चलो कहीं चलते हैं... (Chalo kahin chalte hain)
पर कहां पता नहीं!’’
अक्सर ही हम कहते हैं कि ‘‘जा रहे हैं या जाकर आते हैं’’ पर हकीकत यही है कि ‘‘हम कहीं नहीं जाते’’। ‘‘कहीं भी जाने वाला इंसान कहीं नहीं जाता क्योंकि कहीं जाने के लिए कहीं से जाना पड़ता है’’ और ‘‘जहां से जाना पड़ता है वो जगह हमें कहीं जाने नहीं देती’’ क्योंकि ‘‘कहीं भी जाने वाला इंसान अकेला नहीं जाता’’। कहीं दूसरे शहर में एकदम से अकेले जाने पर भी नहीं और तब भी नहीं जब वह अपने परिवार, पति-पत्नी, बच्चे, माता-पिता और भाई-बहनों के भौतिक साथ के बिना अकेला ही निकलता है। कोई भी व्यक्ति अपनी जड़ों में जकड़े पांवों के थमने के बगैर, अपने दिलो-दिमाग में खालीपन के अहसास के बगैर अपनी दुनिया को छोड़ नहीं पाता क्योंकि हमारे साथ तमाम ताने-बाने सदा ही हमारी यादों में होते हैं। अपना इतिहास, अपनी संस्कृति में डूबा आत्मबोध सदा साथ होता है।
एक याददाश्त जो कभी धुंधली तो कभी साफ और चमकीली, हमारे बचपन या किशोरावस्था की गलियारों की किसी दूरस्थ चीज का संस्मरण सदा हमारे साथ होता है जो कभी भी अचानक ही हमारे सामने या हमारे भीतर आकर खड़ी हो जाती है। एक शर्मीली भंगिमा, गलतफहमी से खो चुकी एक मुस्कान, उसके द्वारा कहा गया कोई एक सीधा और सरल सा वाक्य जो शायद अब वह भूल चुका हो बरबस ही याद आ जाता है। कोई एक ऐसा शब्द या वाक्य जो किसी अनावश्यक संकोच, आत्मविश्वास की कमी या किसी अनजाने डर के कारण लाख कोशिशों के बाद भी कहा नहीं गया हो या कहा नहीं जा सका हो अनायास की मानस-पटल पर उभर आती है।
अपने द्वारा की गई दूर की इस यात्रा में हम अपने अंतर्मन में हलचल का अनुभव करते हैं। अपने को घेरे रहने वाले यादों के उन जाल से कभी मुक्त नहीं हो पाते। हम सदा ही अपने मन में चल रहे विचारों के विस्तार के लिए, अपनी दुनिया, अपनी माटी और अपने लोगों की यादों के साथ ही चलते रहते हैं। अपनी किसी भी यात्रा में हम अपने टूटे सपने, बिखरती हसरतों को भी सदा साथ लिए ही चलते हैं और कहीं कुछ खो न जाए का भय भी सदा हमारे साथ ही यात्रा पर चलता रहता है। हमारे कहीं से कहीं जाने पर हमारे जाने पर खाली हुई वो जगह भी हमारा इंतजार करती है, हमारी वस्तुएं भी हमारे लौटने की बाट जोहते रहते हैं और उन चीजों को देखकर यही लगता है कि सामान पैक करके गए लोग अभी गए हैं और अभी वापस भी आ ही रहे होंगे। कभी कभी जाकर या जाते हुए हम किसी पुराने जगह, कुछ खास स्थान या अपने जगह की कुछ खास खान-पान की चीजों के लिए तड़पते हुए चलते चले जाते हैं और ऐसा लगता है कि ये कहां आ गए हम यूं ही यादों के साथ चलते-चलते।
इतने सारे ताने-बाने के साथ तो बस यही कह सकते हैं कि ‘‘जा रहे हैं कहीं, पर कहां पता नहीं’’ जिसका निष्कर्ष यही है कि ‘‘हम कहीं जाकर भी कहीं नहीं जाते’’।
—अभ्यानन्द सिन्हा
फोटो: वसुधारा (माना गांव, बदरीनाथ) के रास्ते का
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