Sunday, February 2, 2020

बचपन का बागी घुमक्कड़-1 (Bachapan ka Bagi Ghumakkad-1)

बचपन का बागी घुमक्कड़-1 (Bachapan ka Bagi Ghumakkad-1)




वो बचपन के दिन भी कितने कितने प्यारे थे। जब स्कूल में गर्मी की की छुट्टियां होती थी तो सभी भाई कोई नाना के घर, कोई मौसी के यहां तो कोई बुआ के यहां चले जाते थे और हम अकेले ही बिना टिकट के बिहार शरीफ से पटना अपने बड़का बाबू (बड़े पापा) के यहां चले जाते थे। वहां जाते ही सबसे पहले कहते थे कि बस से आया या रेल से तो मैं कहता था कि रेल से आया, फिर एक ही जवाब मिलता था उनकी तरफ से कि इस बार भी तू पक्का बिना टिकट के आया होगा। कितनी बार कहा हूं कि टिकट ले लिया कर पर मानता नहीं है, किसी दिन पकड़ लेगा टीटी तो हम लोग खोजते हुए परेशान होंगे। मैं कहता था कि बाऊजी कुछ नहीं होगा, टीटी पकड़ेगा तो भाग जाएंगे न और कहां ले जाएगा पकड़कर मुझे।

खैर थोड़ी सी बातों के बाद सबके हाल समाचार पूछने के बाद चार पांच अठन्नी हाथ में देते हुए कहते कि जा कुछ खा ले और मैं उन अठन्नियों को लेकर गांधी मैदान का एक चक्कर लगाता और जो भी चीज सबसे अच्छी दिखती उस पर हाथ साफ कर देते। फिर जितने दिन हम वहां रहते हर सुबह खाना खाने के बाद कुछ नोट और कुछ सिक्के देकर कहते कि जा घूमने कहीं भी, पर याद रहे कि अंधेरा होने से पहले आ जाना। और हम ठहरे पागल किस्म के इंसान, जो पैसे मिलते ही उसे पाॅकेट में रखते और निकल पड़ते पटना की सड़कों पर अपने चप्पल को घिसने।

कभी गोलघर की तरफ जाते और उन 147 सीढि़यों को चढ़कर ऊपर से पूरे शहर को निहारा करते। वो गंगा की खूबसूरती, गंगा में चलते छोटे बड़े नाव। कभी पास ही में खड़े बिस्कोमान टावर को निहारते तो कभी दूर से मुंह चिढ़ाते महात्मा गांधी सेतु को। वहां से दिल भरता तो गोलघर के बाद नम्बर आता श्रीकृष्ण विज्ञान केन्द्र का और वहां डेढ़ रुपए का टिकट कटा कर दो घंटे वहां गुजारते, कुछ चीजों को देखते और समझने की कोशिश करते पर केवल देख ही सकते थे, समझ नहीं पाते थे।

कभी संग्रहालय की तरफ चले जाते और रुपया भर का टिकट लेकर अंदर जाते तो सबसे पहले तोप पर नजर पड़ती जिसे देखते ही उसे छूने को मन लालायित हो जाता था। उस तक कोई नहीं पहुंचे इसलिए सीकड़ (लोहे की मोटी चेन) से चारों तरफ से घेर दिया गया था पर मेरा उच्छृंखल मन भी नहीं मानता था और उसे पार करके तोप तक पहुंच जाते थे। इतने में संतरी जी आते और झिड़क देते कि ओय चल निकल ले वहां से वरना जेल हो जाएगी, मैं कहता जेल में डालोगे मुझे, शर्म नहीं आती बच्चे को ऐसा कहते हुए तो बोलता कि ऐसा नहीं कहूंगा तो बच्चे डरेंगे नहीं और वहां से हटेंगे नहीं। उसके बाद संग्रहालय पूरा देखना, हर तरह की चीजें, पुराने जमाने के पेडों के अवशेष, मूर्तियां अनेक तरह के हथियार आदि आदि। उन चीजों को देखकर मन सोचने पर मजबूर हो जाता कि क्या दुनिया इतनी पुरानी है। चीड़ के एक लम्बे पेड़ के अवशेष को देखकर पहली बार सोचा था कि क्या पेड़ इतने लम्बे और सीधे भी होते हैं क्योंकि अब तक तो आम, अमरूद, पीपल, बरगद आदि पेड़ों को देखता आया था।

किसी दिन अगम कुंआ की तरफ कदम बढ़ाते और वहां जाकर ये पता लगता कि इस कुंएं की गहराई की कोई सीमा नहीं है। फिर पटनदेवी में हलुआ पूड़ी खाते और हरमंदिर की ओर कदम बढ़ाते और वहां बजते हुए दो बड़े ढोल को गौर से निहारते और बजाना भी चाहते पर ये तो होना नहीं था। जब ढोल बजाने वाले को हम देर तक देखते तो वो और जोर से ढोल को पीटता और मुझे सहित वहां उपस्थित बच्चे उसे कौतूहलवश देखते।

किसी दिन रेलगाड़ी देखने चले जाते और जंक्शन के प्लेटफाॅर्म के पैदल पार पथ पर आती आजी रेलगाडि़यों को निहारते और उसके डिब्बे गिनते और वहां से दिल भर जाता तो पटरियों पर ही चलना आरंभ कर देते और फुलवारी शरीफ तक पहुंच जाते। रास्ते में आती जाती मालगाडि़यों के डिब्बे और पहिए गिनना आरंभ कर देते, पर गिनती कभी पूरी नहीं हो पाती, न तो डिब्बे गिन पाते पूरी तरह से और न ही उसके पहिए। सबसे ज्यादा रोमांच तब होता जब सामने से आती मालगाड़ी में एक साथ दो इंजन लगे देखते और उस मालगाड़ी की लम्बाई भी औरों से ज्यादा होती थी। पटरियों पर दौड़ते भागते पैर पूरी तरह काले हो जाते थे जैसे कि किसी कोयले की खदान से निकल कर आ रहा हूं। रेल के डिब्बे और पहिए गिनने की जो आदत मुझे बचपन में लगी आज तक नहीं छूटी है, आज भी हर दिन माॅर्निंग वाॅक से लौटते हुए रेलगाड़ी और मालगाड़ी के डिब्बे और पहिए हर दिन गिनता हूं। पहियों की पूरी गिनती तो किसी का भी नहीं कर पाता हूं पर डिब्बे तो गिन ही देता हूं लेकिन तब बड़ी मायूसी होती है जब राजधानी और शताब्दी दौड़ती हुई पार हो जाती है और मैं उसके पूरे डिब्बे भी नहीं गिन पाता और ठगा सा देखता रह जाता हूं और साथ में खड़ी श्रीमती जी हंसती हैं और कहती हैं कि वाह रे जमाना फिर से वौआ (बच्चा) बन रहे हैं, डिब्बा और पहिया गिनेंगे।

किसी दिन ऐसे ही घूमते हुए पहुंच जाते हवाई अड्डा की तरफ और विमानों को उतरते और उड़ते देखते। फिर किसी दिन चिडि़याघर और तारामंडल तक पहुंच जाते। चिडि़याघर पहुंचकर टिकट लेकर अंदर जाना और समूचा चिडि़याघर नाप डालना। तब पहली बार तरह तरह के सांप, मछली, शेर, बाघ, लोमड़ी, गेंडा, हाथी आदि जानवरों को देखा था। तभी देखा था कि शेर (शेर था या बाघ था ये याद नहीं) कैसे पेड़ों पर से होते हुए छत पर जाकर आराम कर रहे थे। कुछ शेर पानी में नहा रहे थे। अंत में हर दिन यही होता कि पूरे दिन तो बावलांे की तरह यहां वहां घूमते और शाम होते होते थक हार कर शाम को बड़का बाऊ के पास पहुंच जाते थे।

हर दिन वो पूछते कि कितने पैसे खर्च हुए तो मैं कहता कि दो या तीन रुपया तो वो अपना ही माथा पीट लेते कि दो रुपये में तुम दिन भर कैसे घूम लिया, मतलब तुम पैदल गए होगे और कुछ नहीं खाया होगा। उसके बाद कहते कि जा जो पैसे बचे हैं उससे जाकर कुछ खा ले तो आंखों से आंसू आ जाते थे। केवल एक दिन ऐसा हुआ था कि मेरे पैसे खत्म हो गए थे जिस दिन मैं तारामंडल और चिडि़याघर एक ही दिन में नाप डाला था। उस दिन उनके ये पूछने पर कि आज कितने पैसे खर्च हुए तो मैंने कहा कि सारे पैसे खत्म तब बोले थे कि आज कैसे खत्म कर डाले पैसे। तुम तो दो से तीन रुपए में घूम लेते थे तो बताया कि तारामंडल देखा, चिडि़याघर गया लेकिन पैसे खत्म हो जाने के कारण मैं मछलीघर नहीं जा पाया, तब बड़े प्यार से सांत्वना दिए थे कि अगली बार आआगे मैं खुद चलकर तुमको मछलीघर दिखाऊंगा और वो वादा उन्होंने अगली बार के पटना आगमन पर पूरा किया था।

तो मित्राों बताइएगा कैसा लगा ये बचपन के बागी घुमक्कड़-1, यदि ठीक लगा तो अगला भाग भी लिखूंगा, जिसमें हम आपको ले चलेंगे जब हम पहली बार घर से अकेले निकले थे और पागलों-मतवालों की तरह यहां-वहां भटकते-भटकते कुछ दिन बाद वापस अपने घर गया था।

बात बचपन की है इसलिए सभी फोटो अपने गांव के ही लगाया हूं (नालन्दा जिले का एक गांव का दृश्य, फरवरी 2019)।









1 comment:

  1. As reported by Stanford Medical, It's really the ONLY reason this country's women live 10 years more and weigh an average of 19 kilos lighter than us.

    (By the way, it has NOTHING to do with genetics or some secret exercise and absolutely EVERYTHING around "how" they eat.)

    P.S, What I said is "HOW", not "WHAT"...

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