Thursday, December 12, 2019

घोड़ा कटोरा ताल-1: घोड़ा कटोरा ताल की ओर (Ghoda Katora Taal-1: Towards Ghoda Katora Taal)

घोड़ा कटोरा ताल-1: घोड़ा कटोरा ताल की ओर (Ghoda Katora Taal-1: Towards Ghoda Katora Taal)



घोड़ा कटोरा ताल (राजगृह या राजगीर, नालंदा, बिहार) : आइए हम आपको इस बार एक प्राकृतिक झील की सैर पर ले चलते हैं, जो 2500 साल से भी ज्यादा पुरानी है और यह स्थान बिहार के नालंदा जिले में राजगीर और गिरियक के मध्य पहाडि़यों के बीच स्थित है और इसका नाम है घोड़ा कटोरा ताल। यहां तक पहुंचने के दो रास्ते हैं। एक रास्ता राजगीर विश्व शांति स्तूप तक जाने वाले रोपवे के पास से है और दूसरा रास्ता गिरियक से है। गिरियक पटना-रांची राजमार्ग पर बिहार शरीफ से रांची की ओर जाने पर बिहार शरीफ से 18 किलोमीटर दूरी पर स्थित है जो जानवरों के हाट के लिए प्रसिद्ध है। राजगीर वाले रास्ते से इस झील की दूरी 6 किलोमीटर है, वैसे कहते हैं कि 6 किलोमीटर है लेकिन है 7 किलोमीटर और साधन के रूप में या तो आपको पैदल जाना पड़ेगा या टमटम (घोड़ा गाड़ी) से। पक्षी अभयारण्य क्षेत्र होने के कारण यहां मोटर गाड़ी पूरी तरह से प्रतिबंधित है। गिरियक वाले रास्ते से भी दूरी करीब 5-6 किलोमीटर है और जाने का साधन कच्ची सड़कों पर मलंग फकीर बनकर धूल उड़ाते हुए चलना। वैसे पारंपरिक रास्ता राजगीर से ही है, गिरियक वाला रास्ता तो हम जैसे भटकटैया लोगों के लिए है कि वीराने में भटकते हुए चलते चले जाएं।

घोड़ा कटोरा ताल राजगीर की पहाडि़यों के बीच स्थित है। इससे कुछ किलोमीटर दूर एक घोड़ा कटोरा नामक गांव है इसलिए इस झील का नाम भी घोड़ा कटोरा रख दिया गया है। यह झील 2500 साल से भी ज्यादा पुरानी है। प्राचीन समय में राजा बिम्बिसार और अजातशत्रु के घोड़ों और घुड़सवार सेना का अस्तबल भी इसी झील के पास था। यह झील चारों तरफ पहाड़ों से घिरा हुआ है और चारों तरफ के पहाड़ों पर होने वाले वर्षा का जल इस झील में जमा होता है। इस झील में पूरे साल लबालब पानी भरा रहता है और झील में पानी रहने का एक कारण इस क्षेत्र में भूमिगत जल का बहुत कम गहराई में होना भी है। इस झील से करीब दो किलोमीटर पूरब की तरफ पंचाने (सप्पिनी) नदी बहती है और करीब 2-3 किलोमीटर दक्षिण-पूरब की तरफ धाधर नदी बहती है जो आगे चलकर घोड़ा कटोरा ताल से 1 -1.5 दक्षिण-पूरब में पंचाने नदी में ही मिल जाती है। राजगीर की तरफ से झील तक पहुंचने में दोनों तरफ पहाड़ों के बीच से गुजरना होता है और कई तरह के पक्षियों के दर्शन होते हैं लेकिन गिरियक की तरफ से जाने पर केवल धूल-धूसरित कच्ची सड़कों पर चलना होता है। साल 2018 में पर्यटन को बढ़ावा देने के लिए वहां सरकार की तरफ से बोटिंग की व्यवस्था भी करवाई गई है जिससे ज्यादा लोग यहां आएं और साथ ही झील के बीच में एक बुद्ध की प्रतिमा का भी निर्माण करवाया गया है।

आइए अब इस जगह की यात्रा की बात करते हैं। इस बार गांव गया था तो गांव पहुंचने के दिन और वापसी के दिन को छोड़कर मेरे पास बीच के 4 दिन थे और दिल्ली से ही सोचकर चला था इन चार दिनों में से किसी एक दिन यहां हर हाल में जाना है। 30 नवम्बर को दिल्ली से चले थे और 1 दिसम्बर को गया पहुंचे थे और उस दिन वहीं की घुमक्कड़ी करने के पश्चात 2 दिसम्बर को गया से घर के लिए निकले थे और रास्ते में राजगीर में भी कुछ घंटे की घुमक्कड़ी का आनंद लिया था और शाम तक घर पहुंच गया था। 3 दिसम्बर को पूरा दिन गांव की गलियों, खेतों की पगडंडियों और नदी के किनारे पागल बन घूमता रहा था और अगले दिन यानी 4 दिसम्बर को यहां जाने का निश्चित किया। शाम को ही मां को बता दिया कि कल सुबह पहली बस (सुबह 5.40) से बिहार शरीफ जाऊंगा और शाम तक आ जाऊंगा। वैसे आज दोपहर से ही तबियत खराब थी और इस बात को हमने मां-पिताजी से नहीं बताया था कि अगर बता दिया तो जाने नहीं दिया जाएगा और 3 तारीख को नहीं गया तो हमारे पास 4 और 5 तारीख ही बचेंगे क्योंकि 7 को वापसी की टिकट है तो 6 को तो हर हाल में घर में ही रहना था। जाने का मन में ठान लिया था कि जाएंगे तो जाएंगे ही और अगर दिक्कत हुई तो रास्ते से वापिस हो लेंगे। मोबाइल और कैमरे को शाम में ही बैग में रखकर खाना खाकर सो गया।

सुबह 5 बजे नींद खुली तो पिताजी ने बताया कि बस तो आई नहीं। बस नहीं आने की बात सुनकर हमने जाने का विचार छोड़ दिया कि अब नहीं जाना, अब कल देखा जाएगा और फिर से सोने की कोशिश करने लगे पर नींद तो अब आने से रही। कभी हां, कभी ना के विचार में कुछ मिनट डूबने-तैरने के बाद आखिरकार हमने यही फैसला किया कि आज ही चलते हैं और जाने की तैयारी करने लगा। कुएं के पास गया तो उसके ठंडे पानी से इस समय नहाने की हिम्मत नहीं हुई तो फिर चापाकल (हैंडपंप) के पानी से स्नान किया और चलने की तैयारी कर लिया। मुझे जाने के लिए तैयार हुआ देख पिताजी ने जल्दी जल्दी चाय बनाया और कहने लगे कि पैदल ही पेड़का गांव तक चले जाना तो वहां से गाड़ी मिल जाएगी। पेड़का गांव का रास्ता पैदल जाने वाले के लिए है और मेरे गांव जो बस आती है वो दूसरे तरफ से आती है और वो करीब 8 किलोमीटर ज्यादा लंबा है। वैसे गाड़ियां अब तो इस तरफ से भी आती और जाती है पर रास्ते में एक पुल का निर्माण थोड़ा सा बाकी है इस कारण बड़ी गाड़ियां नहीं आ पाती है। उधर पिताजी चाय बना रहे थे और ईधर मम्मी की आवाज आई कि जल्दी से रोटी बना देती हूं खाकर चले जाना, लेकिन देर होने के कारण हमने मना कर दिया कि अगर खाकर जाऊंगा तो मुझे देर होगी और मैं शाम तक वापस नहीं आ पाऊंगा।

कितना भी जल्दी किया तो चाय पीते-पीते और घर से निकलते-निकलते 6.10 बज चुके थे। घर से निकले और फिर कुछ ही मिनट में गांव से ही बाहर पहुंच गए। गांव से बाहर निकलते ही जो छटा दिखी वो ये कि कुहरा इतना ज्यादा था कि रास्ता 200 मीटर भी दिखाई नहीं दे रहा था। पर हमें क्या, हमें कौन सी ट्रेन चलानी है जो कुहरा हमारा कुछ बिगाड़ेगा हमें तो पैदल जाना है इस कुहरे का भी आनंद उठाना है तो हम ऐसे ही कुहरे का आनंद लेते हुए चलते रहे। अभी 200 कदम भी नहीं गए होंगे कि दो श्वान मिल गए जो साथ-साथ चलने लगे। एक श्वान कुछ कदम साथ चलने के बाद वापस हो लिया और दूसरा साथ ही चलने लगा। मैं रुकता तो वो भी रुक जाता, चलने लगता तो उसके कदम भी बढ़ने लगते, मतलब ये कि हमें एक साथी मिल गया था जो मेरे साथ अगले गांव तक जाएगा और वहां से ये वापस आएगा और हम किसी बस से आगे चले जाएंगे। हम दोनों ऐसे ही कुहरे के बीच चले जा रहे थे, न हमारे आगे कोई था और न ही पीछे कोई था और हम चाहते थे कि ये श्वान जितनी जल्दी वापस चला जाए उतना अच्छा है क्योंकि अगले गांव से हम तो बस से चले जाएंगे और ये अकेले हो जाएगा फिर उस गांव के कुत्ते इस पर भौंकेंगे और ये डरेगा लेकिन मेरा प्रयास विफल रहा और ये वापस होने के बजाय हमसे आगे आगे चलने लगा।

चलते चलते आखिरकर हम नदी पर पहुंचे और हम पुल से पार न होकर नीचे नदी के किनारे पर चले गए कि मुझे न देखकर ये वापस हो लेगा और दो-मिनट हम वहीं नदी के ठंडे पानी में छै-छप्पा-छय करते रहे और फिर ऊपर आए तो देखा कि वो पुल पर बैठा मेरा इंतजार कर रहा है यानी कि ये वापस नहीं जाने वाला। खैर हम फिर आगे बढ़े और अब तक सूरज बाबा भी कुहरे को चीरते हुए बाहर निकलने का प्रयास करने लगे थे और वो कभी ताड़ के पेड़ पर दिखते तो कभी बिजली के खंभे पर से निहारने लगते और धीरे धीरे वो भी नदी के किनारे पर भी आ गए। ऊपर सूरज बाबा अपनी लाली के साथ लला रहे थे तो नीचे उनकी परछाई भी पानी में अपनी ललाई दिखा रहा था। खैर हम चलते रहे और करीब 6.50 बजे पेड़का गांव के पास पहुंच गए। अब गांव में प्रवेश करने से पहले मुझे यहां से श्वान महाराज को जबरदस्ती वापस भेजना था, तो पहले हमने उनको थप्पड़ और चप्पल का डर दिखाया लेकिन उन पर कोई असर नहीं हुआ तो खेत से एक डंडा खोज कर लाया और उस डंडे के डर से उसको वहां भगाया और आगे चल पड़े।

और चलते चलते ठीक 7.00 बजे हम उस जगह पर पहुंच चुके थे जहां से बस चलती है और हम अभी 200 कदम पीछे ही थे कि बस स्टार्ट हो चुकी थी पर मुझे आता देख बस वाले ने बस रोक लिया और जब उसने रोक ही दिया तो हम भी सुस्त कदमों से चलते हुए बस तक पहुंचे। बस में दो-तीन खाली पड़ी सीटों में से एक सीट पर हम विराजमान हुए और बस आगे चल पड़ी। डेढ़ घंटे के सफर के बाद 8.30 बजे हम बिहार शरीफ (खंदक पर बस पड़ाव) पहुंचे। वैसे बिहार शरीफ में चार बस पड़ाव हैं, एक सरकारी बस पड़ाव (भराव पर), दूसरा खंदक पर, तीसरा रामचंद्रपुर और चौथा राजगीर मोड़। अब हमें इस बस पड़ाव से दूसरे बस पड़ाव तक जाना था क्योंकि उस तरफ की बसें वहीं से मिलती है तो वहां तक जाने के लिए एक टेम्पो में बैठा और 20-25 मिनट के सफर के बाद दूसरे बस पड़ाव (रामचंद्रपुर) पहुंच गया। 

रामचंद्रपुर पहुंचकर हम पटना से आकर नवादा जाने वाली एक बस में बैठ गए, जो गिरियक होते हुए ही नवादा तक जाती है। गिरियक जहां हमें उतरना था वो जगह बिहार शरीफ और नवादा के लगभग मध्य में स्थित है। दोनों तरफ से इस जगह की दूरी करीब 18 किलोमीटर है। 9.00 बजे यहां से बस चली और 9.30 बजे हम गिरियक पहुंच गए। वैसे यहां आने से पहले हमें ललित विजय जी ने सब कुछ समझा दिया था, फिर भी रास्ते के बारे में तो किसी से पूछना ही था तो जब हमने वहां एक दुकान वाले से घोड़ा कटोरा जाने के बारे में पूछा तो उन्होंने उसी मगध वाले अंदाज में बताया कि आप इसी गली से सीधे चलते चले जाइए, आगे नदी आएगी उसे पार करके कच्ची सड़क मिलेगी, उस पर बाएं मुड़ जाइएगा और वो आपको सीधा घोड़ा कटोरा पहुंचा देगी, पर अभी नदी में पानी है तो आप आप ऐसा कीजिए कि जिधर से आए हैं उधर ही जाइए और आगे राजगीर वाली सड़क पकड़ लीजिए और नदी पार करने के बाद बाएं मुड़ जाइएगा तो घोड़ा कटोरा पहुंच जाइएगा। इसके बाद मेरे कुछ बोलने से पहले वो खुद ही बोल पड़े कि उधर जाएंगे तो आपको आधा घंटा से ज्यादा समय अतिरिक्त लग जाएगा और ईधर से नदी में पानी है। वो हमारा समय भी बचाना चाहते थे और चाहते थे कि हमें पानी में पार भी न होना पड़े तो ऐसा हो पाना तो संभव नहीं था।

उनको असमंजस में पड़ा देख हमने कहा कि ये रास्ता तो आपने बता ही दिया, अब ये बताइए कि पानी कितना है तो उन्होंने बताया कि यही कोई टेहुना भर (घुटना भर) से ज्यादा पानी है और कहीं कहीं थोड़ा और भी ज्यादा है। अगर आपके पास गमछा या तौलिया होता तो आप पार हो जाते। फिर हमने उनको अपने कैमरे वाले बैग से अपना गमछा निकालकर दिखाया कि भइया ये रहा गमछा। फिर उन्होंने कहा कि त कउन दिक्कत हको निकल जा ऐंसही (मतलब कि फिर क्या दिक्कत है, इसी रास्ते से चले जाइए) और उसके बाद हम उसी गली में प्रवेश कर गए। अब जब तक हम इस गली से गुजरकर आगे के सफर पर चलते हैं, आप लोग भी सोचिए कि आगे का सफर कैसा रहा होगा, नदी में कितना पानी होगा, रास्ता कैसा होगा, कितने लोगों से पूछना पड़ा होगा, रास्ता भी भटके होंगे या आराम से पहुंच गए होंगे, आदि आदि। तो आज के इस लेख में बस इतना, बाकी का विवरण अगले पोस्ट में जिसमें हम आपको झील तक ले चलेंगे।



गांव की सड़क


श्वान महाराज


सड़क, पेड़, कुहरा और श्वान


खेतों में पसरा घना कुहरा


घने कुहरे के बीच से झांकते दो ताड़ के पेड़


नदी की ओर आते दिनकर जी


मेरे गांव की नदी पर बना पुल


तारों के झुरमुटों से झांकते सूरज देवता







घोड़ा कटोरा ताल/घोड़ा कटोरा झील [(राजगह, राजगृह, राजगीर), नालंदा, बिहार] Ghoda Katora Taal/Ghoda Katora Lake [(Rajgah, Rajgrih, Rajgir), Nalanda Bihar]




5 comments:

  1. क्या जबरदस्त लेखन है गुरु जी

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    1. ब्लाॅग पर आने और आकर अपनी टिप्पणी से लेख की शोभा बढ़ाने के लिए खूब खूब धन्यवाद आपको।

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  2. क्या बात है... एक एक पहलू को जबर्दस्त शब्द संयोजन के साथ प्रस्तुत किया है आपने

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    1. बहुत बहुत धन्यवाद आपको। ब्लाॅग पर आने और अपनी सुंदर सी टिप्पणी से लेख की शोभा बढ़ाने के लिए खूब खूब धन्यवाद आपको।

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  3. बहुत खूब..अत्यंत प्रसंसा के लायक लेख है.नई जानकारी प्राप्त हुई आज.सहृदय धन्यवाद.

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