Saturday, April 4, 2020

एक छोटी सी ट्रेन यात्रा (A Short Train Journey)

एक छोटी सी ट्रेन यात्रा (A Short Train Journey)







(यात्रा तिथि : 2 दिसम्बर 2019) : राजगीर (राजगह, राजगृह) के कुछ जगहों को घूमते-देखते लगभग 11 बजे चुके थे और अब हमें यहां से अपने गांव की तरफ प्रस्थान करना था तथा उसके लिए पहले हमें बिहार शरीफ पहुंचना था। राजगीर से बिहार शरीफ जाने के लिए हर 5 से 7 मिनट पर बसें मिल जाती है और छोटी गाडि़यां भी, साथ ही करीब एक दर्जन ट्रेन उपलब्ध है। इतने सारे साधन होने के बावजूद भी हम ये सोचने लगे कि हम किस साधन से बिहार शरीफ तक जाएं, बस से या ट्रेन से। और यही सोचते हुए कुछ मिनट ऐसे ही बीत गए और सोचने के पीछे भी एक कारण था। वो ये कि अगर हम बस से जाते हैं तो बस जी हमें जिस बस पड़ाव पर उतारेंगे वहां से दूसरे बस पड़ाव तक जाने के लिए ऑटो से दूसरी तरफ जाना पड़ेगा क्योंकि बस हमें शहर के पश्चिम तरफ के बस पड़ाव पर छोड़ेगी और मेरे गांव की गाड़ी शहर के पूरब से मिलती है। यही यदि हम ट्रेन से जाते हैं तो ट्रेन महाराज हमें शहर के पूरब की तरफ छोड़ेंगे जहां से मैं पांच मिनट पैदल चलकर पांच मिनट में उस बस पड़ाव पर पहुंच जाऊंगा और कुछ धन भी बचा लूंगा क्योंकि यदि बस से जाता तो मेरा खर्चा 30 और 12 मतलब कि कुल 42 रुपए खर्च होते और ट्रेन महाराज हमें केवल और केवल और केवल 10 रुपए में ही वहां पहुंचा देंगे और शहर की भीड़ भाड़ से भी बचा लेंगे।

ट्रेन से जाने का सोचकर हमने राजगीर स्टेशन से गुजरने वाली ट्रेनों की स्थिति देखा तो पता लगा कि गया से चलकर बख्तियारपुर जाने वाली ट्रेन जिसका समय 11 बजे है वो 30 मिनट देरी से चल रही है लेकिन फिर भी उसे पकड़ पाना संभव नहीं था और उसके बाद वाली ट्रेन जो राजगीर से चलकर हावड़ा तक जाती है वो 12.30 बजे है। अब 11 बजे वाली ट्रेन को पकड़ना संभव तो था नहीं तो हम 12.30 बजे वाली ट्रेन पर ध्यान लगाकर आराम से चलने लगे और कुंड के पास से राजगीर बस पड़ाव तक किसी टमटम से न जाकर पैदल ही चल पड़े। कुछ ही कदम आगे बढ़े तो तो ऐसा लगा वेणुवन मुझे पुकार रहा है और उसकी पुकार सुनकर मेरे कदम सड़क से बाएं तरफ स्थित वेणुवन की तरफ मुड़े गए। टिकट काउंटर पर जाकर 5 का एक चमकता हुआ सिक्का देकर हमने टिकट लिया और प्रवेश द्वार पर पहुंच गए।

वेणुवन के प्रवेश द्वार पर पहुंचते ही न जाने क्या मन में आया कि हम सोचने लगे कि यदि एक बार वेणुवन में प्रवेश कर गए तो दो-तीन घंटे कैसे बीत जाएंगे कुछ पता भी नहीं लगेगा और मेरी ट्रेन तो छूटेगी ही और बस से जाकर भी हम अपने गांव को नहीं पहुंच पाएंगे और फिर हमारे वेणुवन जाने का मन बदल गया और टिकट खिड़की पर टिकट कटाने के लिए जा रहे एक व्यक्ति को हमने टिकट दिया और आगे चल पड़े। करीब दस मिनट चलने के बाद हम बस पड़ाव पर पहुंचे और फिर एक बार सोचा कि बस से जाएं या ट्रेन से और फिर ट्रेन का ध्यान लगाकर आगे चल पड़े और फिर यूं ही करीब 10 मिनट चलते रहे और देखा कि स्टेशन जी मुस्कुराते हुए मेरा इंतजार कर रहे हैं और कह रहे हैं कि बच्चे तुमने थोड़ी देर कर दी। तुम वहां से यहां तक ठुमकते ठुमकते आए हो और यदि तुमने थोड़ा सा अपने पैरों को कष्ट दिया होता और थोड़ा तेज चल लेते तो तुम 11 बजे वाली ट्रेन भी पकड़ लेते। अब उनकी ये बात सुनकर हमने भी नजर उठाया तो देखा कि ट्रेन जी प्लेटफाॅर्म संख्या 1 पर मंद मंद मुस्कुराते हुए ठुमकते हुए आगे बढ़ रहे थे लेकिन मेरे लिए तो यही बात हो चुकी थी कि का वर्षा जब कृषि सुखाने मतलब कि अब ट्रेन जा चुकी थी और मुझे अगले ही ट्रेन से जाना था। और इन्हीं खयालों में पांचवीं कक्षा में पढ़ा हुआ वो वाक्य याद आ रहा था जब गुरुजी ने एक वाक्य का अनुवाद करने के लिए दिया था, और वो वाक्य ये था

मेरे स्टेशन पहुंचने के पहले ट्रेन चल चुकी थी मतलब कि The train had started before I reached the station

अब करते भी तो क्या करते और करना भी क्या था, हम तो आए ही थे 12.30 बजे वाली ट्रेन के लिए जो कि प्लेटफाॅर्म संख्या 2 मेरे लिए ही खड़ी थी क्यांेकि आज उस ट्रेन का पहला यात्री मैं ही बनने वाला था। पता नहीं कैसे या क्या हुआ ये पता नहीं, पर जैसे ही हम टिकट काउंटर पर पहुंचे और 10 का एक सिक्का लिपिक बाबू को देते हुए कहा कि बिहार शरीफ का एक टिकट दे दीजिए तो टिकट देने के बाद उन्होंने कहा कि आप इतने हड़बड़ाए हुए और जल्दी में क्यों हैं, अभी तो पूरे एक घंटा बाकी है ट्रेन खुलने में। उनके बात पर मुझे पहले तो आश्चर्य हुआ कि ऐसा तो कुछ भी नहीं किया जिससे लगे कि मैं जल्दी में हूं और फिर उनको जवाब दिया कि नहीं वो कुंड से पैदल ही आ रहे हैं न इसलिए ऐसा लग रहा होगा आपको। और उसके बाद हम सीढि़यों को पार करते हुए प्लेटफार्म संख्या 2 पर पहुंचे तो देखा कि राजगीर से हावड़ा जाने वाली तो ट्रेन अपने लिए सवारियों का इंतजार कर रही है। पहले हमने कुछ बोगियों का मुआयना किया कि कहां बैठा जाए। सारी बोगियों और उसके अंदर यात्रियों के इंतजार में खाली सभी सीटों को देखकर मुझे सभी बोगियां और सीटें एक जैसी ही प्रतीत हो रही थी। एक दो बोगियों में तो हमने अंदर जाकर देखा फिर भी कोई अंतर का पता नहीं चला तो फिर ऐसे ही एक बोगी में खाली पड़ी सीटों में से एक पर कब्जा कर लिया और बैग को वहीं सीट के पास रख लिया और खिड़की से बाहर देखते हुए शांत और नीरव वातावरण में खो गया।

यूं ही बैठे बैठे करीब 25 से 30 मिनट बीत गए होंगे। तभी सहसा कई लोगों के साथ की आवाज से मेरी तंद्रा टूटी तो देखा कि एक बहुत बड़ा समूह जिसमें करीब 30 लोग थे, डिब्बे में एक एक करके कोलाहल करते हुए प्रवेश कर रहे थे और देखते ही देखते उन लोगों ने पूरे डिब्बे में खाली सीटों पर कब्जा जमा लिया। सीटों पर कब्जा जमाने के उपरांत उन लोगों के बातों से ऐसा शोर हो रहा था जैसे कि एक साथ सैकड़ों ट्रेन के इंजन को चालू करके छोड़ दिया गया हो। उनके इस कोलाहल से मुक्ति का मेरे पास केवल एक ही उपाय था कि हम इस डिब्बे को छोड़कर कर दूसरे डिब्बे में चले जाएं और हमने वही किया। अपना बैग उठाया और सबसे अंतिम डिब्बे में जाकर वैसी ही एक सीट पर बैठा जैसी सीट पर उस डिब्बे में बैठा था। सबसे पीछे के डिब्बे में बैठने का एक कारण अब ये भी था कि बिहार शरीफ में ट्रेन से उतरने के बाद हमें पीछे की ओर ही आना था तो क्यों नहीं यहीं पर पीछे के डिब्बे में बैठते हैं जिससे वहां तुरंत ही बस पड़ाव पर पहुंचा जा सके। सीट पर बैठने के साथ ही मैं महादेव से ये विनती कर रहा था कि ये प्रभु इस डिब्बे में एक साथ सफर करने वाले किसी समूह को मत भेजना वरना अब हम कहां जाएंगे और महादेव ने भी प्रार्थना सुन लिया और मेरी बात रख लिया और उस डिब्बे में बहुत कम यात्री भेजे। कुछ मिनट ऐसे ही प्लेटफाॅर्म की तरफ देखते हुए बीता और फिर कुछ न कुछ बेचने वाले लोग भी डिब्बे में आने लगे और इसी दौरान एक खाजा वाला भी आया तो हमने भी दस रुपए को दो खाजा लिया और उसे उदरस्थ करने के उपरांत पानी पीया और ट्रेन खुलने का इंतजार करने लगा।

कुछ मिनट बाद 12.30 बज गए और ट्रेन के इंजन जी ने सीटी बजाना शुरू कर दिया और इसका मतलब कि अब ट्रेन जी यहां से आगे बढ़ेंगे और हुआ भी यही, ट्रेन जी धीरे धीर ठुमकते हुए आगे बढ़ने लगे और हम भी प्लेटफाॅर्म को तथा यात्री शेडों को निहारने लगे, जो कि वहीं खड़े थे लेकिन हमंे लग रहा था कि वो पीछे छूट रहे हैं। प्लेटफाॅर्म से आगे बढ़े तो देखा कि यार्ड में खड़ी दूसरी ट्रेनें जैसे राजगीर-नई दिल्ली श्रमजीवी एक्सप्रेस, राजगीर वाराणसी एक्सप्रेस, पटना-राजगीर इंटरसिटी एक्सप्रेस आराम से खड़ी थी और इस राजगीर-हावड़ा को अपने पास से गुजरते हुए देख कह रही थी कि तुम चलो पीछे से हम भी आ रहे हैं और बख्तियारपुर तक तेरे ही पहिये का निशान देखते हुए वहां तक आएंगे और उसके बाद हम सभी दूसरी दिशा में मुड़ जाएंगे क्योंकि तुम मुझे छोड़कर जो रहे हो तो वहां से आगे हम भी उस तरफ नहीं मुड़ेंगे जिस तरफ तुम मुड़ोगे।

ट्रेन जी जो अब तक ठुमक ठुमक कर चल रहे थे अब अपनी गति बढ़ाते हुए तांडव करने लगे थे और तांडव के पीछे कारण ये था कि इनको हर हाॅल्ट पर रुकना नहीं था। अभी हम इनके तांडव की गति को समझने की कोशिश कर ही रहे थे कि सिलाव स्टेशन के बोर्ड पर नजर पड़ गई और हमने उम्मीद लगा रखा था कि यहां ट्रेन रुकेगी और जरूर रुकेगी और जैसे ही ट्रेन जी रुकेंगे तो यहां भी दो-चार खाजा खरीदा जाएगा, पर ऐसा नहीं हुआ। हमारी उम्मीदों को धूमिल करते हुए ट्रेन जी यहां से तांडव करते हुए ही गुजर गए और मैं प्लेटफाॅर्म पर घूमते हुए खाजा वालों को और उनके सिर पर रखे टोकरी में से झांक रहे खाजा जी को अपना जीभ निकाल कर देखते रहे कि काश ट्रेन रुक जाती ट्रेन पर ट्रेन जी को उससे क्या मतलब था।

सिलाव से आगे बढ़ते ही अब बारी थी नालंदा स्टेशन की। सिलाव और नालंदा के बीच के कई छोटे और मोटे हाॅल्टों से गुजरती हुई हमारी ट्रेन नालंदा की तरफ तांडव करते हुए आगे बढ़ रही थी और कुछ ही मिनटों में ऐसा प्रतीत हुआ जैसे तांडव की गति थोड़ी धीमी हो रही है जिससे अहसास हो गया कि ट्रेन नालंदा स्टेशन पहुंचने वाली है और हम अपना कैमरा लेकर नालंदा स्टेशन पर लगे बोर्ड की फोटो खींचने के लिए तैयार हो गए पर यहां भी हमें निराशा ही हाथ लगी। सिलाव स्टेशन पर ट्रेन ने धोखा दिया और हम खाजा नहीं खरीद सके और नालंदा स्टेशन पर बोर्ड के पास खड़े लोगों ने धोखा दिया और हम यहां बोर्ड की फोटो नहीं ले सके। खैर जो भी अब ये बोर्ड तो हाथ से निकल चुका था और दूसरे किनारे पर लगे बोर्ड की फोटो लेने को उत्सुक मैं कैमरा चालू करके हाथ मंे रखे हुए था पर यहां भी उस निराशा मैडम और नाउम्मीदी सर का प्रकोप बना रहा। इस बोर्ड पर रेलवे लाइन को मरम्मत करने वाले लोग जो हैंडपंप पर नहा रहे थे उन लोगों ने बोर्ड पर ही अपने कपड़े सुखने के लिए डाल दिया था तो यहां भी मैं फोटो लेने से वैसे ही वंचित रह गया जैसे दूसरे किनारे पर लोगों के खड़े रहने से वंचित रह गया था। 

नालंदा से ट्रेन के चलते ही एक उम्मीद थी कि पावापुरी रोड स्टेशन पर तो बोर्ड का फोटो अवश्य लेंगे पर हुआ वही जो होनी का लिखा था। यहां पहुंचने से पहले उम्मीद सर ने थोड़ा सा उम्मीद का दीपक चलाया था लेकिन निराशा मैडम का प्रकोप और नाउम्मीद सर के प्रहार के आगे वो भी घुटने टेक दिए। इस स्टेशन पर लगा बोर्ड प्लेटफाॅर्म की लंबाई की दिशा में लगा हुआ है तो हम कैमरा लेकर तैयार ही थे कि फोटो तो ले ही लेंगे पर नहीं, यहां एक दूसरे ट्रेन ने धोखा दिया, जब हम बोर्ड के पास पहुंचे तो पता लगा बोर्ड महाराज दूसरे वाले ट्रेन की छत्रछाया में अपना सिर छुपा चुके हैं और हम यहां भी फोटो लेने का इंतजार करते रह गए और उसके बाद पावापुरी रोड से ट्रेन खुलने के बाद हमने अपने कैमरे के आंख को उसके ढंक्कन से बंद करके बैग का मुंह खोलकर उसके पेट में डाल दिया कि अब तेरा कोई काम नहीं और और बिहार शरीफ पहुंचने का इंतजार करने लगे। ईधर ट्रेन जी अपने तेज गति से चले जा रहे थे और हम बिहार शरीफ पहुंचने का इंतजार कर रहे थे और कुछ मिनटों के सफर के बाद वो हमारा ट्रेन से अलग होने का समय आ गया, मतलब कि बिहार शरीफ स्टेशन आ गया, जो कि पहले स्टेशन था लेकिन अब जंक्शन बन चुका है।

बिहार शरीफ में ट्रेन के रुकते ही हम ट्रेन से उतरे और आगे चल पड़े। प्लेटफाॅर्म के किनारे पर पहुंचकर प्लेटफाॅर्म पर खड़े बिहार शरीफ के बोर्ड जी का फोटो लिया और बस पड़ाव की तरफ चल पड़ा। 5 मिनट अपने पैरों को कष्ट देने के बाद हम बस पड़ाव पर पहुंच चुके थे और वहां जाकर पता लगा कि मेरे गांव वाली दोनों तरफ में से किसी भी तरफ की बस गांव तक नहीं जा रही है। अब बस गांव तक नहीं जाएगी तो इसका मतलब यही है कि अब हम चाहे जिस भी तरफ से जाएंगे हमें 5 किमी तो पैदल चलना ही होगा तो यही सोचकर जिधर से कम किराया लगता है उस तरफ वाले बस का इंतजार करने लगे। ठीक 1.05 बजे हम ट्रेन से उतरे थे और 1.15 पर बस पड़ाव आ चुके थे और 15 मिनट के इंतजार के बाद 1.30 बजे बस भी आ गई जो मेरे गांव की तरफ तो जाएगी पर गांव तक नहीं पहुंचाएगी ठीक वैसे ही जैसे पायल तो है लेकिन घुघंरू नहीं है। अब बस गांव तक पहुंचाए या न पहुंचाए पर जाना तो मुझे इसी बस से है तो हम एक सीट पर अपना बैग रखे और चालक महोदय से पूछा तो बताया कि 2.00 बजे इस गाड़ी का समय है लेकिन 2.30 बजे वाली गाड़ी बारात लेकर चली गई है इसलिए आज ये 2.30 बजे यहां से चलेगी मतलब कि पूरे एक घंटा का इंतजार। अब इंतजार तो करना ही था तो कभी सीट पर बैठकर तो कभी सड़क पर टहलकर हम अपना समय काटने लगे और 2.30 बजने का इंतजार करने लगे।


राजगीर स्टेशन का एक प्लेटफाॅर्म

राजगीर स्टेशन

सिलाव हाॅल्ट

नालंदा स्टेशन

दीपनगर कुंडलपुर हाॅल्ट

बिहार शरीफ जंक्शन





2 comments:

  1. रोचक रही यह छोटी सी यात्रा। एक साधारण से दिखने वाली यात्रा में भी कितने घुमाव आ सकते हैं यह इसे पढ़कर जाना जा सकता है। आभार।

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  2. sarkari yojana

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