Monday, October 28, 2019

प्रकृति पूजा का महापर्व है : छठ महापर्व

प्रकृति पूजा का महापर्व है : छठ महापर्व





केलवा जे फरेला घवद से, आह पर सुगा मंडराय
उ जे चढैवो आदित्य के, सुग्गा देले जुठियाय
मरबो रे सुगवा धनुष से, सुग्गा गिरै मुरछाय
सुगनी जे रोवे ला वियोग से आदित्य होवा न सहाय

छठ महापर्व के ऐसे ही कुछ कर्णप्रिय और मधुर गीत आजकल पूरे बिहार और पूर्वांचल क्षेत्र के हर गली, नुक्कड़, गांव, शहर और चौक-चौराहे पर सुनने के लिए मिल जाएंगे। कुछ दशक पहले तक छठ पर्व एक ऐसा त्यौहार था जो केवल बिहार और पूर्वांचल तक ही सीमित था और इन इलाकों से अलग दूसरे राज्य के निवासी इसे एक आश्चर्य की तरह देखते थे कि ये कैसा त्यौहार है, लेकिन अब यहां के निवासियों का दूसरे राज्यों और यहां तक कि दूसरे देशों में बसने के कारण यह त्यौहार वहां भी मनाया जाने लगा है। मुझे याद है जब दिल्ली में 18 साल पहले आया था तो बहुत कम लोग यहां छठ मनाते थे और बिहार के लोग भी छठ में अपने अपने शहरों की ओर त्यौहार मनाने के लिए लौट जाते थे, लेकिन अब एक तो आने जाने में गाडि़यों की इतनी दिक्कत होने लगी है कि लोग उस परेशानी से बचने के लिए यहीं छठ मनाने लगे और आज के समय में छठ यहां धूमधाम से मनाया जााने लगा है।

छठ किस लिए मनाया जाता है कब से मनाया जाता ये हम नहीं जानते और न ही ऐसा कुछ लिखेंगे, पर जब से भी मनाया जा रहा है पूरी श्रद्धा और सम्मान-आदर के साथ मनाया जाता रहा है। इस त्यौहार में न तो कोई दिखावा है, न भेदभाव है, न तो उपहारों का आदान-प्रदान है, कुछ है तो बस आपसी प्रेम-सौहार्द और अपनापन है। उदीयमान मतलब कि उगते हुए सूर्य की पूजा तो पूरे देश-दुनिया में होता है लेकिन छठ ही एक ऐसा त्यौहार है जिसमें उगते हुए सूर्य की पूजा से पहले अस्ताचलगामी सूर्य मतलब कि डूबते हुए सूर्य की पूजा किया जाता है। वैसे तो इस चार दिवसीय त्यौहार कार्तिक शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि से आरंभ होकर सप्तमी तिथि तक चलती है लेकिन तैयारियां कार्तिक महीने के शुरुआत से ही हो जाती है।

कार्तिक महीने के प्रथम दिवस के दिन से ही इस त्यौहार में प्रसाद बनाने के लिए अनाज को धोना-सुखाना, रखना आदि की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है। प्रसाद बनाने के लिए नए चूल्हे भी बन जाते हैं। जलावन के लिए अलग गोइथा (गोयथा, उपला, कंडा) बनाया जाता है। गन्ने का खोइहा (क्रेशर से निकला गन्ने का छिलका) भी जलावन के काम बाता है, साथ ही सनाठी (सन का डंढल) भी एक विकल्प है। खरना का प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग किया जाता है जिसका स्थान कहीं कहीं पीतल के बर्तनों ने लिया है। घर से घाट तक सामान ले जाने के लिए भी जिस टोकरी का प्रयोग होता है वो भी बांस से बना होता है और अघ्र्य देने के लिए प्रसाद जिस सूप में रखा जाता है वो भी बांस का ही बना होता है लेकिन आधुनिकता के इस समय में इनका स्थान कुछ कुछ जगह पीतल के बर्तनों में बदलता जा रहा है।

प्रथम दिन, कार्तिक शुक्ल पक्ष चतुर्थी
आज के दिन को नहाय-खाय या पुरानी संझत के नाम से जाना जाता है। आज के दिन कुछ विशेष नहीं होता। आज खाने में चावल, चने की दाल, कद्दू (घिया, लौकी), ओल (जिमीकंड) की सब्जी बनती है और साथ में दही भी रहता है। व्रती लोग आज नहाकर खाना खाते हैं और इसलिए इस दिन को नहाय-खाय के नाम से भी जानते हैं। खाने में कद्दू की सब्जी बनती है इसलिए कुछ लोग कदुआ भात भी कह देते हैं जो ठीक संबोधन के लिए ठीक नहीं है। व्रती के खाना खा लेने के बाद ही घर के लोग खाना खाते हैं और साथ ही उन घरों से भी लोग बुलाए जाते हैं जिनके घरों में छठ व्रत नहीं होता।

द्वितीय दिन, कार्तिक शुक्ल पक्ष पंचमी
आज के दिन को लोहंडा या खरना के नाम से जाना जाता है। आज व्रती लोगों के लिए उपवास का दिन होता है और निर्जला रहना पड़ता है। सुबह साफ-सफाई के बाद प्रसाद बनाने का काम आरंभ होता है। प्रसाद बनाने के लिए नए चूल्हे का प्रयोग किया जाता है। प्रसाद बनाने के लिए मिट्टी के बर्तन का ही प्रयोग होता है, प्रसाद बनते समय उसे घाटने मिलाने के लिए भी आम के लकड़ी के डंडे से ही काम लिया जाता है लेकिन शहरों में इन सबका स्थान पीतल के बर्तनों ने ले लिया है, क्योंकि वहां ये सजह रूप में उपलब्ध भी नहीं हो पाते हैं। प्रसाद में दाल चावल बनाया जाता है और नमक के रूप में साधारण नमक का प्रयोग न करके सेंधा नमक का प्रयोग किया जाता है।

अरवा चावल (जिसे कच्चा चावल कहा जाता है), चने की दाल, रोटी, दूध, पीठा (चावल के आटे का बनाया जाता है), रवा (गन्ने के रस से बनता है) का प्रयोग होता है। जिस बर्तन में व्रती खाना खाते हैं उसे परिया कहा जाता है। हमारे यहां तो अभी भी ये परिया मिट्टी का होता है लेकिन कहीं कहीं लोग जहां ये मिल नहीं पाता पीतल या कांसे का प्रयोग करने लगे हैं। आज के दिन प्रसाद के अलावा घर में कुछ और खाना नहीं बनता है। जिन घरों में छोटे बच्चे हैं या जो व्रती नहीं है और न ही प्रसाद बनाने में उनका कोई काम है उनके खाने का इंतजाम पड़ोस के घरों में जिनके यहां व्रत नहीं होता है, उनके यहां हो जाता है।

शाम होते होते प्रसाद भी बनकर तैयार हो जाता है। व्रती लोग नहा कर पूजा पर बैठते हैं और महिलाएं छठ की पारंपरिक गीत गाते हुए पूजा संपन्न करवाती है। याद आता है वो दिन जब हम छोटे थे तो मम्मी और बड़ी मम्मी (ताई जी) गीतों में हम सभी भाइयों का बारी बारी से नाम लेती थी तो बैठे बैठे हम लोग वहीं खुशी से रोना आरंभ कर देते थे और ऐसा नहीं कि ये केवल तब ही, आज भी जब इन गीतों में अपना नाम आता है तो आंसू न चाहते हुए भी आ ही जाते हैं। हां तो बात कर रहे थे व्रती लोग पूजा पर बैठते थे और महिलाएं सब गीत गाती थीं और बच्चे लोग भी बिल्कुल निःशब्द शांत होकर उन दृश्यों को देखते थे। पूजा संपन्न होने के बाद व्रती खरना करते हैं मतलब कि प्रसाद ग्रहण करते हैं और उसके बाद घर के बच्चे लोग उसी प्रसाद को खाते हैं। उसके बाद शुरू होता है पड़ोस के घरों से लोगों को बुलाकर खिलाने का कार्यक्रम। जो पड़ोस के लोग शादी-विवाह में दस बार खुशामद करके बुलाने पर भी नहीं आते हैं आज वही लोग घर के बाहर से ही केवल नाम लेकर ये पुकार लेने पर कि प्रसाद खाने चलिए, बिना कोई सवाल जवाब के चले आते हैं।

उन लोगों का घर आना और प्रेम से बैठकर प्रसाद ग्रहण करना। आज ही के दिन ये देखने के लिए मिलता है कि प्रसाद ग्रहण करने के लिए आने वाले लोग यही कहते हुए पाए जाते हैं कि बस थोड़ा सा दीजिएगा, अभी उनके यहां से खाकर आ रहा हूं या फिर ये कहेंगे कि आपके यहां से अब उनके यहां जाना है। मतलब कि उन लोगों का भी अच्छे से परेड बना रहता है। हर घर में जिनके यहां से बुलावा आ जाए हर हाल में जाएंगे, चाहे तो चावल का एक दाना ही खाएं लेकिन जाएंगे जरूर। इस खाने-खिलाने का कार्यक्रम समाप्त होते होते दस-ग्यारह बज जाते हैं।

ईधर तो ये कार्यक्रम चलता रहता है लेकिन उधर व्रती के सोने के लिए भी अलग इंतजाम करना होता है। शहरों में खैर जो भी हो पर हमारे गांव में अभी भी यही होता है कि उनके लिए नेवारी (जिसे पुआल भी कहा जाता है) बिछाकर उस पर कम्बल और चादर बिछाकर जमीन पर ही सोना होता है। व्रती के लिए असली समय तो अब आरंभ होता है कि कल रात से निर्जला रहकर अभी जो उन्होंने थोड़ा बहुत प्रसाद ग्रहण किया है उसके बाद अब उनको आज रात, कल पूरा दिन और फिर पूरी रात के बाद परसों सुबह ही अन्न मिलेगा और जब तक उनको निर्जला ही रहना पड़ेगा, भोजन-पानी से दूर। घर के बाकी सदस्यों को सब कुछ निपटाते हुए आधी रात का समय हो चुका होता है। फिर सुबह जल्दी उठने आपाधापी में रात ऐसे ही गुजर जाती है।

तृतीय दिन, कार्तिक शुक्ल पक्ष षष्ठी
आज के दिन को उपवास के नाम से जाना जाता है। आज का दिन भी व्रती को पूरे दिन निर्जला रहना पड़ता है शायद इसलिए आज के दिन का नाम उपवास रखा गया है आज के दौर में थोड़ा सा बिगड़ कर उपास हो गया है। आज के दिन अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है। आज सुबह से ही प्रसाद बनाने का काम आरंभ हो जाता है। ठेकुआ, पुआ, चावल के आटे का लड्डू बनाने में लगभग पूरा दिन लग जाता है। ठेकुआ, पुआ आदि घर में बनी हुए चीजों के अलावा और भी कई चीजें प्रसाद के लिए प्रयोग में लाई जाती हैं। जैसे अमरूद, सेव, केला, नारंगी, दूध, पानी वाला नारियल, सूखा नारियल, सूखे फल, शकरकंद, गन्ना, महताबी (बड़े बड़े संतरे के जैसे), पत्ते वाला हल्दी और अदरक, मूली, गन्ने, पान, सुपारी आदि चीजे।

कुल मिलाकर देखा जाए तो प्रसाद के रूप में जो भी चीजें हैं वो बिल्कुल प्राकृतिक हैं। प्रसाद के साथ और भी जिन चीजों का प्रयोग किया जाता है वो सब कुछ भी प्राकृतिक रूप से ही तैयार हैं। जैसे जलावन है तो उपला या लकड़ी के रूप में। प्रसाद बनाने के लिए जिन बर्तनों का प्रयोग किया जा रहा है वो मिट्टी के बने, प्रसाद बनाने के बाद रखने के लिए लिए जिन चीजों का प्रयोग हो रहा है वो भी बांस के बने टोकरी और सूप आदि। प्रसाद बनाने में चीनी के बदले रवा का प्रयोग करना। वनस्पति घी के बदले देसी घी या तेल का प्रयोग, आदि आदि।

दोपहर होते होते लगभग प्रसाद बनाने का काम पूरा हो जाता है और नहीं भी तो वो बाद में ही बनता है क्योंकि इसके बाद घाट पर जाने की तैयारियां आरंभ हो जाती है। अघ्र्य देने के लिए सूप में सभी चीजों को रखा जाता है और फिर घाट पर ले जाने के लिए टोकरी में रखा जाता है। ये सूप अपनी श्रद्धा या क्षमता के अनुसार एक, दो या तीन भी होते हैं। पूरा गांव इस समय का बेसब्री से इंतजार कर रहा होता है। नदी से घाट तक जाने वाले रास्ते को पहले ही साफ कर दिया जाता है। बच्चे, बड़े जिनकी जैसी क्षमता है उस हिसाब से नए कपड़े धारण करके घाट की तरफ चलते हैं। हां तो बात कर रहे थे कि प्रसाद बन जाने के बाद घाट पर अघ्र्य देने के लिए जाने की तैयारी शुरू होती है। पूरा गांव नदी किनारे एक ही घाट पर जमा होते हैं। जिनके घरों में व्रत होता है वो भी नहीं होता है वो भी मतलब सब लोग घाट पर जाते हैं।

आगे आगे प्रसाद की टोकरी सिर पर लिए हुए एक सदस्य चल रहा होता है उसके पीछे व्रती होते हैं और उनके पीछे घर के सभी सदस्य। बच्चे उत्साहित और महिलाएं गीत गाते हुए चल रही होती हैं। आज ही का दिन वो दिन होता है जब पूरा गांव एक साथ एक ही दिशा में बिना किसी वैचारिक मतभेद के बिल्कुल एक मत से एक ही तरफ जा रहे होते हैं। सूर्यास्त से पहले लगभग पूरा गांव नदी किनारे इकट्ठा हो चुका होता है। सभी व्रती लोग नदी में नहाने के बाद इकट्ठे होकर प्रसाद का सूप हाथ में लेकर खड़े होते हैं और बाकी सदस्य दूध और जल से अघ्र्य देते हैं और ये प्रक्रिया व्रती लोग चारों दिशाओं में घूमते हुए पूरा करते हुए अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य देते हैं। आज अघ्र्य देने की शुरुआत सबसे पहले पश्चिम की तरफ मुंह करके करते हैं क्योंकि आज डूबते हुए सूर्य को अघ्र्य दिया जाता है जो इस समय पश्चिम की ओर होते हैं तथा उसके बाद दक्षिणावर्त घूमते हुए चारों दिशाओं में अघ्र्य देते हैं। भुवन भास्कर सूर्य के अस्त होने से पहले अघ्र्य देने का काम पूरा हो चुका होता है उसके बाद सभी लोग घाट से अपने अपने घर की तरफ प्रस्थान करते हैं। घर पहुंचकर व्रती अपने निर्धारित स्थान पर जाकर बैठते, सोते या आराम करते हैं और महिलाएं गांव के देवस्थानों और कुल देवता की पूजा करने में लग जाते हैं।

चतुर्थ दिन, कार्तिक शुक्ल पक्ष सप्तमी
आज के दिन को पारण के नाम से जाना जाता है। आज के दिन व्रत का समापन होता है और व्रती 36 घंटे तक निर्जला रहने के बाद प्रसाद ग्रहण करते हैं और शायद इसलिए आज के दिन का नाम पारण रखा गया है। आज भी कल वाली ही सभी प्रक्रियाएं होती हैं। सुबह अंधेरे ही लोग घाट पर जाने के लिए निकलते हैं और आगे आगे सिर पर प्रसाद का डाला लिए हुए सदस्य के पीछे व्रती और पीछे से सभी सदस्य चल रहे होते हैं। सुबह होने से पहले ही सब घाट पर पहुंच चुके होते हैं। कल जहां अस्ताचलगामी सूर्य को अघ्र्य दिया जा रहा था आज उसके बादले उदीयमान सूर्य का अघ्र्य पड़ता है, लेकिन प्रक्रिया सारी वही रहती है। आज अघ्र्य देने की शुरुआत सबसे पहले पूरब दिशा की तरफ मुंह करके करते हैं क्योंकि आज उदीयमान सूर्य को अघ्र्य दिया जा रहा है जो कि पूरब दिशा में हैं तथा इसके दक्षिणावर्त घूमते हुए चारों दिशाओं में अघ्र्य देते हैं।

घाट से घर आकर आज व्रती कल और आज अघ्र्य दिए हुए प्रसाद को ग्रहण करते हैं और उसके बाद घर के सदस्य उसी प्रसाद को ग्रहण करते हैं और उसके पश्चात गांव के लोगों को प्रसाद खाने के लिए बुलाने का दौर शुरू होता है जो लगभग दोपहर तक चलता है और इसी प्रकार चार दिनों के इस व्रत का समापन होता है। कुल मिलाकर कहा जाए तो यह त्यौहार को पूरी तरह से प्रकृति की पूजा के रूप में मनाया जाता है, जहां सब कुछ प्रकृति के नियमों के अनुसार है, कुछ भी ऐसा नहीं जहां कि प्रकृति को कोई नुकसान हो। गांवों में आज भी इसी परंपरा का निर्वहन होता आ रहा है लेकिन शहरों में इस परंपरा को खत्म करके डीजे वाली नई परंपरा की शुरुआत की गई है, जो इस त्यौहार के लिए बहुत ही गलत है। कुछ ही सालों में गांवों से शहरों आकर बसने वाले लोगों ने अपने ही त्यौहार के रूप में एक गलत संदेश देना आरंभ कर दिया है।

इस पोस्ट के लिए फोटो उपलब्ध कराने के लिए अनुराग चतुर्वेदी जी (Anurag Gayatree Chaturvedi), अभिषेक पांडेय जी (Abhishek Pandey), मुकेश पांडेय चंदन जी और संजय कुमार सिंह जी (Sanjay Kumar Singh) को बहुत बहुत धन्यवाद।

✍️ अभ्यानन्द सिन्हा











2 comments:

  1. बहुत सुंदर लेख।
    कोशीय का भी जिक्र कर देते तो सोने पे सुहागा हो जाता।

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको।
      अच्छा याद दिलाया आपने कोशिय का विवरण भी लेख में जोड़ देते हैं।

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