Saturday, December 14, 2019

घोड़ा कटोरा ताल-3: घोड़ा कटोरा और मैं (Ghoda Katora Taal-3, Ghoda Katora Taal aur Main)

घोड़ा कटोरा ताल-3: घोड़ा कटोरा और मैं (Ghoda Katora Taal-3: Ghoda Katora Taal aur Main)




घोड़ा कटोरा ताल (राजगृह या राजगीर, नालंदा, बिहार) : मेरे प्यारे घोड़ा कटोरा, जब हमने तेरे बारे में सुना था तो लगा था कि तुम गांव की तलैया जैसे होगे, फिर किसी ने बताया था कि नहीं वो तलैया के जैसा न होकर अपने गांव की नदिया के जैसा है। फिर गया था तुमको देखने पर न जाने क्यों नहीं पहुंच पाया था तेरे पास, या तो तुम मुझसे रूठे थे और मुझसे मिलना नहीं चाहते थे या फिर मेरे मन में ही तुमसे मिलन की लालसा नहीं थी। अपने घर की छत के कोने से तेरे चारों तरफ फैले पहाड़ों को देख कर सोचा करता था कि पता नहीं कैसे तुम अकेले इन पहाड़ों के बीच में रहते होगे, पर मुझे क्या पता था कि ये पहाड़ ही हैं जो तुम्हारी रक्षा के लिए चारों तरफ तुमको घेरे खड़े हैं और तुम उनके बीच बिल्कुल सुरक्षित हो। फिर न जाने कितनी बार, अनगिनत बार, तेरे किनारे से गुजर गया, पर न तो तुमने मुझे बुलाया न ही मैं तुम्हारे पास गया, न तो तुमने मेरी तरफ नजर किया और न ही मैंने तुमसे नजर मिलाया और बस तेरे किनारे से आते और जाते रहे; और गुजरते समयांतराल के बाद मैं भी तुमको भूल गया और तुमने भी मुझे भुला दिया।

पर समय बीता और तेरे लिए मेरा नजरिया बदला और मैं सोचने लगा था कि पता नहीं तुम अभी भी गांव की तलैया या नदिया के जैसे ही हो या किसी और रंग में रंग गए हो। तेरा रूप अभी भी वैसा ही होगा या तुमने कोई और रूप धर लिया है। क्या तुम्हारे पहाड़ अभी तुम्हारे रक्षक बन खड़े हैं या तुम्हारी रक्षा अब कोई कर रहा है। अपने पास आने वाले को अपने शीतल जल से अब भी ठंडा करती हो या झिड़क कर दूर भगा देते हो और ऐसे ही न जाने कितने खयाल लेकर आखिरकार हम तुमसे मिलने के लिए चल पड़े और तुम्हारे सुरक्षा में खड़े पहाड़ों के कंधे पर चढ़कर मैं उस तरफ से इस तरफ तक आया तो तुमको देखते ही मेरी आंखें खुली की खुली रह गई। नजरें बस तुम पर टिकी तो हट ही नहीं रही थी। किसी ने कहा था कि तुम तलैया जैसे हो तो किसी ने कहा था कि तुम नदिया जैसे हो, पर मेरी नजर को तुम कुछ अलग ही लगे।

न तो तुम मुझे तलैया जैसे दिखे, न ही नदिया के जैसे नजर आए और तुमको देखकर जो मेरे पागल मन में तुम्हारे प्रति भाव आए वो कुछ इस तरह थे : तुमको देखा तो पहली नजर में तुम मुझे बिल्कुल ही नैनीताल के जैसे दिखे और लगा कि पूरा मणिमहेश झील सिमट कर तुझमें आ गया है। फिर सहसा मुझे तुम ग्रेट कैनेडियन झील के जैसे प्रतीत हुए और साथ ही नैनीताल की सादृश्यता लिए हुए यहां पहाड़ों के बीच खड़े मिले। फिर तुमको देखते हुए लगा कि जैसे मैं झुमरी तिलैया को देख रहा हूं और फिर मैंने तुम्हारी तुलना मानसरोवर से कर दिया क्योंकि शांति तुम्हारे पास तो वैसी ही थी और फिर खयाल ये आया कि अरे तुम तो पैंगोग झील के जैसे दिख रहे हो और नैनीताल के जैसे लग रहे हो, या तो तुम नैनीताल के लघु-दीर्घ रूप हो या फिर नैनीताल तुम्हारा लघु-दीर्घ रूप है। तुम दोनों में तुम उसके जैसे हो या वो तुम्हारे जैसा है ये तुम दोनों जानो, मुझे तो बस तुमसे मिलना था और मैं तुमसे मिलने चला आया।

हम सुबह गांव से चलकर बिहार शरीफ होते हुए गिरियक पहुंचे और फिर से वहां से धूल भरे कच्चे सड़क पर भटकते हुए ताल की खोज में यहां वहां मारे मारे फिर रहे थे और लोगों के बताए हुए रास्ते का अनुसरण करते हुए ताल के आस-पास आ पहुंचे थे और ईधर-उधर भटकने के बाद पहाड़ के कटे हुए हिस्से के पास आकर हमने मन में यही निश्चय किया कि अब चाहे कुछ भी हो, कितने भी विचार आए, पहले पहाड़ को पार करना है उसके बाद अगर ताल नहीं दिखा तो सीधा वापस घर जाना और अगली बार ईधर से नहीं, राजगीर की तरफ से जाकर ताल का दीदार करना है क्योंकि गिरियक से चले हुए हमें भी 1.15 घंटा हो चुका था और समय भी 10.45 हो चुका था।

अब अगर हम यूं ही ताल को खोजने में समय लगाते रहे तो हम शाम तक वापस घर नहीं पहुंच पांएगे इसलिए तय किया कि ताल दिखा तो सही वरना राम राम करते हुए जिस रास्ते से आए हैं उसी रास्ते से वापस चले जाना है और यही सोचते हुए हम कटे हुए पहाड़ की तरफ कदम बढ़ा दिए और कुछ मिनटों के सफर के बाद पहाड़ के कटे हुए हिस्से तक पहुंच गए। पहाड़ के कंधे पर पहुंचते ही ताल के दर्शन हो गए और ताल जी के दर्शन होते ही हम वहीं एक पत्थर पर बैठ गए कि अब क्या अब तो पहुंच ही गए हैं। अब ताल दिख गया तो इसके मुख्य स्थान तक पहुंचने का रास्ता भी खोज ही लेंगे।

झील को देखते मेरे मन में, मेरे दिमाग में मेरा बचपन फिर से घूमने लगा था। हर साल बरसात के दिनों में न जाने कितने दिन, कितने पल, कितनी बार यूं ही बरसात के बाद साफ हुए मौसम में, जब आसमान साफ रहता था तो हम अपने गांव से ही इस पहाड़ के दर्शन करते थे और कहते थे कि अभी मैं छोटा हूं तो तुम मुझे दूर खड़े होकर ललचाते हो और मैं भी ललचाई नजरों से तुमको देखता रहता हूं। मुझे बड़ा हो जाने दे तो फिर मैं आऊंगा तेरे कंधे पर बैठकर सवारी करने और आज वो दिन था जब हम उसके गोद में पहुंचे हुए थे।

वैसे पहाड़ मुझे देखकर आज भी हंस रहा था कि तेरा बचपन को वो सपना तब पूरा होगा जब तुम अजातशत्रु के स्तूप तक जाओगे और बिना वहां गए हम ये नहीं मानेंगे कि तुमने मेरे कंधे पर सवारी किया है। पहाड़ के हंसी का जवाब हमारे पास इस समय नहीं था क्योंकि आज मुझमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि हम पहाड़ की चोटी पर शोभायमान अजातशत्रु के स्तूप तक जा सकें, पर हमने पहाड़ से वादा किया कि जल्दी ही अगली बार जब भी अपनी कर्मभूमि से अपनी जन्मभूमि में आऊंगा तो उस दिन उस स्तूप तक जाकर सिर जरूर झुकाऊंगा और फिर उस दिन को ही तुम्हारे कंधे की सवारी मानूंगा।

पहाड़ से बातें करने के बाद करने के बाद हम झील के उस भाग तक जाने का रास्ता खोजने लगे, जहां हंस और कुछ अन्य पक्षी रहते हैं, जहां से नावों का संचालन होता है, जहां पर बुद्ध प्रतिमा बनी हुई है, जहां पर लोगों के बैठने और आराम करने के लिए कुछ काष्ठ-कुर्सियां बनी हुई है लेकिन उसमें हमें असफलता ही हाथ लगी। बहुत हाथ-पैर मारा, ईधर दौड़ा, उधर भागा पर हमें कहीं कोई रास्ता नहीं मिला तो मन मारकर वहीं पत्थरों पर घूमने लगे और कटे हुए भाग के सबसे ऊंचे स्थान पर चढ़कर रास्ते का मुआयना करने लगे लेकिन कहीं से हमें रास्ता का पता नहीं चला तो झील के उत्तर भाग की ओर चल पड़े कि ईधर ही कुछ देर छै-छप्पा-छै करेंगे और फिर वापस चले जाएंगे और झील के किनारे किनारे नुकीले और उबड़-खाबड़ पत्थरों पर चलते हुए हम कुछ दूर चले तो जंगली इलाका शुरू हो गया तो पता नहीं क्यों फिर आगे बढ़ने का मन ही नहीं किया।  और आगे न जाने के पीछे कई कारण थे। एक तो हम बीमार थे और हाथ पैरों में इतनी जान नहीं बची थी कि पहाड़ पर चढ़ सकते थे, दूसरा ये कि रास्ता पथरीला कांटों से भरे जंगल वाला था, तीसरा कि हम अकेले थे और इस वीराने में कुछ होने पर सहायता की कहीं से कोई गुंजाइश नहीं थी, चौथा हम मां-पिताजी को भी ये बताकर नहीं आए हैं कि हम कहां जा रहे हैं, उनको केवल इतना बताया था कि बिहार शरीफ जा रहा हूं और शाम तक वापस आ जाऊंगा, और भी ऐसे कई कारण थे जो हमें आगे जंगलों में जाने से रोक रहे थे।

भले ही कुछ न हो फिर भी अकेले उस सुनसान और बियावान वीराने में आगे बढ़ना हमें उचित नहीं लग रहा था तो वहीं एक पत्थर पर बैठ गया और कभी चारों तरफ सिर उठाए पहाड़ को देखता, तो कभी छोटे-बड़े हरे-भरे पेड़ों पर ध्यान लगा देता, कभी जहां पहाड़ काटा गया था वहां पर मिट्टी बहने से रोकने के लिए लगाए गए पत्थरों की कारीगरी को निहारता, कभी झील के बीच में स्थित बुद्ध प्रतिमा पर नजरें टिकाता तो कभी झील के शांत पानी को देखता जो कि बिल्कुल खामोशी की चादर ओढ़े हुए स्थिरचित्त थी, कभी झील के सुदूर दक्षिणी भाग को निहारता तो ऐसा लगता है कि जैसे आगे धरती की सीमा खत्म हो गई और केवल बादल और कुहरे का साम्राज्य है, कभी गर्दन पीछे घुमाकर देखता कि अभी कितना दूर और आगे तक जाया जा सकता है, कभी आकाश को निहारता जहां पर सूर्य देव बाहर निकलने के लिए बादल और कुहरे से युद्ध करते हुए दिख जाते पर उनके युद्ध के हार-जीत का फैसला हो ही नहीं रहा था।

अब तक हम इतने जगह गए हैं, पर ऐसी शांति हमने कहीं महसूस नहीं किया। हर जगह भीड़ से ही सामना हुआ पर यहां आकर लग रहा था कि हम इस जग के अकेले इंसान हैं, न मेरे आगे कोई न था जिसे हमें ये कहना पड़े कि भाई थोड़ा आगे चलिए या थोड़ा मेरा इंतजार कर लीजिए, न ही मेरे पीछे कोई था जो हमें आगे चलने या थोड़ा रुक जाने कहता। न ही दाएं कोई था, न ही कोई बाएं था, और न ही कोई साथ में था, अगर वहां पर कुछ था तो केवल मैं और मेरे साथ झील, झील का पानी, पहाड़, पत्थर, पेड़ और शांति।

यहां पर कुछ समय बिताने के बाद हम यहां से ये सोच कर उठे कि अब घर चलते हैं क्योंकि दोपहर होने वाली है और हमें शाम तक घर भी पहुंचना भी है। फिर एक मन करता कि काश वहां तक पहुंच पाते, फिर खुद ही मन को समझाते कि कोई बात नहीं अगली बार वहां तक पहुंचेंगे क्योंकि एक बार और तो आना ही है क्योंकि केवल झील ही तो देखा है, पहाड़ की ऊंची चोटी पर स्थित अजातशत्रु के स्तूप तक भी तो जाना है। इसी द्वंद्व के साथ हम वहां से उठकर वापसी की राह पकड़ने के लिए आगे बढ़े ही थे कि सहसा किसी के बोलने की आवाज सुनाई दी और चंद पलों में वो आवाज वाले लोग भी दिख भी गए।

घोड़ा कटोरा गांव का एक लड़का अपने यहां आए किसी संबंधी को झील दिखाने के लिए लेकर आया था। सुनसान और वीरान इलाके में मैं इस समय अकेला था और उन लोगों को देखकर पहले तो मन में थोड़ा भय उत्पन्न हुआ पर हमने अपने चेहरे पर उस भय को आने नहीं दिया और उन लोगों से पूछा कि वहां तक जाने का रास्ता किधर से है तो उन्होंने बताया कि उस तरफ से पत्थरों पर चढ़कर पार हो जाने पर रास्ता बना हुआ है जिससे आप वहां तक पहुंच जाएंगे और हम दोनों भी वहीं जा रहे हैं।

उनके बताए हुए जगह की ओर ईशारा करके हमने दुबारा वही सवाल किया कि कहां है ईधर से रास्ता तो फिर वही जवाब मिला कि आप चलिए मेरे साथ और उसके बाद वो आगे आगे और हम उनके पीछे पीछे चल दिए। झील के बिल्कुल खतरनाक किनारे पर खड़े पत्थरों पर डगमग डगमग पैर रखते हुए हम आगे बढ़े और उन पत्थरों को पार करते ही झाडि़यों के बीच से पगडंडी जैसा रास्ता दिख गया। वैसे उसे पगडंडी भी नहीं कह सकते क्यों न तो वहां पग थे और न ही डंडी, अगर कुछ था तो केवल झाडि़यां और लोगों के आने के मिटे-मिटे से निशान। वैसे हम इस रास्ते पर बढ़े चले तो रहे थे पर ये रास्ताा था ही नहीं वो तो घोड़ा कटोरा गांव में रहने वालों वालों ने अपने लिए ये शाॅर्टकट रास्ता बनाया था जो आज मेरे काम भी आ गया और करीब 10 मिनट के सफर के बाद हम उस जगह पर पहुंच चुके थे जहां हम जाना चाहते थे।

वहां इस समय केवल चार लोग थे। एक मैं, दूसरा प्रशासन व्यवस्था का कर्मचारी और वो दोनों लड़के जिनके सहारे हम यहां तक पहुंचे थे। हम चार आदमियों के अलावा अगर यहां कुछ था तो वो था हंसों का झुंड। हंस इस समय झील से बाहर आकर जमीन बैठे बैठे सूर्य देव के आने का इंतजार कर रहे थे, पर सूर्य देव तो नहीं आए और आया भी तो मुझे जैसा खतरनाक मानव जो इन हंसों को परेशान करने के सिवा और कुछ नहीं करेगा। पहले तो हमने उन हंसों को दूर से ही देखा फिर धीरे धीरे एक एक कदम बढ़ाते हुए उनके पास तक पहुंचे। किसी को छू कर देखा, तो किसी को छूने की कोशिश किया तो फूंऽऽऽऽऽऽऽऽऽऽ की लंबी आवाज के साथ उन्होंने मुझे डराने का काम किया। कुछ देर ऐसे ही उन हंसों के साथ हम खेलते रहे और हंसों को भी जब ये पता लग गया कि ये बावला आदमी मुझे ऐसे ही परेशान करता रहेगा तो वो सब भी एक एक करके पानी में चले गए और मैं भी वहां से हटकर किनारे पर बने बेंच पर जाकर बैठ गया।

दो-चार मिनट बैठने के बाद मैं उठकर टिकट काउंटर की तरफ गया कि एक टिकट लेकर जरा बोटिंग का आनंद लिया जाए, पर महोदय ने मुझे केवल इसलिए टिकट नहीं दिया कि मैं अकेले हूं। खैर सुरक्षा की दृष्टि से जो उनको हिदायत दी गई उन्होंने उनका पालन किया और हमने भी उनकी बात माना और वापसी की तैयारी कर लिया। काउंटर से हटकर जैसे ही आगे बढ़े तो एक बोर्ड पर लिखा हुआ दिख गया कि कृपया हंसों को न छेड़ें और ये लिखा हुआ देखकर हमने बोर्ड महोदय को ये कहा कि आपको बोलकर बताना चाहिए था न कि यहां आए हैं तो हंसों को न छेड़ें तो हम नहीं छेड़ते पर अब क्या हमने उन सबको इतना परेशान किया कि वो झील में चली गई और इसके साथ ही हमने बोर्ड जी से क्षमायाचना किया कि अगली बार फिर महीने-दो महीने के अंदर ही यहां आऊंगा तो पक्का वादा है कि अगली बार हंस को नहीं छेड़ूंगा और इतना कहकर हम वापस चल पड़े। जब तक हम वापसी की तैयारी करते हैं तब तक आप लोग इस लेख को पढि़ए और वापसी की कहानी हम अगले लेख में लिखेंगे और अभी के लिए आज्ञा दीजिए।

आपका अभ्यानन्द सिन्हा



यही है घोड़ा कटोरा झील का पूरा दृश्य और इस फोटो के स्वामी ललित विजय जी हैं।

झील और झील में बुद्ध प्रतिमा

झील के उत्तरी भाग से झील का एक दृश्य

झील के उत्तरी भाग का दृश्य

उत्तरी भाग से ही झील का एक और दृश्य

झील में महात्मा बुद्ध की प्रतिमा

झील के किनारे मुसाफिरों के इंतजार में हंसाकृति वाली नावें

झील, पहाड़, नावें और बुद्ध प्रतिमा

किनारे पर आराम करता हंसों का झुंड

ये तू बहुत फोटो खींचता है न तो मेरी भी एक फोटो खींच दे न

हंस मुझसे परेशान होकर आखिरकार झील मेंचले ही गए और यही रास्ता राजगीर चला जाता है

मुसाफिरों के इंतजार करते विश्राम स्थल

टिकट घर

धम्मचक्कपवत्तन (धर्म चक्र प्रवर्तन) मुद्रा में बुद्ध की प्रतिमा

झील, पहाड़ और बुद्ध प्रतिमा

इसी रास्ते से हम आए थे और इसी से जाना है

झील और पहाड़

पहाड़ और झील के साथ ये हरियाली और रास्ता और इसी रस्ते से हम आये थे और इसी से ही वापस भी जाएंगे 

झील का एक दृश्य और बुद्ध प्रतिमा 

अद्भुत शांति है इस जगह पर और उधर पानी जहां खत्म हो रहा है उससे आगे ही जंगल और पहाड़ की चढ़ाई शुरू होती है

झील के तटबंध को टूटने से रोकने के लिए बिछाए गए पत्थर और पास ही खड़े पहाड़

तटबंध को टूटने से रोकने के लिए बिछाए गए पत्थर और पास ही खड़े पहाड़

एक गुफा, जाने का मन था इसमें पर इतनी ऊंचाई पर था कि कोई जा ही नहीं सकता






घोड़ा कटोरा ताल/घोड़ा कटोरा झील [(राजगह, राजगृह, राजगीर), नालंदा, बिहार] Ghoda Katora Taal/Ghoda Katora Lake [(Rajgah, Rajgrih, Rajgir), Nalanda Bihar] :

1 comment:

  1. हम कहीं घूमने जाते हैं तो हमारी घुमक्कड़ी ऐसी होनी चाहिए कि हम वहां की प्रकृति से एकाकार कर ले। या प्रकृति खुद बोल उठे की "आ पथिक!आ... मैं कब से तेरा राह देख रही थी।" आपने प्रकृति के साथ कुछ हसीन पलों को जिया है सानिध्य पाया है एकाकार किया है। प्रकृति भी धन्य हो गयी जो उसे इतने शब्दाभूषणों से सुसज्जित किया गया है।

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