Saturday, May 20, 2017

पठानकोट से दिल्ली (Pathankot to Delhi)

पठानकोट से दिल्ली (Pathankot to Delhi)


इस पोस्ट को लिखने से पहले मैं बार बार यही सोच रहा था कि मैं अगर इससे पीछे वाली पोस्ट को ही अगर मैं थोड़ा और बड़ा कर देता तो ये पोस्ट लिखनी नहीं पड़ती, और अगर उसी पोस्ट में इसे जोड़ भी देता तो शायद पोस्ट लम्बी और उबाऊ हो जाती।  खैर रहने दीजिये इन बातों को, इन बातों का कोई निष्कर्ष तो निकलने वाला है नहीं तो उसके बारे में बोलने या लिखने से क्या फायदा। अब आज की यात्रा की बात करते हैं। 

5 दिन पहले में जिस सफर की शुरुआत की थी आज उसके अंजाम तक पहुँचने का दिन आ चुका था। कल पूरे दिन बस और ट्रेन का सफर (करीब 110 किलोमीटर बस और करीब 220 किलोमीटर ट्रेन का सफर) और इधर उधर की भागा-दौड़ी का ये प्रभाव हुआ कि आज सुबह उठने का मन बिलकुल नहीं हो रहा था। 4 :30 बजे अलार्म बजने के साथ ही नींद टूटी तो मैं अलार्म बंद करके फिर सो गया, दूसरी बार अलार्म 5:00 बजे बजा तो उठा और 5:30 बजते बजते जल्दी जल्दी नहा धोकर तैयार हुआ और ये सोचकर स्टेशन से बाहर गया कि कुछ खा-पी लिया जाये क्योकि ट्रेन पर का खाना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है, यदि यहाँ नहीं खाया तो पूरे दिन बिना कुछ खाये ही रहना पड़ेगा। स्टेशन से बाहर जाकर भी निराशा ही हाथ लगी, एक चाय की दुकान तक नहीं खुली थी, इधर उधर देखा और कुछ दूर तक भी गया फिर भी कुछ खाने पीने के लिए नहीं मिला। एक कहावत है न कि अपना सा मुँह बना लेना, वही मेरे साथ हुआ, जिसे फुर्ती से मैं स्टेशन से बाहर चाय पीने गया था और कुछ न मिलने के कारण उसी फुर्ती से मुँह बना कर वापस आ गया। 

पठानकोट से चलकर दिल्ली जाने वाली ट्रेन (ट्रेन संख्या 22430, पठानकोट से दिल्ली जंक्शन) का समय 7 बजे था और 6 तो बज ही चुके थे तो अपना बैग उठाया और प्लेटफार्म पर पहुँच गया ट्रेन पहले से ही खड़ी थी। अभी ट्रेन में कभी भी कोई मानव प्राणी दिखाई नहीं दे रहा था। मैं अपनी सीट पर बैठ गया और लोगों के आने का इंतज़ार करने लगा। कुछ ही देर में ट्रेन के वीरान पड़े डिब्बे के खाली सीटों के मालिक आने शुरू हो गए। मेरे पास की भी दो खाली सीटों के मालिक आये, ओह मालिक नहीं मालकिन आ गए और आते ही मुझ पर ताव दिखाते हुए बोले,




महिला : कहाँ जाना है ?
मैं : दिल्ली।
महिला : चलिए ये सीट खाली कीजिये।
मैं : क्यों।
महिला : ये मेरी सीट है।
मैं : कैसे ?
महिला : मेरे पास टिकट है।
मैं : मैं तो बिना टिकट के ही हूँ।
महिला : अरे विण्डो वाली सीट मेरी है मैंने क्लर्क से कहकर एक विण्डो वाली सीट ली है।
मैं : पर मैंने तो खुद ही विण्डो वाली सीट ले ली है।
महिला : आपका सीट नंबर कितना है ?
मैं : मेरा सीट नंबर कुछ भी हो, आप अपना देख लीजिये क्योंकि ये मेरी सीट है और मैं सही जगह बैठा हुआ हूँ।
महिला : (टिकट देखने के बाद) शायद मुझे विण्डो वाली सीट उसने दिया ही नहीं।
मैं : ठीक है हो जाता है ऐसा, पर जब तक अपना पक्ष मजबूत न हो किसी से उलझना नहीं चाहिए।

चलिए 5 दिन के सफर में जिस चीज़ की कमी महसूस हो रही थी कि—ये तेरी सीट ये मेरी सीट—आज पूरा हो गया। वैसे सीट के लिए उलझना मुझे बहुत पसंद है अगर ऐसा नहीं तो पूरे सफर में मुझे बोरियत महसूस होती है, और सफर अधूरा लगता है लगता है। खैर जैसे तैसे 7 बज गए और ट्रेन पठानकोट से दिल्ली के रवाना गयी। अभी भी मेरे सामने की 3 सीट खाली थी। कुछ ही देर में ट्रेन दीनानगर पहुँच गयी। यहाँ भी ट्रेन में कुछ लोग चढ़े पर हमारे सामने की सीट ऐसे ही वीरान पड़ी थी। दीनानगर के बाद जो स्टेशन आया वो था गुरदासपुर। 

गुरदासपुर में ट्रेन के रुकते ही प्लेटफार्म पर खड़े लोगों ने ट्रेन में चढ़ने के लिए ऐसे धावा बोल दिया जैसे कभी ट्रेन देखी ही नहीं हो। यहाँ हमारे सामने जो तीन सीट वीरान पड़ी थी उसे भी आबाद करने वाले आ गए। ये तीनों लोग महिलाएं थीं। इन 3 में से 2 तो 50 साल के करीब की थी और एक जो थी उसके बारे में कुछ न कहना ही सही होगा, लेकिन अगर न कहें तो पता कैसे लगेगा कि कैसी थी, कौन थी और वैसे भी कौन थी ये तो मुझे भी नहीं पता तो हम आपको कैसे बताएं। वो जो तीसरी थी उसे देख कर तो यही लग रहा था कि नई नई शादी हुई होगी। उसने इतना मेकअप लगा रखा कि क्या बताएं, शायद कटरीना और करीना भी इतना मेकअप नहीं करती होगी। उन तीनों को देखकर ये नहीं लग रहा थी कि वो एक ही परिवार या रिश्तेदारी के हैं। खैर कुछ भी हो मुझे क्या करना।

इस ट्रेन को सुपरफ़ास्ट का दर्जा प्राप्त था और अभी तक अपने दर्जे के अनुसार ही अपने गति से चल रही थी। इस बीच मैंने रास्ते में कुछ फोटो लेने की कोशिश जो नाकाम रही। ट्रेन में भीड़ इतनी थी कि ट्रेन रुकने पर बाहर जाकर फोटो खींचना और फिर ट्रेन खुलने से पहले फिर से ट्रेन में चढ़ पाना मुश्किल था तो मैं अपनी सीट पर बैठे बैठे ही कुछ फोटो लेना चाहता तो जो मेरे सामने की सीट पर वो जो कटरीना कैफ की बहन बैठी हुई थी उनको बहुत दिक्कत होती थी। शायद उनको लगता होगा कि मैं उनकी फोटो ले रहा हूँ। पर उनको भला कौन समझाए कि मैं फोटो उनकी नहीं रास्ते और स्टेशनों की ले रहा हूँ जिसे मैं अपने ब्लॉग पर डालूंगा। 
पता नहीं मैं किस उधेड़बुन में था, ट्रेन धारीवाल और बटाला होते हुए अपने समय से 5 मिनट पहले ही ट्रेन कब अमृतसर पहुँच गयी पता ही नहीं चला। अमृतसर से चलने के बाद ट्रेन में तो हिलने डुलने की भी जगह नहीं बची थी। भीड़ को देखकर ये लग ही नहीं रहा था कि ये आरक्षित श्रेणी का डिब्बा है। विंडो सीट नहीं मिलने के कारण मेरे साथ वाली सीट पर बैठी दोनों महिलाएं मुझ पर इस कदर बिफरी हुई थी कि पूछिए मत। 3 घंटे पहले मैं जैसे सीट पर बैठा था बिना हिले डुले वैसे ही बैठा हुआ था। अब पैर और कमर में जकड़न होने लगी थी। अब सीट पर बैठना मेरे मुश्किल हो रहा था।


10 बजे ट्रेन ब्यास स्टेशन पहुँच गयी। यहाँ एक बहुत ही खड़ूस टाइप का आदमी ट्रेन में चढ़ा। उसके पास जनरल क्लास का टिकट था और मेरे पीछे वाली सीट पर बैठने के किसी से तू-तू मैं-मैं कर रहा था कि टिकट ले लिए तो क्या ट्रेन ही खरीद लिए है। अब मैंने सोचा कि कि क्यों न इसी आदमी को अपनी सीट कुछ देर के लिए दे दूँ तो ये साथ वाली सीट पर बैठे हुए हैं इनको ये परेशान कर सकता। आईडिया तो अच्छा था पर उसके लिए मुझे कुछ देर के लिए अपनी सीट छोड़नी पड़ेगी। खैर कोई बात नहीं थोड़ी देर घूम लेंगे। अब तक हम जलन्धर पहुंच चुके थे। अभी तक वो आदमी बैठने के लिए लोगों से झगड़ा कर रहा ही था पर उसे कहीं बैठने की जगह मिल नहीं रही थी। इधर मैं भी अपनी सीट पर बैठे बैठे परेशान था। उस आदमी के आचार-व्यवहार से साफ प्रतीत हो रहा था ये जिस भी सीट पर बैठेगा तो बाकी लोगों को नाक में दम कर देगा इसलिए इसे कोई एक मिनट के लिए भी बैठने नहीं दे रहा था।


आखिरकार मैंने उससे पूछा कि आपको कहाँ तक जाना है तो उसने झट से हरियाणवी भाषा जवाब दिया कि कुरुक्षेत्र जाना है। यहाँ से कुरुक्षेत्र मतलब कि करीब 3:30 घंटे। मैंने उसे कहा कि देखिये मैं आपको बैठने दूंगा पर मैं जब खड़े खड़े थक जाऊं तो आपको मेरी सीट छोड़नी पड़ेगी। उसने कहा मंजूर है जी आप जब कहोगे मैं खड़ा हो जाऊंगा। मैंने अपनी सीट छोड़ दी और वो ऐसे बैठा जैसे महीनों से खड़ा हो। अब क्या बताऊँ जी उसने साथ वाले लोगो को ऐसे परेशान किया कि दोनों महिलाएं ऊब गयी और मुझे बोली कि हमने आपको परेशान किया तो आप खुद परेशान कर लेते ऐसे आदमी को बैठा दिया कि अब हम दोनों के लिए यहाँ बैठना मुश्किल है। अब आप अपनी सीट पर खुद बैठकर हम दोनों पर कृपा करें। मैंने उनको बस इतना ही कहा कि आप लोग एक घंटे में ही परेशान हो गए पर कभी मेरे बारे में सोचा कि मैंने 5 घंटे कैसे बिताया। उसके बाद मैं उससे अपनी सीट मांगी तो उसने ये कहते हुए ख़ुशी ख़ुशी मेरी सीट वापस कर दिया कि लीजिये ये आपकी सीट है आपने इतने देर बैठने दिया बहुत अहसान आपका।  अब मैं उसे ये कैसे बताऊँ की भाई अहसान मैंने नहीं आपने किया जो अब मैं यहाँ से आगे का सफर बहुत आराम से करुँगा , दिल्ली तक न सही पर कुरुक्षेत्र तक तो कर ही सकता हूँ नहीं तो आपको फिर से बैठा दूंगा।  उसके बाद सफर इतना आरामदेह रहा कि जैसे मैं शताब्दी एक्सप्रेस में बैठा हुआ हुआ हूँ। उसके बाद दिल्ली तक का सफर इतना अच्छा और आरामदायक रहा कि कुछ पता नहीं लगा कि हम कब दिल्ली पहुँच गए। आधे घंटे की देरी से ठीक 5:30 बजे ट्रेन दिल्ली जंक्शन (पुरानी दिल्ली) पहुँच गयी और हम 7 बजे अपने डेरा (डेरा बिहार में निवास को कहते हैं) पहुँच गए। 


कुल मिलाकर ये सफर बहुत बढ़िया बीता और इस 5 की दिन यात्रा में 3 दिन 3 अलग अलग जगहों पर रहने, पूरे पूरे दिन बस के महँगे सफर, ट्रेन किराया , खाने-पीने का खर्चा मिलाकर कुल खर्च केवल 3000 रुपए हुए। वो भी पूरे 3000 नहीं।  इसलिए आप लोग भी घर से निकलें और घुमक्क्ड़ी करें और अपने देश को नज़दीक से देखें। 



अब कुछ फोटो हो जाये :




पठानकोट जंक्शन का मुख्य द्वार (दिन में)

पठानकोट जंक्शन का मुख्य द्वार (रात में)

पठानकोट जंक्शन के मुख्य द्वार के बाहर अपने लालटेन से रोशनी करता भोलू (दिन में)

रात में तो भोलू लालटेन बुझ गया

रेलवे रिटायरिंग रूम जहां मैंने रात में रुका

पठानकोट जंक्शन से काँगड़ा जाने वाली ट्रेनों की समय सारणी 

दिल्ली जंक्शन में प्रवेश करती हुई ट्रेन

दिल्ली जंक्शन में प्रवेश करती हुई ट्रेन

दिल्ली जंक्शन में प्रवेश करती हुई ट्रेन

दिल्ली जंक्शन में प्रवेश करती हुई ट्रेन

दिल्ली जंक्शन में प्रवेश करती हुई ट्रेन

पास से गुजरती हुई दूसरी ट्रेन 

प्लेटफार्म 

स्टेशन के बाहर 

स्टेशन के बाहर बाजार 

स्टेशन के बाहर बाजार

स्टेशन के बाहर बाजार

रेलवे स्टेशन से चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन के लिए सीढियाँ और स्वचालित सीढियाँ 




15 comments:

  1. ट्रेन में हुई महिला से नैकझौक पढने में बढिया लगी। कैटरीना कैफ का एक फोटो तो बनता था। 😁😁

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    1. हाँ कुछ ऐसी ही परिस्थियाँ बन गयी थी

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  2. Sitaoo ka uljhan sabko uljha deta hai. Sitaoo ke ley hi mara mari hai. Lok ho ya parlok

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    1. हाँ सीटों की समस्या सब जगह एक जैसी ही है।

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  3. kya ho ab kaha jane ki tayaree hai.thora khajur mere liye bhi le lijyega


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    1. सुमधुर धन्यवाद राजीव जी, कभी चलिए साथ में कहीं तब न, केवल आप यही पूछते है अब कहाँ जा रहे है

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  4. वाह सर जी , गज़ब की लेखन शैली और पोस्ट में बाद सम्बाद के क्या कहने |

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    1. धन्यवाद नितिन जी संवाद बनाए रखिएगा

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    2. सही मे बहुत हि बढ़िया लिखा है

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  5. मुझे क्या करना....कहते हुए भी उन नौक झोक और यात्रियो के बारे में सब लिख दिए आप...
    अक्सर भारतीय ट्रेनों में ऐसा ही होता है //

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    1. सुमधुर धन्यवाद जी, सीट के लिए आपाधापी हर जगह है,

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  6. bhai tussi to great ho..Bhaut hi achi jankari share ki aapne hamare sath… Aap hamesha kuch new post lekar aate ho. Thanks for sharing…… www.subtechguide.com visit kro

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  7. thanks bhai jo aapne mera post padha, aur aapko acha laga uske liye aapka abhinandan hai

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  8. Great superb journey .U know. Aise lag raha thaa mein hi ghum rahi hu

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको

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