Wednesday, October 13, 2021

मेट्रो की सवारी (Metro ki Sawari)

मेट्रो की सवारी (Metro ki Sawari)




मेट्रो ट्रेन के डिब्बे में
मिल जाती है यूं ही
अजब गजब सी जिंदगी।
दरवाजे से सटे
कोने वाली सीट पर
नजरें गड़ाए हुए
मोबाइल पर
तन कर बैठी है तनु।
घुटने तक की पहनी जींस
वहीं बगल में खड़ी है मनु।
और वहीं बगल में खड़ा वनु
कर रहा है सीट के
खाली होने का इंतजार।
दरवाजे के सहारे खड़ा सोनू
खिड़की से देख रहा
बाहर की ओर।
बीच वाली दो सीटों को हथियाकर
बैठी वो मोटी महिला
यूं ही घूर रही सबको।
खम्भे के सहारे खड़े मिश्रा जी
फोन पर कर रहे हाय हेलो।
शर्माजी के कमीज के दो बटनों से
झांक रहा है उनका तोंद।
घड़े जैसे तोंद के ऊपर से
झांक रहे सन से सफेद बाल।
बगल में खड़े गुप्ता जी
उतार रहे हैं
रात में चढ़ी
वोदका का खुमार।
कोने वाले दूसरे सीट पर
पीठ टिकाए बैठे हैं जो मिस्टर।
हर खर्राटे के साथ
लुढ़क रहा है उनका सर।
हिल डुल रही है नव्या
कानों में डाले
हेडफोन का वायर।
वहीं बगल में खड़े बंसल जी
फोन पर ही कर रहे व्यापार।
डिब्बे की दीवारों पर कंपनियां
कर रही उत्पादों का प्रचार।
दरवाजे पर टिक कर खड़ी है
काव्या कानों में लगाए मोबाइल।
पूरा ध्यान लगा रखी है बातों में
सफर या मंजिल का नहीं है ध्यान।
तभी खुलता है दरवाजा
छूट जाता है हाथ से मोबाइल।
करती है कोशिश उठाने की
पर पैरों से ठोकर खाकर
औंधा पड़ जाता मोबाइल।
लगती है कनभन करने पर
मोबाइल का हुआ हाल बेहाल।
मुंह लटकाकर वही बगल में
खड़ी देख रही ईधर उधर।
वही बैठे हैं चैबे जी
और उनका पूरा परिवार।
जैसे ही आया इंटरचेंज स्टेशन
लगे भागने हैरान परेशान।
पहले हम तो पहले हम
कुछ धक्का कुछ मुक्की।
मची हुई थी अफरा तफरी
करने लगे सब आपाधापी।
सूट बूट में गोयल साहब
कानों में डाले भोंपू।
गिर गया घड़ी हाथ से खुलकर
नहीं रही उनको कोई सुध।
बगल में खड़े थे वर्मा जी
ईशारे से दियो बताय।
जैसे ही झुके घड़ी उठाने
जेब से गिर गया मोबाइल।
मोबाइल का जो शीशा टूटा
मचा दिया उन्होंने चीख पुकार।
स्टेशन आया खुला दरवाजा
बाहर निकले दौड़ लगाय।
हम थे यूं ही खयाल में खोए
दिन दुनिया से बेखबर।
जब आया मेरा स्टेशन
सबके बीच फंस गए हम।
बेकार और बेमतलब के खयाल में
उलझे रह गए मकड़जाल में।
नहीं उतर पाए हम स्टेशन पर
दरवाजे यूं ही हो गए बंद।
चला सफर अब अगले स्टेशन तक
आना होगा फिर वहां ये वापस।
हालत मेरी ऐसी थी
जैसे कोई पुराना अखबार।
हो रही थी देरी हमें
देख रहा था घड़ी बारंबार।
आया जैसे ही अगला स्टेशन
उतर कर किया हमने पूरा मिशन।
आया नीचे काॅनकाॅर्स तक
दौड़ लगाकर सीढिघ्यों से।
ज्यों एस्केलेटर पर रखा पैर
हो गया वो यूं ओवरलोड।
पहुंचने की खातिर प्लेटफाॅर्म तक
फिर से दौड़े सीढिघ्यों पर।
आई मेट्रो दौड़ घुसा मैं
खड़ा हो गया दरवाजे पर।
फिर आया मेरा स्टेशन
दौड़ लगाया बाहर तक।

नोट : फोटो और कविता का एक दूसरे से कोई संबंध नहीं है। कविता रोजमर्रा की जिंदगी से संबंधित है और फोटो किसी उस दिन का है जब मेट्रो खाली दौड़ा करती थी।

No comments:

Post a Comment