चुकने के बाद वहीं जमीन पर एक बिछावन बिछा दिया गया जिस पर उनकी पत्नी सो गई और जिस बिछावन पर वो लोग सोते थे हम उनके साथ उस बिछावन पर सो गए थे। मुझे बहुत देर तक ऐसे ही सोचते हुए नींद नहीं आई थी कि जिनसे मैं डर रहा था आज उसी व्यक्ति ने मुझे अपने घर में शरण दिया और ऐसे ही सोचते सोचते कब नींद आई पता नहीं। सुबह जब उनके बच्चे के रोने की आवाज सुनकर नींद खुली तो उनकी पत्नी ने कहा था कि अभी थोड़ी रात है सो जाइए, लेकिन उसके बाद नींद नहीं आई।
सुबह उजाला होने से पहले ही हमने कहा था कि अब मैं जाऊंगा तो एक बड़े कटोरे में भर कर मट्ठा (लस्सी) पीने के लिए दिया था और लस्सी पीकर मैं उनके घर से निकला था और सूर्योदय होते होते हम अपने घर पहुंच गए थे। इतनी सुबह घर में मुझे देखकर मेरे घर के लोगों को भी आश्चर्य हुआ था कि मैं कैसे आ गया इतनी जल्दी। जब हमने घर में सब कुछ बताया तो कुछ लोग मेरे रात में आने पर गुस्सा हो रहे थे तो कुछ लोग ये पूछ रहे थे कि किनके घर रुका था, पर अफसोस मैं उनका नाम नहीं पूछ सका था। आज भी उन गलियों से गुजरते हुए हम उस घर को तलाशते हैं जिस घर के लोगों ने कभी रात में मुझे शरण दी थी पर उस घर को खोजने में आज तक मैं सफल नहीं हो सका। काश कि मैं उनका नाम पूछ लेता, काश कि मैं उनका नाम पूछ लेता। आज भी उस रात को याद करते ही मन में एक डर बैठ जाता है कि यदि वो नहीं आते तो क्या हम घर पहुंच पाते और उसका एक सीधा सा जवाब है कि नहीं कभी नहीं पहुंच पाते हम अपने घर।
✍️ अभ्यानन्द सिन्हा
रोमांचक और अद्भुत संस्मरण।
ReplyDeleteबहुत बहुत धन्यवाद आपको।
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